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बुधवार, 24 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 4


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आज्ञाकारिता - परमेश्वर की, या मनुष्यों की?

 

पिछले लेख में हम देख चुके हैं कि परमेश्वर की दृष्टि में, उसके प्रति मनुष्य की आज्ञाकारिता ही सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य बात है। कोई मनुष्य अपनी स्वेच्छा से, या अपने बनाए विधि-विधानों, रीति-रिवाज़ों, और तौर-तरीकों से परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। यदि मनुष्य परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहता है, तो उसे वही और वैसा ही करना होगा, जैसा परमेश्वर ने करने को कहा है। उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी, वह चाहे कितना भी उत्तम, भक्तिपूर्ण, और मानवीय बुद्धि एवं समझ के अनुसार भला और प्रशंसनीय क्यों न हो, परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है; और इस उद्देश्य के लिए व्यर्थ है। मसीही जीवन और मसीही सेवकाई में भी, तथा मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए वरदानों के उचित उपयोग में भी यह बात इतनी ही महत्वपूर्ण है। इसलिए मसीही विश्वासियों और सेवकाई में लगे लोगों को यह जानना और समझना बहुत आवश्यक, अनिवार्य है कि वे मसीह के नाम में, अपनी इच्छा के अनुसार कुछ करके, परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते हैं, चाहे उनके वे कार्य मनुष्यों की दृष्टि में कितने भी प्रशंसनीय, लोगों के लिए लाभकारी, और भक्तिपूर्ण क्यों न दिखाई दें। कभी भी 1 इतिहास 17:1-4, दाऊद और नातान द्वारा परमेश्वर का मंदिर बनाने की लालसा, की शिक्षा की अनदेखी नहीं करें।


प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं अपने जीवन से इस आज्ञाकारिता के महत्व को दिखाया, और शिष्यों को सिखाया भी। प्रभु यीशु का समस्त मानवजाति के लिए पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग बनाकर देने के लिए पृथ्वी पर आगमन ही परमेश्वर की इच्छा में, परमेश्वर के वचन में पहले से प्रभु के विषय लिखी गई बातों की पूर्ति के लिए था (इब्रानियों 10:5-7; 1 कुरिन्थियों 15:1-4; लूका 24:44; यूहन्ना 5:39)। अपने पृथ्वी के जीवन के दौरान, प्रभु ने यह स्पष्ट किया कि वह अपनी इच्छा नहीं, वरन परमेश्वर पिता की इच्छा के अनुसार कार्य करता है, जैसा पिता परमेश्वर बताता है, वही कहता है और वैसे ही कार्य करता ही (यूहन्ना 4:34; 5:19, 30; 6:38; 8:28)। इसीलिए प्रभु यीशु को उदाहरण बनाकर मसीही सेवकों के लिए लिखा गया है, “जैसा मसीह यीशु का स्‍वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्‍वभाव हो। जिसने परमेश्वर के स्‍वरूप में हो कर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। वरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्‍वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के रूप में प्रगट हो कर अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली। इस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है” (फिलिप्पियों 2:5-9)।

 

प्रभु यीशु के पृथ्वी के समय पर जो लोग परमेश्वर के वचन के ज्ञाता, धर्म के अगुवे, और परमेश्वर के मंदिर के अधिकारी माने जाते थे, उन्होंने परमेश्वर के वचन में, अपनी समझ और इच्छा के अनुसार अपनी ही व्याख्या और अर्थ डाल देने के द्वारा, बहुत से “संशोधन” कर लिए थे, जिससे उनके लिए परमेश्वर के वचन का निर्वाह करना अधिक सुविधाजनक एवं लाभकारी हो जाए। वे लोग जन-सामान्य को अपनी यही व्याख्या और अर्थ सिखाया और समझाया करते थे; और लोगों को यही कहते थे कि जो वो कह रहे हैं, उन्हें वही मानना है और वैसा ही करना है। और आज भी मसीही या ईसाई धर्म के निर्वाह में यही स्थिति देखी जाती है। मत-समुदाय-डिनॉमिनेशंस के अगुवे और अधिकारी जो और जैसा बोल देते हैं, उस मण्डली के लोग वह और वैसा करते हैं। आज भी जन-साधारण के लोगों के लिए परमेश्वर के वचन को जानना और मानना उतना महत्व नहीं रखता है जितना अपने मत-समुदाय-डिनॉमिनेशंस के अगुवे और अधिकारियों की कही बातों और शिक्षाओं को जानना और मानना रखता है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि अन्ततः उन्हें किसी मनुष्य-मत-दिनोमिनेशन की नहीं वरन प्रभु यीशु की शिक्षाओं के आधार पर, अपने न्याय के लिए, अपने जीवन का हिसाब देने के लिए प्रभु यीशु मसीह के सामने खड़े होना पड़ेगा; और उनके साथ ही उनके ये अगुवे और अधिकारी भी अपनी गलत शिक्षाओं एवं धारणाओं के लिए हिसाब देने के लिए प्रभु के सामने खड़े होंगे। क्योंकि हम सभी का न्याय तो परमेश्वर के वचन के अनुसार होगा (यूहन्ना 5:45-46;12:48), न कि किसी मत-समुदाय-डिनॉमिनेशंस के अगुवे और अधिकारियों की बातों और शिक्षाओं के अनुसार।


प्रभु यीशु ने अपने समय के इन धर्म-अधिकारियों की उनके इस व्यवहार के लिए भर्त्सना करते हुए उन्हें कपटी कहा और यशायाह नबी की कही बात स्मरण करवाई, “हे कपटियों, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यवाणी ठीक की। कि ये लोग होंठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उन का मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश कर के सिखाते हैं” (मत्ती 15:7-9)। जब प्रभु के शिष्यों ने प्रभु से कहा कि उन धर्म-अधिकारियों को प्रभु की कही बात रास नहीं आई थी, तो प्रभु ने भी अपने शिष्यों को बता दिया, कि उन धर्म-अधिकारियों की कोई बात बचेगी नहीं, सभी मिटा दी जाएंगी “तब चेलों ने आकर उस से कहा, क्या तू जानता है कि फरीसियों ने यह वचन सुनकर ठोकर खाई? उसने उत्तर दिया, हर पौधा जो मेरे स्‍वर्गीय पिता ने नहीं लगाया, उखाड़ा जाएगा” (मत्ती 15:12-13)। इसीलिए अपने पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय) में प्रभु ने अपने अनुयायियों से बारंबार उस समय की प्रचलित गलत शिक्षाओं के विषय कहा, “तुम सुन चुके हो”, और फिर उन शिक्षाओं का सही स्वरूप बताते हुए कहा “परंतु मैं तुम से कहता हूँ” - प्रभु उन्हें सिखा रहा था कि मनुष्यों द्वारा बताई और सिखाई जाने वाली बातों पर नहीं वरन परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को सीखो और उनका पालन करो। और आज हमें परमेश्वर के वचन को सिखाने और समझाने के लिए प्रभु ने अपना पवित्र आत्मा हम में सर्वदा रहने के लिए प्रदान किया है (यूहन्ना 14:16, 26; 16:13, 14)। यदि हम उसके द्वारा किए गए इस प्रावधान का सदुपयोग नहीं करेंगे, और स्वेच्छा से गलत शिक्षाओं एवं मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई बातों के निर्वाह में ही लगे रहेंगे, तो अन्ततः होने वाली हमारी हानि के लिए हमारे अतिरिक्त और कौन ज़िम्मेदार होगा?


यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि परमेश्वर के वचन को पढ़ने, अध्ययन करने और सीखने, तथा उसका पालन करने में समय बिताएं। तब ही आप अपनी मसीही सेवकाई का ठीक से निर्वाह करने पाएंगे, पवित्र आत्मा द्वारा आपको इस सेवकाई के लिए दिए गए वरदानों का सही उपयोग करने पाएंगे, और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले तथा उसके लिए उपयोगी ऐसे जन बनने पाएंगे, जिनके साथ प्रभु परमेश्वर रहता है (यूहन्ना 14:21, 23)। गंभीरता से विचार कीजिए, यदि स्वयं प्रभु यीशु के लिए अपने समय के धर्म-अधिकारियों के बैर को आमंत्रित करते हुए भी, उनकी सभी गलत शिक्षाओं और मन-गढ़न्त धारणाओं और मनुष्यों की गढ़ी हुई बातों से हट कर, परमेश्वर की आज्ञाकारिता एवं उसके समर्पण का जीवन जीना अनिवार्य था, तो मैं और आप यह करने से कैसे बच सकते हैं? वरन यह करना तो हमारे लिए ठहराया गया है (1 कुरिन्थियों 11:1) इसलिए, अपने आत्मिक वरदानों के उचित उपयोग के लिए मनुष्यों के नहीं, परमेश्वर के आज्ञाकारी बनिए।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 116-118 

  • 1 कुरिन्थियों 7:1-19

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English Translation

Obedience - to God, or to Man?


We have seen in the previous article that in God’s eyes, man’s obedience to God is the most important and essential thing. No man can please God by his self-devised methods, by doing according to his own will, and through fulfilling any man-made rites, rituals and traditions. If man wants to please God, then he will have to do and behave as God has asked him to do, no way else. No matter how excellent, godly, religious, good and commendable by human understanding anything may be, but if it is not in accordance with God’s instructions and will, it will never be acceptable or pleasing to God; it is utterly vain for this purpose. This basic principle is applicable just the same in Christian living, ministry, and in the appropriate use of gifts of the Holy Spirit in the Christian ministry. Therefore, it is very important and essential that Christian Believers engaged in ministry know and understand that they cannot please God by doing whatever seems right and appropriate to them in the name of the Lord; no matter how commendable, beneficial for others, and godly or religious such things may seem to them and others. Never forget the lesson of 1 Chronicles 17:1-4 - David and Nathan’s desire to build God’s Temple.


The Lord Jesus showed the importance of this obedience through the example of His own life, and taught the same to His disciples. The Lord Jesus’s coming to earth to prepare the way of forgiveness of sins and salvation of all of mankind was in God’s will, and to fulfill all that had been written about Him in God’s Word (Hebrews 10:5-7; 1 Corinthians 15:1-4; Luke 24:44; John 5:39). During His earthly ministry, the Lord Jesus made it very clear that He does not work according to His own will, but according to the will of Him who has sent Him, as God the Father instructs Him, He says and does the same things (John 4:34; 5:19, 30; 6:38; 8:28). That is why, putting the life of the Lord Jesus as an example, it is written for the Christian Believers, “Let this mind be in you which was also in Christ Jesus, who, being in the form of God, did not consider it robbery to be equal with God, but made Himself of no reputation, taking the form of a bondservant, and coming in the likeness of men. And being found in appearance as a man, He humbled Himself and became obedient to the point of death, even the death of the cross. Therefore God also has highly exalted Him and given Him the name which is above every name” (Philippians 2:5-9).


During the days of the Lord Jesus’s earthly ministry, the religious leaders, the people learned in the Scriptures, and the officials of God’s Temple, they had made many alterations in their expositions and interpretations of God’s Word and given it meanings and implications according to their own understanding, which had made it very convenient and beneficial for these religious leaders to follow. They used to teach these improvisations that they had done to the common people, and used to emphasize upon the people to do whatever they would tell the people, leaving the study and interpretation of God’s Word to them. Today too, in the observance of the Christian religion a similar situation is seen. The people of the congregation do that which the leaders and elders of their sect or denomination tell them to do. Even today, personally learning and understanding the Word of God is not considered important by most “Christians”; rather, they trust what their leaders and elders preach, teach, and tell them to do. They forget that each and every one of us will be judged according to the Word of God (John 5:45-46; 12:48), and not according to the teachings of their sects and denominations. Eventually everyone will have to give an account of their life to the Lord Jesus, and be evaluated on the basis of what the Lord Jesus has taught; at that time these elders and leaders whom they had blindly trusted, will also be standing to give an account of their wrong interpretations, false preaching and teaching, and misleading the people.


The Lord Jesus severely admonished the religious leaders of His time for this behavior, called them hypocrites, and reminded them of what Isaiah had written, “Hypocrites! Well did Isaiah prophesy about you, saying: 'These people draw near to Me with their mouth, And honor Me with their lips, But their heart is far from Me. And in vain they worship Me, Teaching as doctrines the commandments of men'” (Matthew 15:7-9). On hearing this when the disciples of the Lord told Him that the religious leaders did not like what He said to them at all, the Lord responded by saying the nothing of what those religious teachers falsely taught will remain, they and their teachings, everything will be destroyed, “Then His disciples came and said to Him, "Do You know that the Pharisees were offended when they heard this saying?" But He answered and said, "Every plant which My heavenly Father has not planted will be uprooted” (Matthew 15:12-13). That is why we see that in His Sermon on the Mount, the Lord Jesus repeatedly said to His followers “you have heard” and then correcting that teaching He told them the correct form “but I tell you that” - the Lord was teaching them not to go by man-made and taught teachings, but to learn and obey the right things, the right teachings, from God’s Word. Today, to teach God’s Word to us, and to help us understand and apply it in our lives, live by it, the Lord has given His Holy Spirit to us, who resides in the Christian Believer always (John 14:16, 26; 16:13, 14). If we do not properly utilize this excellent provision made available to us by God, and willingly keep following wrong teachings and man-made doctrines, then who but we ourselves will be responsible for the harm we will eventually have to suffer for it all?


If you are a Christian Believer, then it is mandatory for you to spend time in reading, studying and learning God’s Word. Only then will you be able to carry out your Christian Ministry properly, be effective in it, and be pleasing to God; God the Father and the Lord dwell with those who love, honor, and obey His Word (John 14:21, 23). Give it a very serious thought, if it was necessary for the Lord Jesus to stay separate from the wrong teachings and doctrines of the religious leaders of His time, and expose their wrongs, even at the cost of incurring their opposition and wrath; if it was necessary for Him to live a life obedient to the Word of God, fully surrendered to God the Father, then how much more important doing the same is for us today - actually it has been commanded for us to do so (1 Corinthians 11:1). Therefore, for being able to properly use your spiritual gifts, be obedient not to men, but to God.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 116-118 

  • 1 Corinthians 7:1-19


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