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प्रभु की मेज़ - जाँचें और एक-मनता को बनाएँ रखें
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 11:17 से देखा था कि पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने कलीसिया में घुस आई गलतियों को दिखाना और उनका सामना करना आरंभ किया। हमने देखा था कि पौलुस प्रभु और उसके वचन के प्रति, सही सिद्धांतों के पालन और शिक्षा में, न केवल खरा और स्पष्टवादी था, वरन सुधारने के समय उसने पिता के समान प्रेम और चिंता भी दिखाई, उन्हें साफ बताया कि उनकी गलतियों के कारण उन्हें बहुत हानि उठानी पड़ रही है; अर्थात, उसका उन्हें ठीक करने का प्रयास उन पर अपने अधिकार को जताने के लिए नहीं परंतु उन्हें हानि में से खींच कर निकाल लेने के लिए है, जिसमें वे जा चुके थे।
पद 18 से आगे पौलुस उन्हें उनकी गलतियाँ दिखाना आरंभ करता है। पहली गलती जो वह उन्हें दिखाता और जिसका सामना वह करता है वह है उनमें एक-मनता का न होना। वास्तव में, यह इस पत्री के लिखने में उसके द्वारा उन्हें बताई गई उनकी पहली गलती भी थी (1 कुरिन्थियों 1:10-13)। इस पत्री के आरंभ में, पौलुस 1 कुरिन्थियों 1:10 में उनसे विनती करता है कि वे एक मन होकर साथ बने रहें। अर्थात, मसीही विश्वासी होने के नाते, जिस बात की सबसे पहले उनसे अपेक्षा रखी जाती है, वह है अपने विश्वास में एक देह होकर कलीसिया के रूप में प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए एकत्रित हों। पौलुस उन्हें पहले ही बता चुका था कि उनमें एक-मनता का न होना, उनमें परस्पर डाह और झगड़े होने, उनकी आत्मिक अपरिपक्वता, शारीरिक होने, और संसार के लोगों के समान व्यवहार रखने का चिह्न है (1 कुरिन्थियों 3:1-6)।
जैसा कि पौलुस ने कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को 1 कुरिन्थियों 3:1-6 में कहा है, उनमें एक-मनता के न होने के कारण, वे अपने विश्वास में बढ़ने और उन्नति करने नहीं पा रहे थे, वे अभी भी “मसीह में बालकों” के समान थे; और इसलिए पौलुस उनसे आत्मिक लोगों के समान बात नहीं कर सका। क्योंकि वे आत्मिक रीति से अपरिपक्व थे, अभी भी “बालक” ही थे, इसलिए वह उन्हें प्रभु यीशु, मसीही विश्वास, और मसीही जीवन के बारे में केवल बहुत ही आरंभिक बातें ही सिखाने पाया था, क्योंकि वे इससे आगे की कोई बात ग्रहण करने और समझने के योग्य होने की स्थिति में नहीं थे। कलीसिया के रूप में भी उनमें विद्यमान डाह और झगड़े उनकी अभी भी “शारीरिक” होने का प्रमाण थे, अर्थात वे अभी भी शरीर की लालसाओं और अभिलाषाओं को पूरा करने में अधिक रुचि रखते थे, जैसे कि सामान्यतः संसार के लोग करते हैं, बजाए आत्मिक जीवन जीने की इच्छा रखने के। इससे थोड़ा ही पहले, पौलुस ने उन्हें उनकी इस प्रवृत्ति के हानिकारक परिणाम के बारे में बताया था, “परन्तु शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे उस की दृष्टि में मूर्खता की बातें हैं, और न वह उन्हें जान सकता है क्योंकि उन की जांच आत्मिक रीति से होती है” (1 कुरिन्थियों 2:14)। तात्पर्य स्पष्ट है, यदि उन्हें विश्वास में और प्रभु में बढ़ना था, तो यह उनके शारीरिक प्रवृत्तियों से निकलने के बाद ही संभव हो सकता था, और उन प्रवृत्तियों के उन में विद्यमान होने का परिणाम और प्रमाण उनमें पाए जाने वाले डाह और झगड़े थे।
इससे अगले पद, पद 19 में, पौलुस उनसे उनमें एक-मनता के न पाए जाने के कारण को बताता है, जो एक बार फिर से उसी बात को दोहराना है जिसे वह 1 कुरिन्थियों 1:12-13 और 3:4 में उनसे कह चुका था। उनके मध्य पाए जाने वाली गुट-बाज़ी ही उनमें एक-मनता न होने की जड़ थी। उनके मध्य में यह गुट-बाज़ी इसलिए आने पाई थी क्योंकि उन्होंने ऊपर प्रभु यीशु की ओर देखते रहने और केवल उसी का अनुसरण करते रहने के स्थान पर, उन्होंने अपने आस-पास देखना और व्यक्तिगत रीति से अपने मन-पसंद अगुवे और शिक्षक की ओर देखना, उसका अनुसरण करना आरंभ कर दिया था, और फिर उन अगुवों और शिक्षकों के नाम में आपस में विभाजित होने लग गए थे। जैसा पौलुस इस पद 19 में कहता है, उनकी इस प्रवृत्ति को उनके मध्य के कुछ लोगों ने और बढ़ावा दिया, उसे और उकसाया, क्योंकि यह करने वाले लोग कलीसिया में स्थान और आदर पाना चाहते थे। और उन लोगों के अहं तब ही संतुष्ट हो सकते थे जब वे कलीसिया को भिन्न गुटों में विभाजित करके लोगों पर प्रभाव रख सकें और अपना नियंत्रण ला सकें। लेकिन उन्होंने इस बात का ध्यान नहीं किया कि उनके ऐसा करने के द्वारा एक इकाई के रूप में कलीसिया का, तथा व्यक्तिगत रीति से इस गुट-बाज़ी में फंस जाने वाले लोगों का, कितना नुकसान हो रहा है; क्योंकि इसी के कारण उनकी बढ़ोतरी और उन्नति रुक गई, वे परिपक्व नहीं होने पाए, आत्मिकता और आत्मिक जीवन बाधित हो गया, आशीषों पर रोक लग गई।
आज भी यही समस्या कलीसियाओं में और मसीही विश्वासियों की मण्डलियों में भी इसी प्रकार से बनी हुई है - कुछ लोग औरों पर प्रभाव रखना और नियंत्रण करना चाहते हैं, जबकि सामान्यतः अन्य लोगों की प्रवृत्ति होती है कि वे कुछ अगुवों या लोगों की ओर देखें, न कि सभी को सामर्थ्य देने और उन के मध्य में उन अगुवों और शिक्षकों को प्रयोग करने वाले प्रभु परमेश्वर की ओर। इसलिए कुल मिलाकर स्थिति यही हो जाती है, कलीसिया भी हानि उठाती है, तथा व्यक्तिगत सदस्य भी हानि उठाते हैं। न तो कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी और उन्नति होती है, और न ही व्यक्तिगत रीति से सदस्यों की। इसीलिए, सभी को अपनी अनन्तकालीन आशीषों की हानि उठानी पड़ती है – लोगों द्वारा केवल कुछ समय के नाशमान आदर और ओहदे को पाने के लिए; और शैतान को उनके मध्य सहज और आराम का समय बिताने को मिल जाता है, जबकि प्रभु की इच्छा उन्हें इससे भी कही अधिक बढ़ाकर महिमा और अनन्तकालीन आशीष देने की थी।
प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, हम सभी के लिए यह अनिवार्य है कि हम यह सुनिश्चित कर लें कि हम प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया में गुट-बाज़ी को उत्पन्न करने, या बढ़ावा देने, या किसी भी प्रकार से उसे बनाए रखने में सहयोग देने वाले तो नहीं हैं। इसके स्थान पर, जहाँ कहीं भी हमें यह प्रवृत्ति दिखाई दे, किसी के द्वारा गुट-बाजी को आरंभ करना या उसे उकसाना और बढ़ावा देना, या बनाए रखना, या लोगों में आपस में मतभेदों का उत्पन्न होना और विभाजन आने लग जाना; तो किसी भी अगुवे अथवा शिक्षक का, उसके प्रति आदर रखने के कारण, समर्थन करने के स्थान पर, हमें परिस्थिति पर मनन करना चाहिए, और निष्पक्ष तथा खरे और स्पष्टवादी होकर समस्या और उससे संबंधित अगुवे और शिक्षक का सीधे से सामना करना चाहिए, जैसे पौलुस ने किया, और इस प्रकार से प्रभु यीशु द्वारा कही गई बात, “धन्य हैं वे, जो मेल करवाने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे” (मत्ती 5:9) को पूरा करना चाहिए। हमारे लिए यह कहीं अधिक उत्तम होगा कि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले बनकर उसके पुत्र बनकर आशीष पाएं, न कि मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले बनकर उन आशीषों को गँवा दें जो परमेश्वर हमें देना चाहता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 7-9
मत्ती 3
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The Lord’s Table - Check & Maintain Unity
In the previous article, from 1 Corinthians 11:17, we have seen that Paul through the Holy Spirit, starts addressing the errors which had crept into the Church. We saw that not only was Paul forthright about his doctrinal stand for the Lord and teaching His Word, but in correcting, he also shows a fatherly love and concern, tells them that their errors are causing harm to them; i.e., his correcting them is not to assert his authority over them, but to pull them out of harm’s way into which they had gone.
From verse 18 onwards Paul starts pointing out their errors to them. Their first error that he points out and confronts them about is their lack of unity. In fact, this was also their first error that he had pointed out to them right in the beginning of this letter (1 Corinthians 1:10-13). At the beginning of this letter, in 1 Corinthians 1:10, Paul pleads for unity amongst them. In other words, the first thing expected from them as Christian Believers is that when they gather together as the Church of the Lord Jesus and for partaking of the Holy Communion, they should be as one body in faith. Paul had already pointed out to them that their lack of unity, their having quarrels and contentions, is a sign of their being spiritually immature, carnal, and behaving like mere men (1 Corinthians 3:1-6).
As Paul has pointed out to the Corinthian Believers in 1 Corinthians 3:1-6, their lack of unity, was the cause of their not growing in their faith, they were still “babes in Christ”; therefore, Paul could not speak to them as spiritual people. Because they were spiritually immature, still “babes”, therefore, all he could teach them were the fundamental, very basic things about the Lord, the Christian Faith, and Christian living, since they were in no position to receive or grasp anything over and above that. Their life of strife and divisions as a Church was evidence of their being “carnal”, i.e., still more under the control of their fleshly desires, as the people of the world naturally are, than being desirous of spiritual living. A little above, he had pointed out to them the deleterious consequences of such tendency “But the natural man does not receive the things of the Spirit of God, for they are foolishness to him; nor can he know them, because they are spiritually discerned” (1 Corinthians 2:14). The implication is evident, if they were to grow in Faith and in the Lord, it could only be after getting out of their carnality, of which their strife and contentions were a consequence and evidence.
In the next verse, verse 19, Paul speaks to them about the cause for their lack of unity, which is again a reiteration of what he had already said to them in 1 Corinthians 1:12-13, and 3:4. The factionalism amongst them was the root cause for their lack of unity. This factionalism amongst them had come in because instead of all of them looking up to the Lord Jesus and following Him and Him alone, they had all started to individually follow their favorite elders and teachers, and broken up into factions in the name of those elders and teachers. This tendency, as Paul says in the second half of verse 19, was stoked up and further nurtured by certain members amongst them who wanted to have approval and recognition in the Church. And, such people could have their egos satisfied only by breaking up the Church into their individual groups and factions which would be under their sway and control. But what they did not realize was the harm this was causing to not only the Church as a unit, but also to the individual members who were caught up in this factionalism and living by it; for because of this they were losing out on their growth, maturity, spirituality, and blessings.
The same problem plagues the Church, the assemblies and gatherings of the Christian Believers even today, and in much the same manner - some people like to hold sway and control others, while people in general have the tendency of looking more towards certain people or their elders than Christ Jesus, of emulating their favorite teachers and preachers, than look to the Lord who empowers and uses those teachers and preachers amongst them. The net result is that the Church suffers, and the individual members suffer as well; neither the Church nor the individual members grow and mature spiritually. Therefore, everybody loses out in their eternal blessings, and Satan has an easy and comfortable time amongst them - all for the sake of a short time of temporal glory; whereas the Lord was wanting to give them a far greater eternal glory.
Before participating in the Lord’s Table, it is essential for each one of us to make sure that we are not the ones who are creating, or promoting, or in some manner even sustaining factionalism in the Church of the Lord Jesus Christ. Rather, wherever we see this tendency of creating or nurturing groupism, or any tendency of people developing and maintaining factionalism or mutual disharmony, instead of siding with one or the other in deference to that person or elder or teacher, we should ponder over, be forthright and confront the problem as well as the problem makers directly as Paul did, and fulfill what the Lord Jesus said, “Blessed are the peacemakers, For they shall be called sons of God” (Matthew 5:9) - it is far better to be seen as a “God-pleaser” and be blessed as a son of God, than to be seen as a man-pleaser and lose out on the blessings God wants to give us.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 7-9
Matthew 3
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