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मसीही विश्वासी के जीवन में अलगाव
हम देखते आ रहे हैं कि पतरस द्वारा पिन्तेकुस्त के दिन संसार भर से धार्मिक पर्व मनाने और व्यवस्था की विधि को पूरा करने के लिए आए हुए “भक्त यहूदियों” के हृदय छिद गए, और उन्हें इस बात का बोध हुआ कि उनकी यह धर्म-कर्म-रस्म की धार्मिकता उन्हें उद्धार या नया जन्म देने और परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। तब उन्होंने पतरस और अन्य प्रेरितों से इसके समाधान के विषय प्रश्न पूछा, और पतरस ने उद्धार या नया जन्म प्राप्त करने के लिए उन्हें प्रभु यीशु की शिष्यता का मार्ग बताया, जिसमें सात व्यावहारिक बातें थीं। उनमें से पाँच बातों को तो, जिन्हें हम पहले देख चुके हैं, मसीही या ईसाई धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता रखने वालों ने एक औपचारिक रस्म बना दिया है, और उन औपचारिकताओं के निर्वाह के कारण वे अपने आप परमेश्वर को स्वीकार्य धर्मी समझते हैं। पतरस द्वारा उन भक्त यहूदियों को प्रेरितों 2:38 में दिए गए उत्तर का पहला कदम था अपने-अपने पापों से पश्चाताप करना और प्रभु का शिष्य हो जाने पर अपने पुराने जीवन की पापमय प्रवृत्तियों और व्यवहार से मन फिरा लेना, जिसे हम पिछले दो लेखों में दख चुके हैं।
दूसरा कदम था अपने इस पश्चाताप और प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी हो जाने के निर्णय को बपतिस्मे के द्वारा सार्वजनिक रीति से प्रकट करना; प्रभु का शिष्य बन जाने की गवाही को लोगों के सामने रखना। इसका वास्तविक स्वरूप भी धर्म के निर्वाह के लिए बिगाड़ दिया गया है, और साथ ही इसे एक औपचारिकता बना दिया गया है। और अब धर्म-कर्म का निर्वाह करने में रुचि रखने वालों को उनके धर्म के अगुवों द्वारा, बाइबल के शिक्षाओं के विपरीत, यही जताया जाता है कि बपतिस्मा हो जाने से परमेश्वर भी उस व्यक्ति को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गया है।
इसके बाद पद 40 में तीसरा कदम बताया गया है “उसने बहुत ओर बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ” (प्रेरितों 2:40)। मूल यूनानी भाषा के जिन शब्दों का हिन्दी अनुवाद “टेढ़ी जाति” किया गया है, उनका शब्दार्थ है “टेढ़ी/विकृत पीढ़ी”। इसे अंग्रेजी अनुवादों में “perverse generation” या “corrupt generation” लिखा गया है, जो “टेढ़ी/विकृत पीढ़ी” अनुवाद के अनुरूप है। कहने का अभिप्राय था, और है, कि जो व्यक्ति प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बनकर उनके पीछे चलते रहने का निर्णय ले, वह साथ ही यह निर्णय भी ले कि अब वह अपने समकालीन संसार के भ्रष्ट और प्रभु के प्रतिकूल व्यवहार और जीवन से अपने आप को पृथक कर लेगा; संसार और उसकी बातों के प्रति उसका जीवन एक अलगाव का जीवन रहेगा। अर्थात, वह अपने आप को संसार और संसार की बातों से दूषित नहीं होने देगा, वरन प्रभु यीशु मसीह की आज्ञाकारिता में उसी के लिए जीएगा “और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15)।
पाप और उद्धार से संबंधित बातों की चर्चा के समय हम देख चुके हैं कि पापों की क्षमा और उद्धार प्राप्त करने के साथ ही, तुरंत ही उद्धार या नया जन्म पाए हुए व्यक्ति की देह परमेश्वर पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाती है और पवित्र आत्मा उसी क्षण से, उसकी सहायता और मसीही विश्वास में उन्नति के लिए, उस नए जन्मे हुए जन में आकर निवास करने लगता है “और उसी में तुम पर भी जब तुम ने सत्य का वचन सुना, जो तुम्हारे उद्धार का सुसमाचार है, और जिस पर तुम ने विश्वास किया, प्रतिज्ञा किए हुए पवित्र आत्मा की छाप लगी” (इफिसियों 1:13)। परमेश्वर पवित्र आत्मा के इस मंदिर को स्वच्छ और पवित्र रखना उस उद्धार पाए हुए व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है “क्या तुम नहीं जानते, कि तुम परमेश्वर का मन्दिर हो, और परमेश्वर का आत्मा तुम में वास करता है? यदि कोई परमेश्वर के मन्दिर को नाश करेगा तो परमेश्वर उसे नाश करेगा; क्योंकि परमेश्वर का मन्दिर पवित्र है, और वह तुम हो” (1 कुरिन्थियों 3:16-17)। इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए पवित्र आत्मा स्वयं व्यक्ति की सहायता करता है कि वह शारीरिक और सांसारिक अभिलाषाओं से हटकर, एक पवित्र और परमेश्वर को महिमा देने वाला जीवन जीएं “पर मैं कहता हूं, आत्मा के अनुसार चलो, तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरी न करोगे। क्योंकि शरीर आत्मा के विरोध में, और आत्मा शरीर के विरोध में लालसा करती है, और ये एक दूसरे के विरोधी हैं; इसलिये कि जो तुम करना चाहते हो वह न करने पाओ” (गलातियों 5:16-17); “और जो मसीह यीशु के हैं, उन्होंने शरीर को उस की लालसाओं और अभिलाषाओं समेत क्रूस पर चढ़ा दिया है। यदि हम आत्मा के द्वारा जीवित हैं, तो आत्मा के अनुसार चलें भी” (गलातियों 5:24-25)।
पौलुस प्रेरित ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में रोम के मसीही विश्वासियों को लिखा “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2)। यहाँ तीन मुख्य बातें हमारे ध्यान देने के लिए हैं: (i) प्रत्येक मसीही विश्वासी की आत्मिक सेवा, उसके द्वारा अपने आप को परमेश्वर सम्मुख बलिदान करके चढ़ाना है। जो बलिदान में परमेश्वर को चढ़ा दिया गया, वह फिर और किसी सांसारिक काम में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। (ii) मसीही विश्वासी को संसार के सदृश्य नहीं बनना है; अर्थात सांसारिकता की बातों से और संसार के लोगों के अनुरूप व्यवहार से बच कर रहना है। उद्धार पा लेने के बाद हुए मन परिवर्तन का प्रमाण चाल-चलन में दिखने वाला परिवर्तन है। (iii) जो अपने आप को परमेश्वर को समर्पित कर के, अपने उस समर्पण एवं मन परिवर्तन को अपने बदले हुए चाल-चलन से संसार के समक्ष दिखाएंगे, वे फिर परमेश्वर की इच्छा को व्यक्तिगत अनुभवों से जानने वाले हो जाएंगे; अर्थात परमेश्वर की इच्छा उन पर प्रकट रहेगी।
तो क्या इस अलगाव, इस पृथक रहने का अर्थ है कि मसीही विश्वासी संसार के साथ कोई व्यवहार, कोई संपर्क नहीं रख सकता है? इस प्रश्न का उत्तर हम कल देखेंगे। किन्तु यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, तो फिर संसार के साथ और संसार के समान विनाश में भी जाना पड़ेगा, क्योंकि संसार का मित्र बनना परमेश्वर का बैर मोल लेना है “हे व्यभिचारिणियो, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4)। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- अय्यूब 22-24
- प्रेरितों 11
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Characteristics of a Christian Believer - Separation
We have been seeing that on the day Pentecost, Peter had preached to the devout Jews gathered in Jerusalem from all over the world to fulfill the religious feasts and requirements. On hearing the gospel preaching from Peter, these devout Jews were cut to the heart, they realized that their ‘righteousness’ based on following religion, doing religious works, fulfilling rituals was vain, and they had not become acceptable to God for salvation and reconciliation with Him. They then asked Peter and the other disciples what to do to rectify the situation, and were told about the way of salvation, of being Born-Again through faith in the Lord Jesus and becoming His followers, which had seven practical things in it. Of these seven we have already seen five, and these five have been turned by the followers of the Christian religion into rituals and formalities, and they think that by fulfilling these formalities or rituals they become acceptable to God, and are reconciled with Him. The first step that Peter told them to take, as given in Acts 2:38 was to repent of their sins, turn away from the sinful behavior and the worldly desires of the old life, and become the disciples of the Lord Jesus; and we have seen about this in the previous two articles.
The second step for them to take was to publicly witness their change of heart and mind and having become a follower of Lord Jesus Christ through baptism. The actual form and meaning of this too has been altered by the followers of the Christian religion, and they have made this into a ritual as well. Now, the followers of the Christian religion, religious works, and rituals, contrary to the teachings of the Bible, teach that their ‘baptism’ ensures that the people have become saved and God will accept them in heaven - a totally false notion.
Then, in verse 40, Peter states the third step, “And with many other words he testified and exhorted them, saying, "Be saved from this perverse generation."” (Acts 2:40). In the original Greek language, the words that have been translated as “perverse generation” also mean a “corrupt generation.” The message conveyed then, and today is that the person who decides to become a sincere and obedient follower of the Lord Jesus Christ, he should simultaneously also decide to separate himself from the corrupt behavior and practices of the world, things contrary to the life and teachings of the Lord Jesus; i.e., live a life of separation from the world and its ways. He should follow 2 Corinthians 5:15 “and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again,” live a life of obedience to the Word of the Lord, and keep himself unpolluted by the world.
In the earlier discussion about sin and salvation we have seen that the moment a person receives the forgiveness of sins and salvation, his body becomes the temple of the Holy Spirit from that very moment, and He resides in the saved person to help and to teach that person, to guide in his spiritual growth, “In Him you also trusted, after you heard the word of truth, the gospel of your salvation; in whom also, having believed, you were sealed with the Holy Spirit of promise” (Ephesians 1:13). It is the responsibility of the Christian Believer to keep his body, the temple of the Holy Spirit, clean and holy “Do you not know that you are the temple of God and that the Spirit of God dwells in you? If anyone defiles the temple of God, God will destroy him. For the temple of God is holy, which temple you are” (1 Corinthians 3:16-17). The Holy Spirit helps the person to fulfill this responsibility, so that the person turns from the worldly and physical desires, and lives a life of holiness glorifying God, “I say then: Walk in the Spirit, and you shall not fulfill the lust of the flesh. For the flesh lusts against the Spirit, and the Spirit against the flesh; and these are contrary to one another, so that you do not do the things that you wish” (Galatians 5:16-17); “And those who are Christ's have crucified the flesh with its passions and desires. If we live in the Spirit, let us also walk in the Spirit” (Galatians 5:24-25).
The apostle Paul, under the guidance of the Holy Spirit, wrote to the Christian Believers in Rome, “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God, that you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God, which is your reasonable service. And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:1-2). There are three main things to pay heed to, in these verses: (i) The spiritual service of every Christian Believer is to offer themselves as a sacrifice to God. The sacrifice once offered to God could never again be used for any worldly purposes. (ii) The Christian Believer has to ensure that he does not conform to the world; i.e., he has to stay away from all things and behavior that is according to worldliness and of the people of the world. The change of heart and mind after salvation should be evident in day-to-day behavior and living. (iii) Those who surrender, or offer themselves to God, and demonstrate their surrender and change of heart through a changed life and behavior, they will then become people who will get to know God’s will through their experiences; i.e., God will reveal His will to them.
So, does this being separate then means that the Christian Believer has to have no contact, no interaction with the world? We will look into the answer to this question in the next article. But for now, if you are still living as a person of the world, indulging in habits and behavior of worldliness, then beware, for those who live will the world will also perish as the people of the world, since becoming a friend of the world is becoming an enemy of God, “Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God” (James 4:4). Today and now, you have the opportunity to rectify your eternal destiny and situation. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Job 22-24
Acts 11
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