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सोमवार, 2 जनवरी 2023

प्रभु भोज – भाग लेने में गलतियाँ (2) / The Holy Communion - The Pitfalls (2)

Click Here for the English Translation


प्रभु की मेज़ - लोगों को उनकी उन्नति के लिए ही सुधारें

 

पवित्र आत्मा की अगुवाई में प्रेरित पौलुस ने कुरिन्थुस की कलीसिया को यह पत्री लिखी, उनके मसीही विश्वास और जीवन में घुस आई बहुत सी गलत बातों और शिक्षाओं की ओर उनका ध्यान खींचने और सुधारने का मार्ग बताने के लिए। उनके मसीही विश्वास और जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जो शैतान की बातों से अछूता रहा हो; उसने अपनी गलत शिक्षाओं और झूठे सिद्धांतों के द्वारा उनके मसीही जीवन के हर पक्ष को बिगाड़ दिया था, भ्रष्ट कर दिया था; प्रभु भोज में सम्मिलित होना भी इसी प्रकार से शैतान द्वारा बिगाड़ दिया गया था। पौलुस ने इस विषय - मसीही विश्वासी के द्वारा प्रभु भोज में सम्मिलित होना, को 1 कुरिन्थियों 11:17 से लिया है। वह इसमें हो रही गलतियों को बताता है, उन्हें प्रभु की मेज़ के बारे में सिखाता है, और बताता है कि उन गलतियों को किस प्रकार सुधारा जाए।


पौलुस, यहाँ पर पद 17 का आरंभ एक विचित्र वाक्य “परन्तु यह आज्ञा देते हुए, मैं तुम्हें नहीं सराहता,...” के साथ करता है; पौलुस परमेश्वर के वचन और मसीही विश्वास के प्रति बहुत खरा और स्पष्टवादी था। हम इस अध्याय के आरंभ में, पद 2 में देखते हैं कि वह उन लोगों की सराहना कर रहा है क्योंकि वे उसे याद रखते थे और जो ‘व्यवहार’ उसने उन्हें सिखाए थे, उन्हें धारण भी किए हुए थे। लेकिन क्योंकि वे लोग उसके प्रति स्नेह और आदर का रवैया रखते थे, इसका यह अर्थ नहीं था कि वह उनकी त्रुटियों और बुराइयों की अनदेखी कर देगा। उसकी जवाबदेही प्रभु परमेश्वर के प्रति थी, किसी मनुष्य या मनुष्यों के किसी समुदाय के प्रति नहीं। पौलुस की पहली प्राथमिकता थी कि वह यह सुनिश्चित करे कि मसीही विश्वासियों में परमेश्वर के वचन का पालन, उसका अनुसरण हो रहा है कि नहीं, जैसा कि वह इस अध्याय के पहले पद में अभिप्राय देता है। यदि कहीं पर कोई समझौता था, कोई दुरुपयोग, किसी गलत रीति से व्याख्या या कोई गलतफहमी, तो तुरन्त ही उसके साथ व्यवहार करने और उसे सुधारे जाने की आवश्यकता था, किसी भी कीमत पर; उसके ऐसा करने के विषय चाहे कोई भी कुछ भी कहे अथवा सोचे। वह कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को पहले ही बता चुका था कि वह उन से अपने आत्मिक बच्चों के समान व्यवहार कर रहा था, और उन्हें सुधारने के लिए जो भी आवश्यक हो, वह करने के लिए तैयार था - सिर्फ उलाहना देना ही नहीं, यदि आवश्यक हो तो छड़ी उठाने के लिए भी तैयार था (1 कुरिन्थियों 4:14-21); क्योंकि पौलुस ने उनके मध्य डेढ़-वर्ष तक परिश्रम किया था, उन्हें परमेश्वर का वचन सिखाया था (प्रेरितों 18:1, 11)। इसलिए प्रभु भोज में भाग लेने से संबंधित गलतियों को संबोधित करने वाले इस खण्ड के आरंभ ही में, हमें पहली शिक्षा मिलती है, विशेषकर कलीसिया के अगुवों, वचन के प्रचारकों और शिक्षकों के लिए - प्रभु और उसके वचन को आदर देने वाले बनें, न कि किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों को। विनम्र रहें, किन्तु कोई समझौता नहीं करें, कोई पक्षपात नहीं, और खरे तथा स्पष्टवादी रहें। कलीसिया की बढ़ोतरी एवं उन्नति के लिए ही गलतियों को दिखा कर उन्हें सुधारने का मार्ग बताएं।

 

फिर, इसी पद के दूसरे भाग में, उनकी गलतियों को एक-एक करके बताने से पहले, वह उन्हें उनके किए के परिणाम से अवगत करवाता है “... इसलिये कि तुम्हारे इकट्ठे होने से भलाई नहीं, परन्तु हानि होती है” - उनका प्रभु की मेज़ में भाग लेने के लिए एकत्रित होना, उन्हें कोई लाभ पहुँचाने के स्थान पर, वास्तविकता में, उनकी हानि कर रहा था, और वह इस बात को सुधारना चाहता था। एक बार फिर हम यहाँ पर उसकी पिता के समान उनके लिए चिंता करने को देखते हैं, कि उसके आत्मिक बच्चों को किसी प्रकार की कोई हानि नहीं होनी चाहिए। पौलुस उनसे कह रहा है कि वह उनकी नुक्ताचीनी नहीं कर रहा है, उनमें दोष ढूँढने और दिखाने के लिए बातें नहीं बना रहा है, और न ही वह किसी भी रीति से उन्हें अपमानित करना या नीचा दिखाना चाहता है। वो इन बातों को केवल इस उद्देश्य से उन से कह रहा है क्योंकि उनकी त्रुटियाँ उनके लिए बुराइयाँ उत्पन्न कर रही थीं - न केवल आत्मिक बल्कि शारीरिक हानि भी उत्पन्न कर रही थीं, जैसा कि हम इस अध्याय के अंत की ओर लिखा हुआ पाते हैं। यह हमें दूसरी शिक्षा पर लाता है - एक बार फिर से, विशेषकर कलीसिया के अगुवों, वचन के प्रचारकों और शिक्षकों के लिए - ईमानदार और भली मनसा रखने वाले बने रहो; व्यक्ति अथवा कलीसिया को सुधारने की मनसा केवल उसकी बढ़ोतरी और उन्नति के दृष्टिकोण ही से रखो, न कि अपने हठधर्मी होने के कारण, या किसी से हिसाब बराबर करने के लिए, या अपने आत्मिक अधिकार और ओहदे को जताने के लिए (1 पतरस 5:1-4)।

 

इसी पद में एक तीसरी और बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा भी निहित है, और एक बार फिर, विशेषकर कलीसिया के अगुवों, वचन के प्रचारकों और शिक्षकों के लिए - पौलुस यह बिल्कुल भी नहीं दिखाता है कि जो वह कर रहा था, या, उनसे जो करने को कह रहा था, उसके विषय कोई स्पष्टीकरण देना उसके स्तर, उसकी हैसियत को किसी भी प्रकार से कम करने वाली बात है। उसकी यह सोच नहीं थी कि क्योंकि कुरिन्थुस के मसीही विश्वासी उसे जानते थे और उन्हें उनके मध्य किए गए उसके परिश्रम के बारे में पता था, उन्होंने उस से परमेश्वर के वचन की शिक्षा पाई थी, इसलिए उसे कोई आवश्यकता नहीं थी कि वह अपने काम और बात के बारे में उन्हें कोई कारण बताए या किसी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण दे। न ही वह यह समझता था कि उन्हें उससे कोई प्रश्न नहीं करने चाहिए, बल्कि नतमस्तक होकर बस उसकी कही बात को मान लेना और कर देना चाहिए। ऐसा दृष्टिकोण रखने की बजाए, वह किसी भी मतभेद अथवा गलतफहमी के उत्पन्न होने की संभावना को पहले ही समाप्त कर देता है, और उनसे आगे कुछ भी कहने से पहले, वह स्वयं ही उन्हें अपनी बात और काम के कारण को बता देता है - उन्हें हानि से बचाकर निकालने के लिए वह यह कर रहा था। आज, कितनी ही बार व्यक्तिगत अहं के कारण कलीसिया के लोगों के मध्य समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं; और लोगों पर “अनाज्ञाकारी होने”, तथा “आदर नहीं करने वाले” होने के आरोप लगे जाते हैं, विशेषकर उनके द्वारा जो कलीसिया में किसी अधिकार के पद अथवा ओहदे पर हैं, और इससे कलीसिया में समस्याएँ कम होने के स्थान पर, और अधिक बढ़ जाती हैं। हमें पौलुस द्वारा इस अध्याय के पहले पद में कही गई बात को समझने और पालन करने की आवश्यकता है। यद्यपि यह कलीसिया के अगुवों की ज़िम्मेदारी है कि वे सदस्यों में देखी जाने वाली गलतियों को बताएं और उन्हें सुधारें, किन्तु यह केवल परमेश्वर के वचन में सिखाए गए तरीके से ही किया जाना चाहिए; किसी अन्य तरीके से करने से समस्याएँ कम होने के स्थान पर और बढ़ जाएँगी।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 4-6          

  • मत्ती 2     


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English Translation


The Lord’s Table - Correct People Only for Edification


  The Apostle Paul, under the guidance of the Holy Spirit, wrote this letter to the Church at Corinth to point out and show them the way to correct the many false practices about their Christian faith that had come up amongst them. There was no area of Christian Faith and living that had been left untouched by Satan, he had corrupted every aspect of their Christian life and brought in his wrong teachings and false doctrines; their participating in the Lord’s Table too had been corrupted by Satan. In 1 Corinthians 11:17 onwards, Paul takes up this topic - Christian Believer’s partaking of the Holy Communion; he points out their mistakes and errors, and instructs them about the Lord’s Table and about correcting their errors and mistakes.


Paul begins verse 17 with a peculiar sentence, “Now in giving these instructions I do not praise you…”; Paul was very forthright about things related to the Christian Faith and God’s Word. We see at the beginning of this chapter, in verse 2, that he is praising them for remembering him and for keeping the traditions or ordinances that he had delivered to them. But this did not mean that he would overlook their short-comings in response to their affectionate and obedient attitude towards him. His accountability was to the Lord God, not any person or group of persons, nor any Church or Assembly. Paul’s first priority was to ensure that God’s Word was being followed, as he implies in verse 1 of this chapter. If there was any compromise, any misapplication, mishandling, misuse, or misunderstanding about God’s Word, that had to be handled and corrected, he did it straightaway, at any cost; whatever anyone or any persons may say or feel about his doing it. He had already pointed out to the Corinthian Believers earlier that he was dealing with them as his spiritual children, and was willing to do whatever was necessary to correct them - not just admonish, but even use a rod if necessary (1 Corinthians 4:14-21); for Paul had labored amongst the Corinthians for a year and a half, teaching them the Word of God (Acts 18:1, 11). So, right in the beginning of the section of this letter dealing with errors in partaking in the Holy Communion, we have the first teaching, especially for elders, preachers, and teachers in the Lord’s Church - be the one who respects the Lord and His Word, instead of being those who respect people or any person. Be gentle, but be uncompromising, impartial, and forthright; point out and correct errors for the growth and edification of the Church.


Then, in the second half of this verse, before pin-pointing the errors, he points out to them the overall consequences of what they were doing “...since you come together not for the better but for the worse” - their gathering together for the Lord’s Table, instead of benefitting them, was in fact causing them harm, and he wanted to correct that. We again see a fatherly concern, that his spiritual children should not come to any harm. Paul is telling them that he is not nit-picking on them; he is not doing it to humiliate them or put them down in any way. But he is pointing these things out to them to help and benefit them, since their errors, were turning out to be counterproductive for their lives - spiritually as well as physically, as we see stated towards the end of this chapter. That brings to us the second lesson, again, especially for elders, preachers, and teachers in the Lord’s Church - be sincere and well-meaning; correct for the growth and edification of the person or the Church, instead of just being dogmatic, or settling scores with someone, or simply to assert your spiritual authority (1 Peter 5:1-4).


There is a third very important teaching inherent in this verse, and again, especially for elders, preachers, and teachers in the Lord’s Church - Paul did not feel it was below his status or dignity to offer an explanation for what he was asking them to do, or going to ask them to do. He did not feel that as the Corinthian Believers knew who he was and how he had labored among them, taught them the Word of God, therefore, there was no need for him to offer any reason for what he was doing, or offer any explanations to them; rather, they should feel obligated to listen to him and obey him without asking any questions. Instead, he pre-empted reasons for any discord or misunderstandings, and before saying anything more, he told them his reason - to help them come out of harm. How often ego problems amongst Church members; and allegations of “insubordination”, of “not paying due respect” especially in those who see themselves in any position of authority, creates even more problems in the Church. We need to learn from Paul’s attitude, from his living by what he said in verse 1. While it is the responsibility of the elders of the Church to point out and correct the congregation, it is also necessary to do it in the manner taught by God in His Word; doing it in any other way will create more problems than it will solve.

  

If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Genesis 4-6

  • Matthew 2



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