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प्रभु की मेज़ - प्रभु के आज्ञाकारी शिष्यों के लिए
पिछले लेख से हमने नए नियम से प्रभु भोज के बारे में सीखना आरंभ किया है। चारों सुसमाचारों में, मत्ती 26, मरकुस 14, लूका 22, और यूहन्ना 13 में, प्रभु यीशु के द्वारा फसह को मनाते हुए अपने शिष्यों के लिए प्रभु की मेज़ के स्थापित किए जाने के वृतांत दिए गए हैं। पिछले लेख में हमने मत्ती 26:17 से देखा था कि किस प्रकार से प्रभु भोज यह दिखाता है कि प्रभु यीशु मसीह के शिष्य एक “परिवार” हैं; “परिवार” जैसा कि प्रभु यीशु ने मरकुस 3:35 में परिभाषित किया है। परमेश्वर के वचन के अनुसार प्रभु भोज में भाग लेना हर किसी के लिए नहीं है वरन प्रभु के इस परिवार के सदस्यों का विशेषाधिकार है। आज भी हम मत्ती 26:17 से, आगे पद 19 तक देखेंगे, और फसह तथा प्रभु भोज से संबंधित एक और महत्वपूर्ण शिक्षा को देखेंगे।
हम मत्ती 26:17 में देखते हैं कि शिष्य प्रभु यीशु के पास एक प्रश्न के साथ आए, “तू कहां चाहता है कि हम तेरे लिये फसह खाने की तैयारी करें?” जैसे हमने पिछले लेख में कहा था, प्रभु यीशु के शिष्यों के बारे में एक जाना-पहचाना तथ्य है कि प्रभु यीशु के समान ही वे सभी स्थानीय लोग थे, अधिकांश गलीली थे। उन बारह शिष्यों में से कम से कम चार तो मछुआरे थे, उनके पास नावें (बहुवचन, लूका 5:2) थीं, और उनकी सहायता के लिए मज़दूर (बहुवचन, मरकुस 1:20) भी थे। इससे हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि चाहे वे बहुत संपन्न न भी हों, किन्तु आर्थिक स्थिति के अनुसार उनके हाल खराब भी नहीं थे। साथ ही, शिष्यों के प्रश्न के उत्तर में प्रभु ने इन्हीं मछुआरों, पतरस और यूहन्ना को भेजा (लूका 22:8) कि जाकर फसह को तैयार करें। लेकिन न तो पतरस ने, और न ही यूहन्ना या किसी अन्य शिष्य ने यह सोचा और किया कि जब हमारे अपने परिवार ऐसा कर सकते हैं, तो हम कहीं और क्यूँ जाएँ? हम स्वयं ही प्रभु तथा शिष्यों के लिए फसह का आयोजन करेंगे; क्योंकि आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह करना उनके लिए भारी भी नहीं होता। पतरस और यूहन्ना ने तुरंत ही, जैसे ही प्रभु ने उन्हें जिम्मेदारी दी, उसे पूरा किया, बिना मत्ती 26:18 और लूका 22:10-13 की अनिश्चितता की परवाह किए, बिना उससे घबराए।
उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किए, कोई संदेह व्यक्त नहीं किया, कोई वैकल्पिक सुझाव नहीं दिए, इस बात से नहीं घबराए कि क्या वे उस आदमी से मिलने पाएंगे या नहीं अथवा क्या प्रभु के कथन पर क्या घर का स्वामी स्थान उपलब्ध करवा देगा? उन्होंने, जो उनसे कहा गया था, उसे बिना हिचकिचाए, बिना कोई प्रश्न उठाए, पूरा किया। और फिर मत्ती 26:19 शिष्यों की आज्ञाकारिता का एक और उदाहरण है, “सो चेलों ने यीशु की आज्ञा मानी, और फसह तैयार किया।” कोई असहमति नहीं, कोई सुझाव देना नहीं, न ही अपने विचारों के अनुसार कुछ करना, प्रभु के कहे हुए में कोई ‘सुधार’ या परिवर्तन नहीं; बस केवल प्रभु की बात की सीधी और खरी आज्ञाकारिता।
यही शिष्यता का, प्रभु को समर्पित होने का, उसके प्रति और उसके वचन के प्रति आज्ञाकारी होने का अर्थ है। हमने निर्गमन 12:15-20 के खण्ड के अध्ययन के दौरान देखा था कि परमेश्वर उसकी आराधना और उपासना के लिए कुछ बातों के प्रति बहुत दृढ़ है; उसने जो और जैसा कहा है, उसे ठीक वैसा ही किया जाना है। चाहे फसह हो, या मिलापवाला तंबू, या मंदिर, या व्यवस्था के पर्व, भेंट, बलिदानऔर अनुष्ठान आदि हों, परमेश्वर ने प्रत्येक के लिए विस्तार से निर्देश दिए, कि उसके लोगों को क्या और कैसे करने है। उसने कुछ भी लोगों के अपने विचार अथवा कल्पना पर नहीं छोड़ा। परमेश्वर को स्वीकार्य रीति से करने के लिए सभी को वैसे ही करना था जैसा परमेश्वर ने आज्ञा दी थी कि किया जाए; अन्यथा वह आराधना परमेश्वर को ग्रहण नहीं होती, और व्यर्थ हो जाती (मत्ती 15:9)। यहाँ पर हम देखते हैं कि शिष्यों को फसह की तैयारी भी प्रभु द्वारा चुने हुए स्थान पर ही करनी थी, प्रभु के निर्देशों के अनुसार ही उन्हें उस स्थान पर पहुँचना था और कहे गए के अनुसार तैयारी करनी थी। प्रभु यीशु ने शिष्यों को उस घर तक पहुँचने के लिए उन्हें कोई पता नहीं बताया, लेकिन वहाँ पहुँचने की एक विधि बताई; यदि उन्होंने प्रभु के कहे के अनुसार तुरन्त नहीं किया होता, तो वे घड़ा लेकर जा रहे उस आदमी से नहीं मिल पाते, और फिर उनके लिए उसके बाद की सारी बात बिगड़ जाती। किन्तु उनकी आज्ञाकारिता ने यह सुनिश्चित कर दिया कि सब कुछ ठीक से हो जाए। इससे शिष्यों का विश्वास भी दृढ़ हुआ, वे प्रभु के साथ घनिष्ठता का समय बिता सके, और प्रभु से कई बातें सीख सके, जिन्हें हम आगे देखेंगे।
प्रभु भोज में भाग लेने का अर्थ है प्रभु के प्रति आज्ञाकारी होना, चाहे बात समझ में न आए, या फिर अटपटी, कठिन या असंभव ही क्यों न लगे। कोई भी प्रभु और उसके वचन, उसके निर्देशों को हल्के में नहीं ले सकता है, अपनी मन-मर्जी के अनुसार करके यह अपेक्षा नहीं रख सकता है कि प्रभु उससे प्रसन्न और संतुष्ट होगा। प्रभु अपनी आज्ञाकारिता से खुश होता है (1 शमूएल 15:22-23), न कि ऊपरी तौर से एक रस्म पूरी करने के लिए, या औपचारिकता अथवा परंपरा निभाने के लिए किए गए कार्यों के द्वारा। प्रभु भोज हमें सिखाता है कि हम हमेशा प्रभु और उसके वचन के प्रति आज्ञाकारी रहें। यह हमें अवसर देता है कि हम प्रभु के प्रति अपनी आज्ञाकारिता की स्थिति का आँकलन कर लें, अपने जीवनों में झांक कर देख लें, और जो भी सुधार करने की आवश्यकता है, उसे कर लें।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
हाग्गै 1-2
प्रकाशितवाक्य 17
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The Lord’s Table - For Those Obedient to the Lord
Since the last article, we have started studying about the Holy Communion from the New Testament. All the four Gospels give an account of the Lord Jesus’s establishing the Lord’s Table for His disciples, in Matthew 26, Mark 14, Luke 22, and John 13, while celebrating the Passover with them, using the elements of the Passover. In the last article we had seen from Matthew 26:17, how the Holy Communion showed that the disciples of Christ Jesus are one “family”, family as defined by the Lord Jesus in Mark 3:35. As per the Word of God, it is this family of God that has the privilege of partaking of the Lord’s Table. Today we will continue with Matthew 26:17 till verse 19, and look at another important teaching related to the Passover and the Holy Communion.
We see in Matthew 26:17 that the disciples came to the Lord with a question, “Where do You want us to prepare for You to eat the Passover?” As we said in the last article, a well-known fact about the disciples of the Lord Jesus is, like the Lord Jesus, they too were all local people, mostly Galileans. Of the twelve disciples, at least four were fishermen, having boats (plural; Luke 5:2) and servants (plural; Mark 1:20) to help them. So, we can surmise that even if they were not very affluent, economically, they were at least in a reasonably good state. Moreover, in response to the disciple’s question, the Lord sent the fishermen Peter and John (Luke 22:8), to go and prepare for the Passover to be observed. But neither Peter, nor John, nor any one of the other disciples assumed and decided that they and when they and their natural families can do it, why should they go elsewhere? They will host the Passover for the Lord Jesus and the rest of the disciples, since unlikely that financially it would have been any burden for them. Peter and John, immediately, as soon as the Lord entrusted the responsibility to them, went, undaunted by the uncertainty of Matthew 26:18 and Luke 22:10-13.
They did not raise any questions or express any doubts, did not offer alternative suggestions, did not feel perplexed at whether or not they will be able to meet the man, or whether the owner of the house would accept the Lord’s statement and give them the room. They just did what was told to them, unhesitatingly, unquestioningly; and then Matthew 26:19 has another statement of obedience “So the disciples did as Jesus had directed them; and they prepared the Passover.” No disagreement, no suggestions or doing anything according to their own ideas, no modification of what the Lord had asked to be done; simple straightforward obedience to the Lord’s command.
That is what discipleship and submission to the Lord, deciding to obey Him and His Word means. During the study from Exodus 12:15-20, we had seen how God is very steadfast about certain things for worshipping and following Him, it has to be done as He has ordained it be done. Whether for the Passover, or the Tabernacle, or the Temple, or the various feasts, offerings, sacrifices and ceremonies of the Law - God gave detailed instructions for everything and commanded that His people have to do as He has commanded to be done. He did not leave it to anybody’s imagination, or personal preferences. To worship God acceptably, everybody had to do it in the manner given by God, else the worship was not acceptable to God; it was vain worship (Matthew 15:9). We see here that even the preparation of the Passover by the disciples had to be done at the place the Lord had chosen, and they had to reach there to prepare in the manner the Lord told them to. The Lord Jesus did not give them the address of the house, but gave them a way of reaching there; had they not obeyed it properly, they would have missed out meeting the man carrying the pitcher, and everything else after that would have fallen apart for them. But their obedience ensured that all went well. Therefore, the disciple’s faith was strengthened and they could have a time of close fellowship with the Lord, learn many things, as we will see later.
Partaking of the Holy Communion demands being obedient to the Lord, even if the thing seems difficult to understand or do. One cannot treat the Lord and His Word casually, and do according to one’s own whims, and then expect the Lord to be pleased and happy with that. It is obedience to the Lord that makes Him happy (1 Samuel 15:22-23), not the doing of things in a ritualistic and superficial manner, as a formality or a tradition. The Holy Communion teaches us to be obedient to the Lord and His Word. It gives us an opportunity to examine our lives and check on our state of obedience to the Lord and His Word, and rectify what needs to be corrected in our lives.
If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Haggai 1-2
Revelation 17
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