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शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 13


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मसीही जीवन में पश्चाताप का महत्व

पिछले लेख में हमने देखा था कि पतरस द्वारा पिन्तेकुस्त के दिन संसार भर से धार्मिक पर्व मनाने और व्यवस्था की विधि को पूरा करने के लिए आए हुए “भक्त यहूदियों के हृदय छिद गए, और उन्हें इस बात का बोध हुआ कि उनकी यह धर्म-कर्म-रस्म की धार्मिकता उन्हें उद्धार या नया जन्म देने और परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। तब उन्होंने पतरस और अन्य प्रेरितों से इसके समाधान के विषय प्रश्न पूछा, और पतरस ने उद्धार या नया जन्म प्राप्त करने के लिए उन्हें जो प्रभु यीशु के शिष्यता का मार्ग बताया, उसका पहला कदम था अपने-अपने पापों से पश्चाताप करना और प्रभु का शिष्य हो जाने पर अपने पुराने जीवन की पापमय प्रवृत्तियों और व्यवहार से मन फिरा लेना। मन फिराव की इस बात के महत्व को हम और अधिक स्पष्टता से परमेश्वर के वचन में से इससे संबंधित पदों के उदाहरणों से समझ सकते हैं, जो मुख्यतः बाइबल के नए नियम में खण्ड में दिए गए हैं। बाइबल में दिए गए निम्न-लिखित कुछ उदाहरणों से हम देखते हैं कि उद्धार पाने और प्रभु यीशु का शिष्य या अनुयायी होने के लिए पापों से पश्चाताप और मन फिराव करने का विषय:

  • यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के प्रचार का आरंभ था “उन दिनों में यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला आकर यहूदिया के जंगल में यह प्रचार करने लगा कि मन फिराओ; क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है” (मत्ती 3:1-2)। 

  • प्रभु यीशु मसीह द्वारा पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के आरंभ का प्रचार था “यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। 

  • प्रभु यीशु मसीह द्वारा अपने शिष्यों को पहले प्रचार पर भेजे जाने के समय उनके प्रचार का विषय था “और उन्होंने जा कर प्रचार किया, कि मन फिराओ”(मरकुस 6:12).

  • प्रभु यीशु द्वारा स्वर्गारोहण से ठीक पहले शिष्यों को संसार भर में प्रचार करने के लिए दिया गया विषय “और यरूशलेम से ले कर सब जातियों में मन फिराव का और पापों की क्षमा का प्रचार, उसी के नाम से किया जाएगा” (लूका 24:47)। 

  • पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद शिष्यों द्वारा संसार भर से यरूशलेम आए भक्त यहूदियों के समक्ष किए गए पहले सुसमाचार प्रचार का विषय “पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे” (प्रेरितों 2:38)।

  • पतरस द्वारा यरूशलेम के इस्राएलियों के सामने किए गए प्रचार का विषय “इसलिये, मन फिराओ और लौट आओ कि तुम्हारे पाप मिटाए जाएं, जिस से प्रभु के सम्मुख से विश्रान्ति के दिन आएं” (प्रेरितों 3:19)। 

  • परमेश्वर द्वारा सारे संसार के सभी लोगों के लिए दी गई आज्ञा का विषय “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)। 

  • पौलुस द्वारा यहूदियों और अन्य जातियों में किए जाने वाले प्रचार एवं सेवकाई का विषय “वरन यहूदियों और यूनानियों के सामने गवाही देता रहा, कि परमेश्वर की ओर मन फिराना, और हमारे प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करना चाहिए” (प्रेरितों 20:21); “परन्तु पहिले दमिश्क के, फिर यरूशलेम के रहने वालों को, तब यहूदिया के सारे देश में और अन्यजातियों को समझाता रहा, कि मन फिराओ और परमेश्वर की ओर फिर कर मन फिराव के योग्य काम करो” (प्रेरितों 26:20)।

  • प्रकाशितवाक्य पुस्तक के 2 और 3 अध्याय में संबोधित कलीसियाओं को दिए गए चेतावनी के संदेशों का विषय (प्रकाशितवाक्य 2:5, 16, 21, 22; 3:3, 19)। 

  • प्रकाशितवाक्य पुस्तक में परमेश्वर के प्रकोप और दंड को सहने का कारण - पश्चाताप न करना (प्रकाशितवाक्य 9:20, 21; 16:9, 11)।

  • पुराने नियम के भविष्यद्वक्ताओं एवं परमेश्वर के सेवकों के प्रचार का विषय भी पश्चाताप या मन फिराव ही था, “और यद्यपि यहोवा तुम्हारे पास अपने सारे दासों अथवा भविष्यद्वक्ताओं को भी यह कहने के लिये बड़े यत्न से भेजता आया है कि अपनी अपनी बुरी चाल और अपने अपने बुरे कामों से फिरो: तब जो देश यहोवा ने प्राचीनकाल में तुम्हारे पित्रों को और तुम को भी सदा के लिये दिया है उस पर बसे रहने पाओगे; परन्तु तुम ने न तो सुना और न कान लगाया है” (यिर्मयाह 25:4-5)। 

  प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी होने का अर्थ है पुरानी बातों, विचारधाराओं, धारणाओं, व्यवहार आदि को छोड़कर, प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में एक पूर्णतः बदला हुआ नया जीवन जीना “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्‍टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17); ऐसा जीवन जो किसी धर्म-कर्म-रस्म पर आधारित नहीं है, वरन परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता पर आधारित है, जैसा कि प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से, उन्हें उलाहना देते हुए, स्वयं कहा “जब तुम मेरा कहना नहीं मानते, तो क्यों मुझे हे प्रभु, हे प्रभु, कहते हो?” (लूका 6:46)। प्रभु की शिष्यता और आज्ञाकारिता के इस जीवन में उठाया गया पहल कदम स्वेच्छा एवं सच्चे मन से पश्चाताप करना है, पुराने सांसारिक जीवन से नए आत्मिक जीवन की ओर मुड़ जाना है। बिना सच्चे पश्चाताप के प्रभु का शिष्य न तो बना जा सकता है, और न उस शिष्यता को निभाया जा सकता है। मसीही विश्वासी या प्रभु यीशु के अनुयायी होने के लिए किसी धर्म परिवर्तन की नहीं, वरन पापमय प्रवृत्तियों से मन परिवर्तन की, और परिवर्तित जीवन का निर्वाह करने की आवश्यकता है। इसलिए यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने एक परिवार विशेष में जन्म अथवा उस परिवार और अपने जन्म से संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर परमेश्वर के वचन बाइबल की सच्चाई (प्रेरितों 17:30) को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। 


आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • अय्यूब 20-21 

  • प्रेरितों 10:24-48

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English Translation

 The Importance of Repentance in Christian Life

In the previous article we have seen that through Peter’s preaching of the gospel on the day of Pentecost, the hearts of the devout Jews who had come from places all over the world to celebrate the feasts and fulfill the requirements of the Law, were pricked and they realized that their righteousness through observance of religion-works-rituals is unable to give them salvation and make them acceptable to God.  Not knowing what else to do to be made acceptable to God, they asked Peter and the disciples for the solution. Then they were told about the way to be saved i.e., to be Born-Again and become a disciple of the Lord Jesus; and the first step on that way was to individually repent for their sins, and then turn way or leave behind the sinful ways and behavior of their previous life. The necessity and importance of this turning away of their hearts, this repentance can be seen and understood from the related Bible verses, mainly found in the New Testament:

  • Repentance was the theme of John the Baptist’s preaching, “In those days John the Baptist came preaching in the wilderness of Judea, and saying, "Repent, for the kingdom of heaven is at hand!” (Matthew 3:1-2).

  • Repentance was the theme of the Lord Jesus’s preaching since the onset of His earthly ministry, “Now after John was put in prison, Jesus came to Galilee, preaching the gospel of the kingdom of God, and saying, "The time is fulfilled, and the kingdom of God is at hand. Repent, and believe in the gospel."” (Mark 1:14-15).

  • Repentance was the theme of the first preaching ministry of the disciples of the Lord Jesus, “So they went out and preached that people should repent” (Mark 6:12).

  • Repentance was the theme given by the Lord Jesus to His disciples, at the time of His ascension to heaven, to be preached all over the world, “and that repentance and remission of sins should be preached in His name to all nations, beginning at Jerusalem” (Luke 24:47).

  • Repentance was the call by the disciples of the Lord to the devout Jews assembled from all over the world to celebrate the feasts and fulfill the requirements of the Law, “Then Peter said to them, "Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit” (Acts 2:38).

  • Repentance was preached by Peter to the Jews of Jerusalem, “Repent therefore and be converted, that your sins may be blotted out, so that times of refreshing may come from the presence of the Lord” (Acts 3:19).

  • Repentance is the call of God to all the people all over the world, “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent” (Acts 17:30).

  • Repentance was the theme of Paul’s ministry and preaching amongst the Jews and the Gentiles, “testifying to Jews, and also to Greeks, repentance toward God and faith toward our Lord Jesus Christ” (Acts 20:21); “but declared first to those in Damascus and in Jerusalem, and throughout all the region of Judea, and then to the Gentiles, that they should repent, turn to God, and do works befitting repentance” (Acts 26:20).

  • Repentance is the call to the Churches addressed in Revelation chapters 2 and 3 - (Revelation 2:5, 16, 21, 22; 3:3, 19).

  • Not repenting is the cause of having to suffer God’s wrath and judgment in the book of Revelation - (Revelation 9:20, 21; 16:9, 11).

  • The theme of the preaching of the prophets of the Old Testament was repentance and turning away from sin, “And the Lord has sent to you all His servants the prophets, rising early and sending them, but you have not listened nor inclined your ear to hear. They said, 'Repent now everyone of his evil way and his evil doings, and dwell in the land that the Lord has given to you and your fathers forever and ever” (Jeremiah 25:4-5).


To be a follower, a disciple of the Lord Jesus means to turn away from the previous worldly things, point-of-view, notions, behavior etc., turn a new leaf, and live this transformed life “Therefore, if anyone is in Christ, he is a new creation; old things have passed away; behold, all things have become new” (2 Corinthians 5:17); to live a life that is not based upon fulfilling the rites and rituals of any religion, or doing good works, or living according to man-made rules and ceremonies and assume to have become acceptable to God; rather living a life based upon obedience to God’s Word, as the Lord has said to His disciples, chiding them for their disobedience “But why do you call Me 'Lord, Lord,' and do not do the things which I say?” (Luke 6:46). The first step to be taken to become an obedient disciple of the Lord Jesus is to sincerely and voluntarily repent of sins and turn away from the old worldly ways of living, to the new ways of living a spiritual life. Without an honest repentance neither can anyone become the Lord’s disciple, nor truly live the life of discipleship. To be a Christian Believer or the follower of the Lord Jesus, no one needs to convert their religion, but to convert their hearts and minds from the sinful tendencies and habits to living the new life that the Lord Jesus provides to His people.


 If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Job 20-21 

  • Acts 10:24-48

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