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अन्य प्राचीन सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के धार्मिक लेखों की तुलना में बाइबल - भाग - 1
कभी-कभी कुछ लोग यह बात उठाते हैं कि संसार की अन्य प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों की पुस्तकों में कुछ विषयों, जैसे कि अंतरिक्ष, ज्योतिष, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा विज्ञान, आध्यात्मिक और अलौकिक बातों, इत्यादि के बारे में बहुत ज्ञान मिलता है; तो उस ज्ञान की तुलना में बाइबल की क्या स्थिति है? बाइबल अन्य लोगों, सभ्यताओं, और संस्कृतियों के प्राचीन लेखों में उल्लेखित इन उपरोक्त विषयों के संबंध में पूर्णतः मूक भी नहीं है, वरन उनके विषय परमेश्वर के दृष्टिकोण को बताती है। बाइबल में सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रों और सितारों का उनके परमेश्वर द्वारा नियत उद्देश्यों और परमेश्वर की महिमा प्रगट करने के सन्दर्भ में (उत्पत्ति 1:14-18; अय्यूब 9:9; अय्यूब 38:31; भजन 19:1-2; भजन 104:19), और सितारों के द्वारा मार्गदर्शन (मत्ती 2:2) उल्लेख है, परन्तु बाइबल बिलकुल स्पष्ट रीति से इन आकाशीय वस्तुओं को कोई ईश्वरत्व प्रदान करने और इनकी उपासना करने का निषेध करती है (व्यवस्थाविवरण 4:19; 2राजाओं 23:4-5)। बाइबल स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए बचाव की विधियाँ और पृथक किए जाने के बाए में बताती है (लैव्यव्यवस्था 7:19; लैव्यव्यवस्था 11:24-39; लैव्यव्यवस्था 13; गिनती 19:11-16); और टोन्हों, महूर्तों, भूत-सिद्धि, तांत्रिकों आदि में जुड़ने के लिए मना करती है (लैव्यव्यवस्था 19:26, 31; व्यवस्थाविवरण 18:10-12)। परन्तु क्योंकि बाइबल इन बातों तथा ऐसी ही अन्य बातों के संबंध में किसी विस्तृत व्याख्या, चर्चा, अथवा स्पष्टीकरण में नहीं जाती है, इसलिए इसे, उन अन्य लेखों के बाइबल से श्रेष्ठ या उच्च होने का कारण और प्रमाण नहीं मान लेना चाहिए।
ऐसा इसलिए, क्योंकि बाइबल की विषय-वस्तु बिलकुल भिन्न तथा अनुपम है – उसे कभी भी नश्वर जगत, जिसका एक दिन नाश होकर अन्त जाएगा, से संबंधित ज्ञान की पुस्तक नहीं रखा गया। वरन, बाइबल, प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा मनुष्य जाति के परमेश्वर से मेल कराए जाने के विषय में है, क्योंकि मानव जाति, अपने पाप के कारण परमेश्वर से पृथक हो रखी है – और नश्वर जगत से संबंधित कैसा भी, कितना भी ज्ञान, किसी को भी पाप के अनंतकालीन विनाशकारी दुष्परिणामों से कभी भी नहीं बचा सकता है। ज़रा विचार कीजिए, इतनी विभिन्न प्रकार की बातों के विषय में इतना ज्ञान होते हुए भी, क्या संसार के किसी भी स्थान की वे प्राचीन सभ्यताएं और उनके ज्ञानी लोग अपने आप को या अपने समय के किसी एक भी व्यक्ति को उनके पाप और उसके दुष्परिणामों की समस्या से छुड़ा सके; पापों से बचने और उद्धार का मार्ग दे सके? कोई भी व्यक्ति पूर्व काल के या वर्तमान समय के ज्ञान में कितना भी गौरव या महिमा अनुभव कर ले, कठोर दुखदायी यथार्थ यही है कि कैसा भी नश्वर ज्ञान किसी को भी, कभी भी, पाप और उसके दुष्परिणामों की समस्या का समाधान नहीं प्रदान कर सकता है; और पाप में मरने वाले व्यक्ति का अनंतकालीन भविष्य बहुत ही अंधकारमय और दुखद है, क्योंकि उन्हें अनंतकाल के लिए नरक में रहना पड़ेगा, चाहे पृथ्वी पर उनके ज्ञान का स्तर कुछ भी क्यों न रहा हो। उन प्राचीन सभ्यातों और संस्कृतियों का सांसारिक और नाश्मान बातों का ज्ञान व्यक्ति को कभी प्रमाणित न हो सकने वाले जन्म-मरण के, तथा मरणोपरांत जीवन के काल्पनिक सिद्धांतों के चक्करों में उलझा तो सकता है, परन्तु व्यक्ति के निज पाप की समस्या के निवारण का कोई भी स्थाई, व्यवाहारिक और प्रमाणिक समाधान नहीं दे सकता है।
जैसा कि हम अगले लेख में देखेंगे, बाइबल के आरंभ से लेकर अंत तक, उसकी विषय-वस्तु और अंतर्वस्तु प्रभु यीशु मसीह, और केवल उन ही के द्वारा प्रदान की जा सकने वाले पापों से मुक्ति और उद्धार ही हैं, “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों 4:12)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
अगला लेख: बाइबल की विषय-वस्तु और उद्देश्य
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The Bible, in Comparison to the Religious Writings of Other Ancient Civilizations & Cultures - Part - 1
Sometimes people raise the point that the writings of the other ancient civilizations and cultures of the world have much knowledge regarding various things e.g. astronomy, astrology, health and medical sciences, supernatural and metaphysical activities etc. so how does the Bible compare to them and the knowledge found in them? The Bible is not silent about these things and does mention God’s point-of-view regarding the aforementioned things in the ancient writings of other people or cultures or civilizations of any place of the world. The Bible does mention the Sun, Moon, and stars and constellations for seasons, God’s set purposes and to declare the glory of God (Genesis 1:14-18; Job 9:9; Job 38:31; Psalms 19:1-2; Psalms 104:19), and the use of stars to navigate (Matthew 2:2); but it expressly forbids ascribing any divinity to or worshiping of the heavenly bodies (Deuteronomy 4:19; 2 Kings 23:4-5). The Bible speaks of quarantining and preventive measures for health and safety (Leviticus 7:19; Leviticus 11:24-39; Leviticus 13; Numbers 19:11-16); and denounces the practice of witchcraft, sorcery, indulging with spirits, divination and soothsaying (Leviticus 19:26, 31; Deuteronomy 18:10-12). But just because The Bible does not go into any great details, discourses or explanations about them and other such things, therefore this should not be construed as reason and evidence of those other writings being superior to The Bible.
This is because the theme of The Bible is entirely different and unique – it never was meant to be a book of knowledge regarding the temporal universe, which will one day perish and come to an end. Rather, the Bible is about reconciling mankind with God through coming to faith in the Lord Jesus Christ, since mankind is separated from God because of their sins – and no extent of any temporal knowledge of any kind can deliver any person from the eternal and disastrous consequences of their sins. Give it a thought, despite having all the knowledge that they had about so many different things, could any of the ancient civilizations of any place in the world and their knowledgeable people ever deliver themselves or their people from the problem of sin and its disastrous consequences; could they provide the way to be delivered form sins and of salvation? No matter how much one may pride and glory in the status of knowledge – past or present, the stark sad fact remains that no temporal knowledge of any kind can deliver any one from their sins and its consequences; and the eternal future of any one dying in sin is very bleak, since they are destined to be in hell for all eternity, no matter what the state of their knowledge on earth may be. The knowledge of those ancient civilizations and cultures about temporal and worldly things can confuse a person through imaginary doctrines related to life, after-life, and death, but can never provide any lasting, practical, and provable solution to the problem of personal sin of a person.
As we will see in the next article, the theme and content of the Bible, from the beginning to the end is the Lord Jesus Christ, and the deliverance from sins and the salvation that only He provides, “Nor is there salvation in any other, for there is no other name under heaven given among men by which we must be saved” (Acts 4:12).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued:
Next Article: The Theme and Purpose of the Bible
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