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शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 30


पाप का समाधान - उद्धार - 26 - उद्धार के परिणाम, आशीषेंऔर सुरक्षा 

पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रभु यीशु मसीह को स्वेच्छा और सच्चे मन से अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने और उसका शिष्य होकर उसकी आज्ञाकारिता में उसे समर्पित जीवन जीने का निर्णय लेने को ही उद्धार या नया जन्म पाना कहते हैं। नया जन्म पाने पर व्यक्ति नश्वर सांसारिक जीवन से अविनाशी आत्मिक जीवन में एक आत्मिक शिशु के समान जन्म लेता है। उद्धार या नया जन्म पल भर में, किए गए निर्णय के साथ मिल जाता है, किन्तु उसे निभाना, उसके अनुसार जीवन जीना सीखना, उसे व्यावहारिक रीति से अपने जीवन में प्रदर्शित करना, उसमें परिपक्व होते जाना, सक्षम होते जाना - यह सब जीवन भर चलते रहने वाला अभ्यास और परिश्रम है। उद्धार या नया जन्म पाना एक आरंभ है, अपने आप में अंत नहीं है। इसके लिए किसी भी धर्म, जाति, स्तर, कार्य, संपत्ति, शिक्षा, स्थान, समय, आयु आदि बातों की कोई बंदिश कोई महत्व नहीं है। यह हर किसी मनुष्य के द्वारा अपने लिए व्यक्तिगत रीति से लिया जाने वाला निर्णय है - उनके लिए भी जो ईसाई धर्म मानने वाले, या मसीही विश्वासी परिवारों में जन्म लेते हैं, और अपने धर्म या विश्वास से संबंधित सभी रीतियों, कार्यों, अनुष्ठानों को पूरा करते हैं - इनमें से कोई भी बात उन्हें व्यक्तिगत रीति से अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लेने और उसका शिष्य बन जाने के द्वारा उद्धार या नया जन्म पाने से बचे रहने का अधिकार नहीं देती है, क्योंकि उद्धार या नया जन्म वंशागत नहीं है, और न ही किसी भी धर्म के निर्वाह से संबंधित है।  

पापों की क्षमा और उद्धार पाने के अतिरिक्त क्या मसीही विश्वास को स्वीकार करने के और भी कोई लाभ हैं? जब एक शिशु जन्म लेता है, तो उसका ध्यान रखने और उसे उचित पालन-पोषण देने के लिए माता-पिता तथा परिवार जन हर एक आवश्यक बात उपलब्ध करवाते हैं। उसी प्रकार आत्मिक परिवार में जन्म लेने पर, परमेश्वर भी अपने नवजात आत्मिक शिशु की परवरिश के लिए सभी उचित बातें, सुरक्षा, और आवश्यक सहायता उपलब्ध करवाता है। उद्धार के साथ जो बातें प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर की ओर से मसीही जीवन जीने के लिए उपलब्ध कर दी जाती हैं, वे हैं:

  • वह उद्धार पाते ही परमेश्वर के परिवार का सदस्य (इफिसियों 2:19), परमेश्वर की संतान बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13)
  • वह परमेश्वर पिता और परमेश्वर पुत्र - प्रभु यीशु के हाथों में सुरक्षित रहता है (यूहन्ना 10:28-29)
  • उसे सिखाने और संभालने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके मन में आकर बस जाता है (इफिसियों 1:13-14; गलातीयों 3:2), उसकी देह पवित्र आत्मा का मन्दिर बन जाती है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19) 
  • उसका पोषण परमेश्वर के वचन के द्वारा किया जाता है (1 पतरस 2:2)। यह वचन ही उसका मार्गदर्शक (भजन 119:105), उसे पाप करने से बचाए रखने वाला (भजन 119:9, 11), और उसे बुद्धिमान बनाता है (भजन 119:98-110, 104) 
  • उसे परमेश्वर की ओर से प्रतिज्ञा है कि उस पर कोई भी ऐसी परीक्षा नहीं आएगी, जो उसके सहने की क्षमता से बाहर है, वरन उस सीमा के अंदर भी उसे परीक्षा से बच कर सुरक्षित निकलने का मार्ग दिया जाएगा (1 कुरिन्थियों 10:13)। शैतान भी उसे परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक नहीं छू सकता है (अय्यूब 1:10-12) 
  • यदि उससे कोई पाप हो जाए, और वह अपने पाप को स्वीकार करके परमेश्वर से उसके लिए क्षमा माँग ले, तो परमेश्वर उसे क्षमा भी कर देगा (1 यूहन्ना 1:9) 
  • परमेश्वर ने अपने स्‍वर्गदूतों को उसकी सेवा करने वाले बना दिया है (इब्रानियों 1:14) 

       परमेश्वर की ओर से यह सारी सहायता और सुरक्षा पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने वाले प्रत्येक जन तुरंत ही, उसके नया जन्म पाने के साथ ही उपलब्ध हो जाती है। इसके बाद, उसके मसीही जीवन में प्रगति और उन्नति करने के लिए, परमेश्वर के लिए उपयोगी होने के लिए, मसीही जीवन को जी कर दिखाने के लिए, परमेश्वर अन्य अनेकों प्रकार से उसकी सहायता करता रहता है, उसे समय और परिस्थिति के अनुसार आवश्यक बल, बुद्धि, ज्ञान, और मार्गदर्शन आदि प्रदान करता रहता है। कोई भी वास्तविक मसीही विश्वासी, आजीवन कभी भी, परमेश्वर से दूर अकेला, या उसकी दृष्टि से ओझल, और उसकी देखभाल से बाहर नहीं रहता है। परमेश्वर की उपस्थिति सदा उसके साथ बनी रहती है, उसे संभाले रहती है। 

       क्या ऐसी अद्भुत परवरिश, सहायता, देखभाल और आशीषें मसीही विश्वास के अतिरिक्त और कहीं पर उपलब्ध हैं - और वो भी सेंत-मेंत? तो फिर क्यों इन अनुपम, अद्भुत, सर्वोत्तम आशीषों से दूर रहना? हमारा कृपालु और अनुग्रहकारी प्रभु परमेश्वर तो हर प्रकार से हमारी भलाई ही चाहता है, तो फिर उसके प्रस्ताव को स्वीकार करने में क्या एतराज है? यीशु मसीह को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करने में आपको किस बात का संकोच है? स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

बाइबल पाठ: व्यवस्थाविवरण 6:1-9 

व्यवस्थाविवरण 6:1 यह वह आज्ञा, और वे विधियां और नियम हैं जो तुम्हें सिखाने की तुम्हारे परमेश्वर यहोवा ने आज्ञा दी है, कि तुम उन्हें उस देश में मानो जिसके अधिकारी होने को पार जाने पर हो;

व्यवस्थाविवरण 6:2 और तू और तेरा बेटा और तेरा पोता यहोवा का भय मानते हुए उसकी उन सब विधियों और आज्ञाओं पर, जो मैं तुझे सुनाता हूं, अपने जीवन भर चलते रहें, जिस से तू बहुत दिन तक बना रहे।

व्यवस्थाविवरण 6:3 हे इस्राएल, सुन, और ऐसा ही करने की चौकसी कर; इसलिये कि तेरा भला हो, और तेरे पित्रों के परमेश्वर यहोवा के वचन के अनुसार उस देश में जहां दूध और मधु की धाराएं बहती हैं तुम बहुत हो जाओ।

व्यवस्थाविवरण 6:4 हे इस्राएल, सुन, यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है;

व्यवस्थाविवरण 6:5 तू अपने परमेश्वर यहोवा से अपने सारे मन, और सारे जीव, और सारी शक्ति के साथ प्रेम रखना।

व्यवस्थाविवरण 6:6 और ये आज्ञाएं जो मैं आज तुझ को सुनाता हूं वे तेरे मन में बनी रहें;

व्यवस्थाविवरण 6:7 और तू इन्हें अपने बाल-बच्चों को समझाकर सिखाया करना, और घर में बैठे, मार्ग पर चलते, लेटते, उठते, इनकी चर्चा किया करना।

व्यवस्थाविवरण 6:8 और इन्हें अपने हाथ पर चिन्हानी कर के बान्धना, और ये तेरी आंखों के बीच टीके का काम दें।

व्यवस्थाविवरण 6:9 और इन्हें अपने अपने घर के चौखट की बाजुओं और अपने फाटकों पर लिखना।

एक साल में बाइबल:

· श्रेष्ठगीत 4-5 

· गलातियों 3 

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 29

 

पाप का समाधान - उद्धार - 25 - उद्धार के परिणाम और नया जन्म 

पिछले लेख में हमने देखा कि किस प्रकार प्रभु यीशु मसीह ने समस्त मानवजाति के संपूर्ण पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके लिए आवश्यक बलिदान और प्रायश्चित का कार्य प्रभु ने पूरा कर दिया; और अपने मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा पाप के प्रभाव - आत्मिक और शारीरिक मृत्यु का भी पूर्ण समाधान कर के समस्त संसार भर के सभी मनुष्यों को पापों से मुक्ति, उद्धार और परमेश्वर से मेल-मिलाप कर लेने का मार्ग उपलब्ध करवा कर मुफ़्त में दे दिया। प्रभु यीशु द्वारा संपन्न किए गए इस कार्य को अपने जीवन में कार्यान्वित करने, और उसके लाभों को अर्जित करने के लिए अब किसी भी मनुष्य को न तो किसी धर्म के निर्वाह अथवा किसी धर्म विशेष को स्वीकार करने की, न किसी धार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने की, और न ही प्रभु द्वारा किए गए इस कार्य में किसी भी अन्य मनुष्य, वह चाहे कोई भी हो, द्वारा किसी भी प्रकार के कोई योगदान अथवा भागीदारी की आवश्यकता है। अब जो भी स्वेच्छा से और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान और उनके पुनरुत्थान को स्वीकार करता है, प्रभु यीशु मसीह के जगत का उद्धारकर्ता होने पर विश्वास लाता है, उन से अपने पापों से क्षमा माँगकर उनका शिष्य बनने के लिए अपने आप को उन्हें समर्पित करता है, वह अपने द्वारा किए गए इस निर्णय और प्रभु को समर्पण के पल से ही उनसे पापों की क्षमा और  उद्धार पा लेता है; उसका सांसारिक नश्वर जीवन से स्वर्गीय अविनाशी जीवन में नया जन्म हो जाता है। 

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह व्यक्ति कौन है, किस धर्म या जाति का है, धर्मी है अथवा अधर्मी है, पढ़ा-लिखा है या अनपढ़ है, धनी है अथवा निर्धन है, स्वस्थ है अथवा अस्वस्थ या अपंग है, किस रंग का है, समाज में उसका क्या स्तर या प्रतिष्ठा अथवा स्थान है, उसका पिछला जीवन कैसा था, आदि - उस व्यक्ति से संबंधित किसी भी सांसारिक बात का उसके प्रभु पर लाए गए विश्वास द्वारा उद्धार और पापों की क्षमा पाने से कोई लेना-देना नहीं है। महत्व और अनिवार्यता केवल इस की है कि उसने सच्चे मन से और स्वेच्छा से प्रभु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किया है कि नहीं, अपने आप को उसका शिष्य होने के लिए समर्पित किया है कि नहीं। इसीलिए, जैसा इस श्रृंखला के एक आरंभिक लेख में कहा गया था, मसीही विश्वास के अंतर्गत मिलने वाली पापों से क्षमा और उद्धार से अधिक सरल, सभी के लिए उपलब्ध, सभी के लिए कार्यकारी समाधान और निवारण और कहीं है ही नहीं। व्यक्ति जहाँ है, जैसा है, जिस भी स्थिति में है, अकेला है या किसी भीड़ में है, किसी धार्मिक स्थल अथवा धार्मिक अगुवे की वहाँ उसके साथ उपस्थिति है या नहीं - इन बातों और ऐसी किसी भी बात का कोई महत्व, कोई भूमिका नहीं है। शान्त, दृढ़ निश्चय, आज्ञाकारी और समर्पित मन से, मन ही में की गई एक सच्ची प्रार्थना, प्रभु यीशु से कहा गया एक वाक्य -हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर और मुझे अपना ले”, उस व्यक्ति द्वारा सच्चे मन से यह कहते ही, वह तुरंत ही अनन्तकाल के लिए प्रभु का जन बन जाता है, नया जन्म प्राप्त कर लेता है। यदि आपने अभी तक यह नहीं किया है, तो अभी आपके लिए प्रभु का आह्वान है, अवसर है कि अभी यह कर लें, और अपनी अनन्तकाल की नियति स्वर्गीय नियति में परिवर्तित कर लें।

यह पापों की क्षमा, उद्धार पा लेना अपने आप में अंत नहीं है, वरन एक नए जीवन का आरंभ है। उद्धार पाना पल भर का कार्य, किन्तु उद्धार पाए हुए जीवन को जीना सीखना, और व्यवहारिक जी के दिखाना जीवन भर का अभ्यास है, परिश्रम का कार्य है। व्यक्ति द्वारा पश्चाताप तथा पापों की क्षमा की प्रार्थना करते ही उसके लिए और उसके जीवन में परमेश्वर की ओर से कई स्वर्गीय बातें आरंभ हो जाती हैं, उससे जुड़ जाती हैं, जिन्हें हम आगे देखेंगे। अभी हमने देखा कि उद्धार पाने को नया जन्म पाना भी कहते हैं; अर्थात सांसारिक नश्वर जीवन से स्वर्गीय अविनाशी जीवन में नया जन्म हो जाना। शारीरिक और सांसारिक दृष्टि से उसकी आयु कितनी भी हो, किन्तु आत्मिक दृष्टि से वह अब एक नवजात शिशु है। जैसे बच्चा माता के गर्भ की संकुचित अवस्था से बाहर आकर खुल कर हाथ-पाँव मारने, सांस लेने और विकसित होने, बहुत से बातें सीखने और बढ़ने लगता है, उसी प्रकार यह नवजात आत्मिक शिशु भी अब स्वर्गीय आत्मिक जीवन में प्रवेश कर के एक नए वातावरण में विकसित होना आरंभ करता है - वह कितना, और कितनी शीघ्रता से विकसित होने पाता है, यह उसके अपने परिश्रम, प्रभु के प्रति समर्पण की दृढ़ता, प्रभु की आज्ञाकारिता पर निर्भर है। उस आत्मिक शिशु कादूधया भोजन परमेश्वर का वचन बाइबल है, जिसे उसे निर्मल मन के साथ बारंबार आत्मसात करते रहना है, तब ही वह ठीक से बढ़ने पाएगा,  “इसलिये सब प्रकार का बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी को दूर करके। नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक दूध की लालसा करो, ताकि उसके द्वारा उद्धार पाने के लिये बढ़ते जाओ” (1 पतरस 2:1-2)

जिस प्रकार एक नवजात शिशु में वो सारे अंग होते हैं जो एक वयस्क और कद्दावर व्यक्ति में होते हैं, किन्तु उस शिशु का शरीर अभी वैसा विकसित, शक्तिशाली, और विभिन्न कार्यों के लिए सक्षम नहीं होता है, जैसा उस वयस्क का हो गया है, उसी प्रकार से इस आत्मिक शिशु को भी आत्मिक रीति से विकसित, शक्तिशाली, और विभिन्न आत्मिक बातों एवं कार्यों के लिए सक्षम होने में समय, आत्मिक भोजन, आत्मिक जीवन के अभ्यास और परिश्रम की आवश्यकता होती है। उसके लिए यह कर पाने के लिए परमेश्वर ने कई प्रकार के प्रयोजन और संसाधन उपलब्ध करवाए हैं, जिन्हें हम आगे के लेखों में देखेंगे। परमेश्वर का उद्देश्य है कि सभी उद्धार पाए हुए लोग उसके पुत्र और हमारे उद्धारकर्ता प्रभु यीशु की समानता में अंश-अंश करके ढलते चले जाएं, “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्‍वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18)। क्योंकि यह परिवर्तन क्रमिक औरअंश-अंश करकेहोता है, इसलिए उद्धार पाए हुए व्यक्ति में तुरंत ही प्रभु यीशु के समान सिद्धता और पवित्रता दिखाई नहीं देती है; किन्तु वह उसकी ओर अग्रसर रहता है। जैसे शारीरिक रीति से सभी समय-समय पर बीमार होते हैं कमजोर पड़ते हैं, उनकी बीमारी का इलाज करके उन्हें फिर से स्वस्थ और सबल किया जाता है, वैसे ही आत्मिक जीवन में भी शैतान द्वारा लाई गई बातों में फंस जाने के द्वारा उद्धार पाया हुआ व्यक्ति भी आत्मिक रीति से बीमार हो सकता है, उसे फिर से आत्मिक बल पाने के लिए आत्मिक इलाज की आवश्यकता पड़ती है, और उसे फिर से आत्मिक रीति से शक्तिशाली और प्रभावी होने में कुछ समय लग सकता है। 

नया जन्म पाना आत्मिक जीवन में प्रवेश करना है; प्रभु यीशु के स्वर्गीय जीवन में रखा गया पहला कदम। इसके आगे जीवन भर का कार्य और अभ्यास है, साथ-साथ मिलती रहने वाली आत्मिक आशीष और अलौकिक आनन्द भी हैं, तथा भविष्य में परलोक में मिलने वाले, और उत्तमता में कल्पना से भी बाहर प्रतिफल भी हैंपरन्तु जैसा लिखा है, कि जो आंख ने नहीं देखी, और कान ने नहीं सुना, और जो बातें मनुष्य के चित्त में नहीं चढ़ीं वे ही हैं, जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिये तैयार की हैं” (1 कुरिन्थियों 2:9)। क्या आप ने प्रभु के बलिदान और पुनरुत्थान को स्वीकार करके, उसके पक्ष में अपना निर्णय ले लिया है? स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

बाइबल पाठ: भजन 32

भजन 32:1 क्या ही धन्य है वह जिसका अपराध क्षमा किया गया, और जिसका पाप ढाँपा गया हो।

भजन 32:2 क्या ही धन्य है वह मनुष्य जिसके अधर्म का यहोवा लेखा न ले, और जिसकी आत्मा में कपट न हो।

भजन 32:3 जब मैं चुप रहा तब दिन भर कराहते कराहते मेरी हड्डियां पिघल गई।

भजन संहिता 32:4 क्योंकि रात दिन मैं तेरे हाथ के नीचे दबा रहा; और मेरी तरावट धूप काल की सी झुर्राहट बनती गई।

भजन 32:5 जब मैं ने अपना पाप तुझ पर प्रगट किया और अपना अधर्म न छिपाया, और कहा, मैं यहोवा के सामने अपने अपराधों को मान लूंगा; तब तू ने मेरे अधर्म और पाप को क्षमा कर दिया।

भजन 32:6 इस कारण हर एक भक्त तुझ से ऐसे समय में प्रार्थना करे जब कि तू मिल सकता है। निश्चय जब जल की बड़ी बाढ़ आए तौभी उस भक्त के पास न पहुंचेगी।

भजन संहिता 32:7 तू मेरे छिपने का स्थान है; तू संकट से मेरी रक्षा करेगा; तू मुझे चारों ओर से छुटकारे के गीतों से घेर लेगा।

भजन 32:8 मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपा दृष्टि रखूंगा और सम्मत्ति दिया करूंगा।

भजन 32:9 तुम घोड़े और खच्चर के समान न बनो जो समझ नहीं रखते, उनकी उमंग लगाम और बाग से रोकनी पड़ती है, नहीं तो वे तेरे वश में नहीं आने के।

भजन 32:10 दुष्ट को तो बहुत पीड़ा होगी; परन्तु जो यहोवा पर भरोसा रखता है वह करुणा से घिरा रहेगा।

भजन 32:11 हे धर्मियों यहोवा के कारण आनन्दित और मगन हो, और हे सब सीधे मन वालों आनन्द से जयजयकार करो!

एक साल में बाइबल:

· श्रेष्ठगीत 1-3 

· गलातियों 2

बुधवार, 22 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 28

 

पाप का समाधान - उद्धार - 24 

       पिछले लेख में हमने देखा था कि मानवजाति के पाप के समाधान और निवारण के लिए एक सिद्ध मनुष्य में जो गुण उपलब्ध होने चाहिएं, वे सभी प्रभु यीशु मसीह में विद्यमान थे; और वे मनुष्य के पाप के प्रभावों से छुटकारा देने के लिए सर्वथा उपयुक्त व्यक्ति थे। आज हम देखेंगे कि प्रभु यीशु ने सारे संसार के सभी मनुष्यों के लिए यह उद्धार का कार्य कैसे संपन्न किया? प्रभु यीशु पूर्णतः मनुष्य होने के साथ, पूर्णतः परमेश्वर भी हैं। अपने पृथ्वी के समय पर वे ये दोनों बातें अपने जीवन, कार्यों, शिक्षाओं और आश्चर्यकर्मों के द्वारा - जिनमें मृतकों को फिर से जिला उठाना भी सम्मिलित है, दिखा चुके थे, प्रमाणित कर चुके थे; और उनके विरोधी भी स्वीकार करते थे कि वे अलौकिक हैं। यह एक सामान्य समझ की बात है कि परमेश्वर की पवित्रता किसी भी रीति से मलिन नहीं हो सकते है, उसमें अपवित्रता नहीं आ सकती है; और न ही उसकी सिद्धता किसी भी रीति से कम हो सकती है। यदि परमेश्वर की पवित्रता और सिद्धता में किसी भी प्रकार से कोई भी घटी आ सकती, तो फिर न तो वह पवित्रता और सिद्धता, और न ही उस पवित्रता और सिद्धता को रखने वाला परमेश्वर पूर्णतः पवित्र और सिद्ध एवं सर्वशक्तिमान माना जा सकता है। फिर तो वह जो परमेश्वर की सिद्धता और पवित्रता को घटा सकता है परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली होगा, और परमेश्वर फिर परमेश्वर नहीं रह जाएगा। तात्पर्य यह है कि पवित्र और सिद्ध परमेश्वर की पवित्रता और सिद्धता की तुलना में कितना भी जघन्य, कितना भी बड़ा, संख्या में कितने भी अधिक पाप क्यों न हों, वे उस पवित्रता और सिद्धता को कम नहीं कर सकते हैं। प्रभु यीशु ने यह बात अपने जीवन भर निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष रहकर दिखा दी, कि पापियों की संगति के कारण उनकी पवित्रता और सिद्धता पर कोई आंच नहीं आई, वह कभी किसी भी रीति से कम नहीं हुई; यहाँ तक कि शैतान द्वारा चालीस दिन तक परखे जाने पर भी नहीं!

अपनी पवित्रता और सिद्धता को भली-भांति दिखाने और प्रमाणित करने के बाद, अपने बलिदान देने के समय पर प्रभु यीशु मसीह ने सारे संसार के सभी लोगों - जो जीवन जी चुके थे, जो तब वर्तमान थे, और जो आने वाले थे, उन सभी के सारे पापों को अपने ऊपर ले लिया। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि समय का बंधन और सीमाएं, भूत-वर्तमान-भविष्य काल हम मनुष्यों और सृजे गए जगत के लिए हैं; परमेश्वर के लिए नहीं, इस संदर्भ में कुछ बाइबल के कुछ पद देखिए: “क्योंकि हजार वर्ष तेरी दृष्टि में ऐसे हैं, जैसा कल का दिन जो बीत गया, वा रात का एक पहर” (भजन 90:4);  “यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक सा है” (इब्रानियों 13:8); “हे प्रियों, यह एक बात तुम से छिपी न रहे, कि प्रभु के यहां एक दिन हजार वर्ष के बराबर है, और हजार वर्ष एक दिन के बराबर हैं” (2 पतरस 3:8)। परमेश्वर समय की सीमा से बंधा हुआ नहीं है, इसलिए उसके लिए सृष्टि के समस्त इतिहास के सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर ले लेना, समय द्वारा प्रभावित अथवा बाधित होने वाले बात नहीं है। प्रभु यीशु द्वारा सभी मनुष्यों को पापों को अपने ऊपर लेने को ऐसे समझिए - फर्श पर फैले हुए मैले पानी को जिस प्रकार से स्पंज या पोंछे का कपड़ा, अपनी क्षमता के अनुसार सोख लेता है, फर्श पर से अपने अंदर ले लेता है, और फिर वह मैला पानी फर्श पर नहीं रह जाता है वरन उस स्पंज या कपड़े में आ जाता है, और तब मैला फर्श नहीं वरन वह स्पंज या कपड़ा हो जाता है। उस स्पंज या कपड़े ने वह सारा मैला पानी कोमलता से अपने अंदर ले लिया और फर्श को स्वच्छ और सूखा बना दिया; किन्तु उस कपड़े या सपंज को अब उसमें विद्यमान उस मैले पानी के कारण निचोड़ा और फटका जाता है - फर्श को कोमलता से स्वच्छ करने वाले को अब उस गंदगी के लिए यातना सहनी पड़ती है। उसी प्रकार से प्रभु यीशु मसीह ने क्रूस पर समस्त मानवजाति के संपूर्ण पापों को अपने ऊपर ले लिया; उसके लिए लिखा है, “जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिये पाप ठहराया, कि हम उस में हो कर परमेश्वर की धामिर्कता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:21) - वह जिसमें पाप की परछाईं भी नहीं थी, वही हमारे लिए स्वयं पाप बन गया, उसने समस्त मानवजाति के सभी पापों को अपने अंदर सोख लिया और मनुष्यों को तो कोमलता से पाप से स्वच्छ कर दिया किन्तु स्वयं पाप से भर गया, मलिन हो गया, और उन पापों की यातना, पाप का दंड और ताड़ना स्वयं सह ली। सभी मनुष्यों के सभी पापों का बोझ, जैसा कि उसके लिए भविष्यवाणी की गई थीहम तो सब के सब भेड़ों के समान भटक गए थे; हम में से हर एक ने अपना अपना मार्ग लिया; और यहोवा ने हम सभों के अधर्म का बोझ उसी पर लाद दिया” (यशायाह 53:6); “वह अपने प्राणों का दु:ख उठा कर उसे देखेगा और तृप्त होगा; अपने ज्ञान के द्वारा मेरा धर्मी दास बहुतेरों को धर्मी ठहराएगा; और उनके अधर्म के कामों का बोझ आप उठा लेगा” (यशायाह 53:11); उसी पर लाद दिया गया, और उसने उस बोझ को वहन कर लिया।

परमेश्वर ने अदन की वाटिका में ही चेतावनी दी थी कि, पाप, अर्थात वर्जित फल खा लेने की अनाज्ञाकारिता का परिणाम मृत्यु होगा, “पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:17)। इसीलिए नए नियम में लिखा है, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)। हम देख चुके हैं कि यह मृत्यु दो स्वरूप में है - शारीरिक, अर्थात शरीर का मर जाना; और आत्मिक, अर्थात परमेश्वर से दूरी हो जाना। क्रूस पर प्रभु यीशु ने मृत्यु के इन दोनों ही स्वरूपों को सह लिया; सब कुछ पूरा हो जाने के बाद उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राण त्याग दिए, उनकी शारीरिक मृत्यु हो गईजब यीशु ने वह सिरका लिया, तो कहा पूरा हुआ और सिर झुका कर प्राण त्याग दिए” (यूहन्ना 19:30)। जब वे हम सभी के पापों को अपने ऊपर लिए हुए हमारे लिएपाप बन गए”, तो परमेश्वर पिता ने, जो पाप के साथ समझौता और संगति नहीं कर सकता है, उसने भी परमेश्वर पुत्र, अर्थात प्रभु यीशु से अपना मुँह मोड़ लिया, समस्त मानवजाति के लिए पाप बन जाने के कारण परमेश्वर पुत्र को परमेश्वर पिता से पृथक होने की अवर्णनीय और असहनीय वेदना में से होकर निकलना पड़ातीसरे पहर यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा, इलोई, इलोई, लमा शबक्तनी जिस का अर्थ यह है; हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” (मरकुस 15:34) - प्रभु यीशु ने हमारे लिए वह आत्मिक मृत्यु भी स्वीकार कर ली, और वहन कर ली। क्योंकि वह हम सब के लिए मर गया, इसलिए उसकी अपेक्षा है कि उस पर और उसके इस बलिदान पर विश्वास के कारण हम उसे अपने जीवनों में प्राथमिक स्थान दें, उसके लिए जीएं और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15) 

संपूर्ण मानवजाति के पापों के समाधान और निवारण के लिए आवश्यक बलिदान और प्रायश्चित का कार्य तो इस प्रकार प्रभु ने पूरा कर दिया। अब पाप के कारण आई मृत्यु को मिटा देना और शारीरिक और आत्मिक मृत्यु से मनुष्यों को स्वतंत्र कर देना शेष था। प्रभु यीशु में विश्वास लाने, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने के द्वारा हमारा मेल-मिलाप परमेश्वर पिता से हो जाता हैक्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:10 ); हम परमेश्वर की संतान बन जाते हैंपरन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13); प्रभु यीशु मसीह के साथ स्वर्गीय बातों के वारिस बन जाते हैंऔर यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” (रोमियों 8:17 ); अर्थात हमारी आत्मिक मृत्यु की दशा, परमेश्वर से दूरी का निवारण हो जाता है। 


इसी प्रकार से प्रभु यीशु हमें शारीरिक मृत्यु की दशा से भी निकालता है। जब प्रभु यीशु की देह पर समस्त मानवजाति के पापों का दोष लाद दिया गया, तो उसे भी शारीरिक मृत्यु से होकर निकलना पड़ा। किन्तु पुनरुत्थान के बाद जिस प्रकार प्रभु यीशु की देह एक अलौकिक देह हो गई थी; उसका प्रत्यक्ष स्वरूप, पहले के समान ही रहा। वह उसी चेहरे, कद, और काठी में था, उसकी आवाज़ वैसी ही थी जैसे पहले थी, शिष्यों द्वारा वैसे ही पहचाना गया जैसे वह मरने से पहले था, उसके हाथों और पैरों में तथा पंजर में क्रूस पर चढ़ाए जाने के घाव के निशान भी विद्यमान थे (यूहन्ना 24:27), उसने उन से लेकर भोजन भी खाया (लूका 24:41-43)। किन्तु साथ ही प्रभु की पुनरुत्थान हुई देह में कुछ विलक्षण भी था, वह बंद दरवाजों के बावजूद उनके पास कमरे के अंदर आ गया (यूहन्ना 24:26), और वह उसी देह में उनके देखते-देखते स्वर्ग पर उठा लिया गया (लूका 24:50-51)। जिस देह में पाप का प्रभाव है, उसे एक बार मरना ही होगा; हम पहले भी देख चुके हैं कि प्रत्येक मनुष्य पाप के दोष और प्रवृत्ति के साथ जन्म लेता है। इसलिए प्रत्येक मानव देह को एक बार शारीरिक मृत्यु से होकर निकलना पड़ता है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए भी यह अनिवार्य है। किन्तु मसीही विश्वासियों के लिए यह आश्वासन है कि प्रभु यीशु के दूसरे आगमन पर उसके लोग सदेह, अपने पृथ्वी के समय के समान दिखने वाले स्वरूप में जिलाए जाएंगे, “क्योंकि जब मनुष्य के द्वारा मृत्यु आई; तो मनुष्य ही के द्वारा मरे हुओं का पुनरुत्थान भी आया। और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसे ही मसीह में सब जिलाए जाएंगे। परन्तु हर एक अपनी अपनी बारी से; पहिला फल मसीह; फिर मसीह के आने पर उसके लोग” (1 कुरिन्थियों 15:21-23) उसी प्रकार हमारे देह भी मरनहार से अविनाशी, स्वर्गीय हो जाएगी, और मृत्यु पूर्णतः पराजित हो जाएगी, मिट जाएगीक्योंकि अवश्य है, कि यह नाशमान देह अविनाश को पहिन ले, और यह मरनहार देह अमरता को पहिन ले। और जब यह नाशमान अविनाश को पहिन लेगा, और यह मरनहार अमरता को पहिन लेगा, तब वह वचन जो लिखा है, पूरा हो जाएगा, कि जय ने मृत्यु को निगल लिया” (1 कुरिन्थियों 15:53-54) 


      इस प्रकार प्रभु यीशु के हमारे स्थान पर कलवरी के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन जी उठने के द्वारा हमारे लिए पापों की क्षमा, उद्धार, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप हो जाने, और मनुष्य के अदन की वाटिका की स्थिति में बहाल हो जाने का मार्ग बन कर तैयार है, सभी के लिए सेंत-मेंत उपलब्ध है। अब आपके लिए यह प्रश्न है, विचार करने वाली बात है कि जब प्रभु यीशु ने आपको पापों के प्रभाव से छुटकारा देने के लिए जो कुछ भी आवश्यक था, वह सब कर के, मुफ़्त में उपलब्ध करवा दिया है, और उसे आपसे आपका भौतिक एवं सांसारिक कुछ भी नहीं चाहिए; उसे केवल आपका मन चाहिए, और वह भी इसलिए कि वह उसे शुद्ध और पवित्र बना सके, तो फिर यीशु मसीह को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करने में आपको किस बात का संकोच है? आप यह कदम क्यों नहीं उठाना चाहते हैं? स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 बाइबल पाठ: रोमियों 10 :14-18 

 रोमियों 10:14 फिर जिस पर उन्होंने विश्वास नहीं किया, वे उसका नाम क्योंकर लें? और जिस की नहीं सुनी उस पर क्योंकर विश्वास करें?

रोमियों 10:15 और प्रचारक बिना क्योंकर सुनें? और यदि भेजे न जाएं, तो क्योंकर प्रचार करें? जैसा लिखा है, कि उन के पांव क्या ही सुहावने हैं, जो अच्छी बातों का सुसमाचार सुनाते हैं।

रोमियों 10:16 परन्तु सब ने उस सुसमाचार पर कान न लगाया: यशायाह कहता है, कि हे प्रभु, किस ने हमारे समाचार की प्रतीति की है?

रोमियों 10:17 सो विश्वास सुनने से, और सुनना मसीह के वचन से होता है।

रोमियों 10:18 परन्तु मैं कहता हूं, क्या उन्होंने नहीं सुना? सुना तो सही क्योंकि लिखा है कि उन के स्वर सारी पृथ्वी पर, और उन के वचन जगत की छोर तक पहुंच गए हैं।

एक साल में बाइबल:

·      सभोपदेशक 10-12

·      गलातियों 1

मंगलवार, 21 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 27


पाप का समाधान - उद्धार - 23

       पिछले लेखों में एकत्रित किए गए, सीखे तथा समझे गए, पाप और उद्धार, और प्रभु यीशु मसीह के जन्म, जीवन, कार्य, मृत्यु, और पुनरुत्थान से संबंधित तथ्यों के आधार पर आज से हम देखेंगे कि प्रभु यीशु मसीह ने संसार के सभी लोगों के लिए यह पापों की क्षमा, उद्धार, और परमेश्वर से मेल-मिलाप करवाकर, अदन की वाटिका में मनुष्य के पाप द्वारा खोई हुई स्थिति को किस प्रकार सभी मनुष्यों के लिए बहाल किया, और उनके लिए इस आशीष को प्राप्त कर लेने का मार्ग कैसे बना कर दिया, और इस महान कार्य से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों पर भी विचार करेंगे

       इस बात को समझने के लिए हमें पहले देखी गई बातों को ध्यान में रखना होगा, उन्हें स्मरण करते रहना होगा। पहले हम उन छः अनिवार्यताओं को देखते हैं, जो मनुष्यों के पापों का समाधान और निवारण करके देने वाले उस सिद्ध मनुष्य में होनी अनिवार्य थीं:

      

अनिवार्यता 

प्रभु यीशु मसीह में पूर्ति

वह एक मनुष्य हो।  

   प्रभु यीशु, माता के गर्भ में आने से लेकर उनकी मृत्यु होने तक, हर रीति से पूर्णतः मनुष्य थे; सामान्य साधारण मनुष्यों के सभी अनुभवों में से होकर निकले थे; और वे पूर्णतः परमेश्वर भी थे। 

वह अपने जीवन भर मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, और पवित्र रहा हो। 

  प्रभु यीशु ने निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, पवित्र, और सिद्ध जीवन व्यतीत किया। आज तक कभी भी, कोई भी उनके जीवन में किसी भी प्रकार के पाप को न दिखा सका है और न प्रमाणित कर सका है। 

वह अपना जीवन और सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और आज्ञाकारिता में होकर, उसे समर्पित रहकर करे। 

  प्रभु यीशु मसीह ने अपने जन्म से लेकर मृत्यु, पुनरुत्थान, और स्वर्गारोहण तक, पृथ्वी के अपने समय में अपनी हर बात को परमेश्वर की इच्छा के अनुसार, और परमेश्वर के वचन में उनके बारे में दी गई भविष्यवाणियों के अनुसार ही किया। उन्होंने अपने आप को शून्य किया, परमेश्वर पिता की पूर्ण आज्ञाकारिता में, बिना कोई आनाकानी अथवा संदेह किए बने रहे, और इस आज्ञाकारिता में पापी मनुष्यों के लिए क्रूस की मृत्यु भी सह ली। 

वह स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने और उनके दण्ड - मृत्यु को सहने के लिए तैयार हो।  

  क्योंकि प्रभु यीशु निष्पाप और सिद्ध थे, इसलिए मृत्यु का उन पर कोई अधिकार नहीं था। उन्हें किसी भी अन्य स्वाभाविक मनुष्य के समान मृत्यु भोगने की आवश्यकता नहीं थी; और न ही उनमें कोई दोष अथवा अपराध था, जिसके लिए उन्हें कोई दण्ड सहना हो। 

   किन्तु उन्होंने क्रूस की अत्यंत पीड़ादायक और भयानक मृत्यु स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के लिए सहन कर ली। 

वह मृत्यु से वापस लौटने की सामर्थ्य रखता हो; मृत्यु उस पर जयवंत नहीं होने पाए। 

  सारे संसार के इतिहास में केवल एक प्रभु यीशु मसीह ही हैं जो मर कर भी अपनी उसी देह में वापस आए। उनका जीवन, उनकी मृत्यु, और उनका मृतकों में से पुनरुत्थान संसार के इतिहास में भली-भांति जाँचा, परखा, और प्रमाणित तथ्य है, जिसे पिछले 2000 वर्षों से लेकर आज तक कोई भी गलत अथवा झूठ प्रमाणित नहीं कर सका है। 

   जिन्होंने उसे गलत प्रमाणित करने के प्रयास किए, वे नहीं करने पाए और उनमें से बहुतेरे अंततः उपलब्ध प्रमाणों के समक्ष प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी बन गए, उन्हें अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया। 

वह अपने इस महान बलिदान के प्रतिफलों को सभी मनुष्यों को सेंत-मेंत देने के लिए तैयार हो। 

  प्रभु यीशु ने सदा सब का भला ही किया, अपने बैरियों, विरोधियों, और सताने वालों का भी भला चाहा, उन्हें क्षमा किया, और उनके हित की चाह रखी। 

   उन्होंने अपने जीवन, शिक्षाओं, मृत्यु, और पुनरुत्थान से मिलने वाले लाभ कभी भी अपने पास नहीं रखे; और न ही उनके लिए कभी कोई कीमत लगाई। 

   उन्होंने पाप और मृत्यु पर प्राप्त अपनी विजय को सेंत-मेंत सारे संसार के लिए उपलब्ध करवा दिया, और यह आज भी सारे संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध है। 

 

       यदि आप अभी भी प्रभु यीशु मसीह में, उनके जीवन, शिक्षाओं, बलिदान, और पुनरुत्थान में; और उनके आपकी वास्तविक पापमय स्थिति को भली-भांति जानने के बावजूद भी आपके लिए उनके प्रेम में विश्वास नहीं करते हैं, तो आप स्वयं भी प्रभु यीशु के जीवन, मृत्यु, और पुनरुत्थान से संबंधित प्रमाणों की जाँच कर सकते हैं, अपने आप को संतुष्ट कर सकते हैं। प्रभु यीशु आपको इस सांसारिक नाशमान जीवन से अविनाशी जीवन में लाना चाहता है; पाप के परिणाम से निकालकर परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप करवाकर अब से लेकर अनन्तकाल के लिए आपको स्वर्गीय आशीषों का वारिस बनाना चाहता है। शैतान की किसी बात में न आएं, उसके द्वारा फैलाई जा रही किसी गलतफहमी में न पड़ें, अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

बाइबल पाठ: रोमियों 6:5-14 

रोमियों 6:5 क्योंकि यदि हम उस की मृत्यु की समानता में उसके साथ जुट गए हैं, तो निश्चय उसके जी उठने की समानता में भी जुट जाएंगे।

रोमियों 6:6 क्योंकि हम जानते हैं कि हमारा पुराना मनुष्यत्व उसके साथ क्रूस पर चढ़ाया गया, ताकि पाप का शरीर व्यर्थ हो जाए, ताकि हम आगे को पाप के दासत्व में न रहें।

रोमियों 6:7 क्योंकि जो मर गया, वह पाप से छूटकर धर्मी ठहरा।

रोमियों 6:8 सो यदि हम मसीह के साथ मर गए, तो हमारा विश्वास यह है, कि उसके साथ जीएंगे भी।

रोमियों 6:9 क्योंकि यह जानते हैं, कि मसीह मरे हुओं में से जी उठ कर फिर मरने का नहीं, उस पर फिर मृत्यु की प्रभुता नहीं होने की।

रोमियों 6:10 क्योंकि वह जो मर गया तो पाप के लिये एक ही बार मर गया; परन्तु जो जीवित है, तो परमेश्वर के लिये जीवित है।

रोमियों 6:11 ऐसे ही तुम भी अपने आप को पाप के लिये तो मरा, परन्तु परमेश्वर के लिये मसीह यीशु में जीवित समझो।

रोमियों 6:12 इसलिये पाप तुम्हारे मरनहार शरीर में राज्य न करे, कि तुम उस की लालसाओं के आधीन रहो।

रोमियों 6:13 और न अपने अंगों को अधर्म के हथियार होने के लिये पाप को सौंपो, पर अपने आप को मरे हुओं में से जी उठा हुआ जानकर परमेश्वर को सौंपो, और अपने अंगों को धर्म के हथियार होने के लिये परमेश्वर को सौंपो।

रोमियों 6:14 और तुम पर पाप की प्रभुता न होगी, क्योंकि तुम व्यवस्था के आधीन नहीं वरन अनुग्रह के आधीन हो।

एक साल में बाइबल:

·      सभोपदेशक 7-9

·      2 कुरिन्थियों 13

सोमवार, 20 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 26

 

पाप का समाधान - उद्धार - 22

पिछले तीन सप्ताह से हम मनुष्य के पाप के समाधान और निवारण, और इस कार्य में प्रभु यीशु मसीह की भूमिका के विषय में देखते और सीखते हुए आ रहे हैं। आज से हम इस विषय का निष्कर्ष, प्रभु यीशु मसीह ने यह कार्य किस प्रकार किया को देखना आरंभ करेंगे। अभी तक जो हमने देखा है, आज उसका एक संक्षिप्त पुनः अवलोकन कर लेते हैं; कल प्रभु के द्वारा मनुष्यों के उद्धार के लिए किए गए कार्य को परमेश्वर के वचन बाइबल के पदों के साथ देखेंगे और समझेंगे। 

अभी तक के विवरण का सार इस प्रकार से है:

हमने परमेश्वर के वचन बाइबल की पहली पुस्तक के आरंभिक तीन अध्यायों में से देखा है कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में सृजा और अपनी ही श्वास से उसे जीवन प्रदान किया। उसके सृजे जाने के समय मनुष्य निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, और पवित्र था। उन प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा, के लिए परमेश्वर ने एक आशीष का स्थान - अदन की वाटिका को लगा कर दिया था, जहाँ पर परमेश्वर उनसे संगति रखता था, उनसे मिला करता था। परमेश्वर ने केवल एक को छोड़, अदन की वाटिका के अन्य सभी फलों को मनुष्य के खाने के लिए उपलब्ध करवाया था; और मनुष्य को चेतावनी दी थी कि जिस दिन उसने वह वर्जित फल खाया, उसी दिन उसकी मृत्यु हो जाएगी। किन्तु शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य ने परमेश्वर की बात पर, और उनके प्रति परमेश्वर की भली मनसा पर संदेह किया, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की, और उस वर्जित फल को कहा लिया। इसी अनाज्ञाकारिता के कारण पाप का संसार में प्रवेश हुआ, जिसका दुष्प्रभाव सारी सृष्टि में फैल गया और मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति आ गई, और फिर वंशागत रीति से एक से दूसरी पीढ़ी में चलती चली गई। परिणाम स्वरूप, स्वाभाविक रीति से गर्भ में आने और जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य में पाप का दोष और पाप करने की प्रवृत्ति उसके गर्भ में आने, जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक बनी रहती है। 

मृत्यु का अर्थ है एक अपरिवर्तनीय पृथक हो जाना, ऐसा जिसे कोई भी मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से पलट कर पहले की स्थिति को बहाल नहीं कर सकता है। मृत्यु दो प्रकार की है - आत्मिक और शारीरिक। आत्मिक मृत्यु अर्थात पाप के कारण परमेश्वर से अलग हो जाना, क्योंकि परमेश्वर पाप के साथ समझौता और संगति नहीं कर सकता है - जिस दिन मनुष्य ने पाप किया, उसी दिन वह परमेश्वर की संगति से पृथक हो गया। शारीरिक मृत्यु, अर्थात शरीर का क्षय होते चले जाना, और अंततः वापस मिट्टी में मिल जाना - यह प्रक्रिया भी पाप करते ही मनुष्य में आरंभ हो गई, और अंततः सभी मनुष्य देर-सवेर मर जाते हैं; मनुष्य के जन्म लेते ही उसकी शारीरिक मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है; तथा वह जन्म से ही पाप के प्रभाव के अंतर्गत होने के कारण परमेश्वर से पृथक, अर्थात आत्मिक मृत्यु की दशा में होता है।

मनुष्य के पाप ने परमेश्वर को एक असंभव प्रतीत होने वाली विडंबना में डाल दिया। मनुष्य के प्रति उसका प्रेम, उसे मनुष्य को नाश होते हुए नहीं देखने देता; और परमेश्वर का निष्पक्ष न्यायी और धर्मी होना, उसे पाप को दण्ड दिए बिना नहीं छोड़ने देता। परमेश्वर कभी झूठ नहीं बोलता, उसकी कही बात सदा पूरी होती है, इसलिए पाप का दण्ड मृत्यु को भी पापी पर लागू किया जाना अनिवार्य था। अब इस विडंबना, इस असंभव प्रतीत होने वाली स्थिति का समाधान और निवारण क्या हो सकता था। जो मनुष्य के लिए असंभव था, परमेश्वर ने ही उसके लिए मार्ग बनाया। एक ऐसा मनुष्य जो निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, पवित्र, परमेश्वर तथा उसके प्रति परमेश्वर की योजनाओं पर कभी संदेह न करने वाला, परमेश्वर का पूर्ण आज्ञाकारी हो, उसे पाप का दण्ड, परमेश्वर से दूरी और मृत्यु - आत्मिक एवं शारीरिक सहने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह सिद्ध मनुष्य यदि स्वेच्छा से मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके स्थान पर स्वयं उन पापों का दण्ड अर्थात मृत्यु को सह ले, और मृत्यु को पराजित कर के वापस सदेह जीवित हो उठे, और फिर अपने इस बलिदान तथा पुनरुत्थान के लाभ को सेंत-मेंत सभी मनुष्यों को उपलब्ध करवा दे, तो इस समस्या का समाधान और निवारण हो जाएगा। परमेश्वर की बात भी पूरी हो जाएगी, उसके न्याय के माँग भी पूरी हो जाएगी, मृत्यु का प्रभाव भी जाता रहेगा, और फिर पापों के परिणाम से बचाया गया मनुष्य परमेश्वर की संगति में भी बहाल हो सकता है। 

किन्तु मनुष्य तो पाप के दोष और प्रवृत्ति में आ चुका था, स्वाभाविक रीति से जन्म लेने वाला हर मनुष्य पाप के दोष और प्रवृत्ति के साथ ही जन्म लेता। इसलिए वह तो कभी निष्पाप, निष्कलंक, और निर्दोष हो नहीं सकता था। इसलिए इस समाधान और निवारण को कार्यान्वित करने के लिए एक ऐसे मनुष्य की आवश्यकता थी जिसमें पाप का दोष और प्रवृत्ति भी न हो, और वह उपरोक्त सभी आवश्यकताओं को भी पूरा करता हो। इसलिए परमेश्वर स्वयं एक विशिष्ट रीति से मनुष्य बनकर, प्रभु यीशु मसीह के नाम से संसार में आ गया। परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से प्रभु यीशु ने संसार में एक विशेष रीति से तैयार की गई देह में होकर, जो इस कार्य के लिए समर्पित और आज्ञाकारी कुँवारी, मरियम की कोख में एक भ्रूण के समान रखी गई थी, प्रवेश किया। एक सामान्य मनुष्य के समान वह देह भ्रूण से लेकर मानव शिशु स्वरूप तक उस कोख में विकसित हुई, और उसने जन्म लेने के सारे अनुभव, अन्य किसी भी मनुष्य के समान सहे। फिर एक सामान्य, साधारण मनुष्य के समान दुख-सुख सभी कुछ अनुभव करते हुए प्रभु यीशु शिशु अवस्था से वयस्क हुए, किन्तु उन्होंने कभी भी मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में कोई पाप नहीं किया। लगभग तीस वर्ष की आयु में उन्होंने पृथ्वी की अपनी निर्धारित सेवकाई आरंभ की; लोगों को परमेश्वर के राज्य के आगमन के बारे में सिखाने और सचेत करने, तथा पापों से पश्चाताप करने का आह्वान किया, और सभी की भलाई करते रहे। 

लगभग साढ़े तीन वर्ष की सेवकाई के बाद, उन्हें तब के धर्म के अगुवों ने उनकी स्पष्टवादिता, खराई, और उन धर्म के अगुवों के दोगलेपन को प्रकट करते रहने के कारण उनके प्रति द्वेष और बैर के कारण पकड़ कर उस समय की सबसे क्रूर, पीड़ादायक और वीभत्स मृत्यु, जो समाज के सबसे निकृष्ट और जघन्य अपराध करने वालों को दी जाती थी - क्रूस की मृत्यु, उस समय के उनके शासक, रोमी गवर्नर, के हाथों दिलवाई। प्रभु यीशु मसीह क्रूस पर मारे गए, उन्हें कब्र में कफन में लपेट कर दफनाया गया, और कब्र के मुँह पर पत्थर लगा कर उसे मोहर-बंद कर दिया गया, किन्तु तीसरे दिन वे अपने कहे के अनुसार जीवित हो उठे, सार्वजनिक रीति से लोगों से मिलते रहे, दिखाई देते रहे, लोगों से बात करते रहे, उन्हें सिखाते-समझाते रहे, और फिर अपने शिष्यों की आँखों के सामने स्वर्ग पर उठा लिए गए। अपने स्वर्गारोहण से पहले उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि वे सारे संसार में जाकर उनके द्वारा समस्त संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध करवाए गए पापों की क्षमा और उद्धार के मार्ग के बारे में उन्हें बताऐं और उन्हें प्रभु यीशु के शिष्य बनाएं, प्रभु की बातें सिखाएं। जो स्वेच्छा से प्रभु के द्वारा किए गए कार्य को स्वीकार करेगा, अपने पापों से पश्चाताप करेगा, और अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करेगा, वह पापों की क्षमा अर्थात उद्धार या नया जन्म पाकर अनन्तकाल के लिए परमेश्वर की संतान, उसके राज्य का वारिस बन जाएगा, और परमेश्वर की संगति में बहाल हो जाएगा।

प्रभु यीशु ने न तो कभी कोई धर्म दिया, न किसी धर्म को बनाने की शिक्षा अथवा आज्ञा दी, न किसी धर्म-विशेष को मानने-मनवाने, और न ही किसी का भी धर्म परिवर्तन करने की कोई बात अपने शिष्यों से कही। उन्होंने तो सभी मनुष्यों के पाप की प्रवृत्ति और दोष से मन परिवर्तन करने और पाप से क्षमा प्राप्त करने, तथा उनकी शिष्यता एवं आज्ञाकारिता में पापी मनुष्यों को पवित्र जीवन जीने के लिए सक्षम करे जाने की शिक्षा लोगों को बताने, और इसे स्वीकार करने का निर्णय उन लोगों के हाथों में ही छोड़ देने की आज्ञा दी।

प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है। यदि अभी भी आपने प्रभु यीशु के बलिदान के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, तो  अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।   


बाइबल पाठ: 1 कुरिन्थियों 15:1-11 

1 कुरिन्थियों 15:1 हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो।

1 कुरिन्थियों 15:2 उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ।

1 कुरिन्थियों 15:3 इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया।

1 कुरिन्थियों 15:4 ओर गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा।

1 कुरिन्थियों 15:5 और कैफा को तब बारहों को दिखाई दिया।

1 कुरिन्थियों 15:6 फिर पांच सौ से अधिक भाइयों को एक साथ दिखाई दिया, जिन में से बहुतेरे अब तक वर्तमान हैं पर कितने सो गए।

1 कुरिन्थियों 15:7 फिर याकूब को दिखाई दिया तब सब प्रेरितों को दिखाई दिया।

1 कुरिन्थियों 15:8 और सब के बाद मुझ को भी दिखाई दिया, जो मानो अधूरे दिनों का जन्मा हूं।

1 कुरिन्थियों 15:9 क्योंकि मैं प्रेरितों में सब से छोटा हूं, वरन प्रेरित कहलाने के योग्य भी नहीं, क्योंकि मैं ने परमेश्वर की कलीसिया को सताया था।

1 कुरिन्थियों 15:10 परन्तु मैं जो कुछ भी हूं, परमेश्वर के अनुग्रह से हूं: और उसका अनुग्रह जो मुझ पर हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैं ने उन सब से बढ़कर परिश्रम भी किया: तौभी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से जो मुझ पर था।

1 कुरिन्थियों 15:11 सो चाहे मैं हूं, चाहे वे हों, हम यही प्रचार करते हैं, और इसी पर तुम ने विश्वास भी किया।

एक साल में बाइबल:

·      सभोपदेशक 4-6

·      2 कुरिन्थियों 12