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मसीही विश्वास में पाप तथा पाप से मुक्ति (उद्धार या मोक्ष) - भाग 2
क्योंकि केवल प्रभु यीशु ही हैं जिन्होंने मानवजाति के पापों का स्थाई और उचित समाधान प्रदान किया है, इसलिए मनुष्यों के लिए उद्धार भी केवल प्रभु यीशु मसीह में हो कर ही है, किसी अन्य के द्वारा नहीं, “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों 4:12)। अब संसार के सभी मनुष्यों के लिए प्रभु यीशु द्वारा कलवारी के क्रूस पर किए गए कार्य के द्वारा उद्धार का मार्ग खुला है, और यह सभी के लिए मुफ्त में उपलब्ध भी है “पर जैसा अपराध की दशा है, वैसी अनुग्रह के वरदान की नहीं, क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध से बहुत लोग मरे, तो परमेश्वर का अनुग्रह और उसका जो दान एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के अनुग्रह से हुआ बहुतेरे लागों पर अवश्य ही अधिकाई से हुआ। और जैसा एक मनुष्य के पाप करने का फल हुआ, वैसा ही दान की दशा नहीं, क्योंकि एक ही के कारण दण्ड की आज्ञा का फैसला हुआ, परन्तु बहुतेरे अपराधों से ऐसा वरदान उत्पन्न हुआ, कि लोग धर्मी ठहरे। क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध के कारण मृत्यु ने उस एक ही के द्वारा राज्य किया, तो जो लोग अनुग्रह और धर्म रूपी वरदान बहुतायत से पाते हैं वे एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के द्वारा अवश्य ही अनन्त जीवन में राज्य करेंगे। इसलिये जैसा एक अपराध सब मनुष्यों के लिये दण्ड की आज्ञा का कारण हुआ, वैसा ही एक धर्म का काम भी सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ” (रोमियों 5:15-18)।
अब अपने पापों से क्षमा तथा उद्धार पाने के लिए किसी भी मनुष्य को प्रभु यीशु पर विश्वास करके, उनसे अपने पापों की क्षमा मांगकर अपना जीवन उन्हें समर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है “उन्होंने कहा, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर, तो तू और तेरा घराना उद्धार पाएगा” (प्रेरितों 16:31)। उद्धार हर किसी के लिए, वह चाहे किसी भी धर्म (चाहे वे इसाई धर्म का पालन करने वाले ही क्यों न हों), जाति, स्थान, रंग, शिक्षा, सांसारिक स्तर, या कुछ भी, कोई भी हो – केवल स्वयं पश्चाताप, अर्थात अपने पापी होने और पाप के दुष्परिणामों का सच्चे मन से एहसास करके, अपने पापों को स्वीकार करने, तथा स्वेच्छा से प्रभु यीशु से उन पापों के लिए क्षमा मांगने और उसे अपना जीवन समर्पित करने के द्वारा ही संभव है “पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे” (प्रेरितों 2:38), अन्यथा नहीं । उद्धार पाने या बचाए जाने को ही नया जन्म पाना भी कहते हैं – सांसारिक और नश्वर जीवन में से निकल कर आत्मिक और अविनाशी जीवन में जन्म ले लेना; और बिना नया जन्म पाए कोई भी स्वर्ग में न तो प्रवेश कर सकता है और न ही उसे देख भी सकता है “यीशु ने उसको उत्तर दिया; कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता। नीकुदेमुस ने उस से कहा, मनुष्य जब बूढ़ा हो गया, तो क्योंकर जन्म ले सकता है? क्या वह अपनी माता के गर्भ में दुसरी बार प्रवेश कर के जन्म ले सकता है? यीशु ने उत्तर दिया, कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं; जब तक कोई मनुष्य जल और आत्मा से न जन्मे तो वह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता” (यूहन्ना 3:3-5); “हे भाइयों, मैं यह कहता हूं कि मांस और लोहू परमेश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं हो सकते, और न विनाश अविनाशी का अधिकारी हो सकता है।” “क्योंकि अवश्य है, कि यह नाशमान देह अविनाश को पहिन ले, और यह मरनहार देह अमरता को पहिन ले। और जब यह नाशमान अविनाश को पहिन लेगा, और यह मरनहार अमरता को पहिन लेगा, तब वह वचन जो लिखा है, पूरा हो जाएगा, कि जय ने मृत्यु को निगल लिया” (1 कुरिन्थियों 15:50,53-54)। यह उद्धार अर्थात बचाया जाना या नया जन्म प्राप्त करना किसी धर्म का पालन करने से अथवा परिवार के अनुसार मिलने वाली, या उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाली, या वंशागत बात नहीं है; और न ही यह किन्हीं कर्मों को करने या कोई रीति-रिवाज़ पूरे करने अथवा परंपराओं या विधि-विधानों के निर्वाह द्वारा होता है, यह केवल परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा और विश्वास, केवल मसीह यीशु में विश्वास से ही संभव है “जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।) और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया। कि वह अपनी उस कृपा से जो मसीह यीशु में हम पर है, आने वाले समयों में अपने अनुग्रह का असीम धन दिखाए। क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:5-9)।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए स्वयं नया जन्म लेना होता है। जो भी प्रभु यीशु पर स्वेच्छा तथा सच्चे मन से विश्वास करके, उनसे अपने पापों के लिए स्वयं क्षमा मांगता है, अपना जीवन उन्हें समर्पित कर के, उनका शिष्य होकर, उनकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने की ठान लेता है, केवल वही पापों से क्षमा प्राप्त करके उनके दुष्परिणामों से बचाया जाता, अर्थात उद्धार पाता है, और परमेश्वर की संतान होने, तथा उसके साथ अनन्त काल के लिए स्वर्ग में रहने का आदर प्राप्त करता है “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)।
यही उद्धार, या बचाया जाना, या मोक्ष है - पापों से मुक्ति तथा मृत्यु, अर्थात पापों के कारण मिलने वाली नरक की अनन्त घोर पीड़ा, और परमेश्वर से सदा काल के लिए पृथक होने, से निकलकर प्रभ यीशु मसीह पर लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर के साथ अनन्त काल के परमानन्द के अनन्त जीवन में प्रवेश करना।
इसलिए उद्धार प्राप्त करने के लिए, परमेश्वर के एकमात्र सच्चे, अचूक और अटल, दोषरहित, और अपरिवर्तनीय वचन – बाइबल के अतिरिक्त किसी अन्य पर लेश-मात्र भी भरोसा न करें, और अपने अनन्तकाल को सुरक्षित कर लेने के लिए ऊपर दिए गए कदम को विश्वास के साथ उठाएं। यह करने से आपके पास खो देने के लिए सिवाय आपके पापों और नरक में अनन्तकाल के अतिरक्त और कुछ नहीं है, वरन आपके पास अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में पा लेने के लिए सब कुछ है। आप यह अभी इसी समय कर सकते हैं; आपको इसके लिए किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति अथवा सहायता की भी कोई आवश्यकता नहीं है। नया जन्म या उद्धार पाने के लिए आपको बस सच्चे समर्पित मन से, एक सीधी सी प्रार्थना करनी है, जो कुछ इस प्रकार से हो सकती है, “प्रभु यीशु मैं आप में तथा आपके द्वारा कलवरी के क्रूस पर मेरे पापों की कीमत चुकाए जाने में विश्वास करता हूँ। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, और मुझे स्वीकार कर लें। मैं अपना जीवन आपको पूर्णतः समर्पित करता हूँ। कृपया मेरी सहायता करें की मैं अपना जीवन आपकी तथा आपके वचन – बाइबल की आज्ञाकारिता में व्यतीत कर सकूँ।” बस इतना ही, कोई रीति-रिवाज़ नहीं, किसी प्रकार के कोई कर्म या कार्य नहीं, किसी व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार की कोई कृतज्ञता नहीं, बस सच्चे मन और खराई से, सामान्य विश्वास के द्वारा, प्रभु यीशु के साथ संबंध में आ जाना।
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Sin & Deliverance from Sins (Salvation) In the Christian Faith – Part - 2
Since it is only the Lord Jesus who has provided an everlasting and appropriate solution for the sin of mankind, therefore salvation for mankind is only through the Lord Jesus, no one else, “Nor is there salvation in any other, for there is no other name under heaven given among men by which we must be saved” (Acts 4:12). Now, the way of salvation by the work of the Lord Jesus on the Cross of Calvary is open for every person of the world, and is freely available for everyone, “But the free gift is not like the offense. For if by the one man's offense many died, much more the grace of God and the gift by the grace of the one Man, Jesus Christ, abounded to many. And the gift is not like that which came through the one who sinned. For the judgment which came from one offense resulted in condemnation, but the free gift which came from many offenses resulted in justification. For if by the one man's offense death reigned through the one, much more those who receive abundance of grace and of the gift of righteousness will reign in life through the One, Jesus Christ. Therefore, as through one man's offense judgment came to all men, resulting in condemnation, even so through one Man's righteous act the free gift came to all men, resulting in justification of life” (Romans 5:15-18).
Now to receive forgiveness from sins and salvation all that any person needs to do is to believe on the Lord Jesus, ask for His forgiveness for their sins from Him and surrender their life to Him; and nothing more, “So they said, "Believe on the Lord Jesus Christ, and you will be saved, you and your household" ” (Acts 16:31). For everyone, irrespective of their religion (including those born in families professing the christian religion), caste, place, color, education, worldly status, or any other criteria, Salvation is only possible by repentance, i.e. by coming to a heartfelt realization of their sinful status and it's eternal consequences, by acknowledging their sins and voluntarily asking the forgiveness for them from the Lord Jesus and submitting their lives to Him, with a sincere heart, “Then Peter said to them, "Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit” (Acts 2:38), otherwise not. To be saved is also known as to be Born Again – i.e. to be born out of the perishing worldly life into eternal spiritual life; and nobody can even see, let alone enter heaven, without being Born Again, “Jesus answered and said to him, "Most assuredly, I say to you, unless one is born again, he cannot see the kingdom of God." Nicodemus said to Him, "How can a man be born when he is old? Can he enter a second time into his mother's womb and be born?" Jesus answered, "Most assuredly, I say to you, unless one is born of water and the Spirit, he cannot enter the kingdom of God” (John 3:3-5); “Now this I say, brethren, that flesh and blood cannot inherit the kingdom of God; nor does corruption inherit incorruption. For this corruptible must put on incorruption, and this mortal must put on immortality. So when this corruptible has put on incorruption, and this mortal has put on immortality, then shall be brought to pass the saying that is written: "Death is swallowed up in victory." ” (1 Corinthians 15:50,53-54). This salvation or being Born Again or being saved is not something that is neither through living according to any religion, nor is it familial, neither is it inherited nor is it hereditary; nor is it possible by any kind of works oe efforts, nor through fulfilling any rituals, nor by observing and following any traditions or custom and manners, it is purely by the grace of God through faith and faith alone in Christ Jesus “even when we were dead in trespasses, made us alive together with Christ (by grace you have been saved), and raised us up together, and made us sit together in the heavenly places in Christ Jesus, that in the ages to come He might show the exceeding riches of His grace in His kindness toward us in Christ Jesus. For by grace you have been saved through faith, and that not of yourselves; it is the gift of God, not of works, lest anyone should boast” (Ephesians 2:5-9).
Every person has to be personally Born Again for their own sins. Whosoever believes on the Lord Jesus voluntarily and sincerely, and asks forgiveness for their own sin from Him, surrenders their life to Him, becomes His disciple, and commits to living a life of obedience to Him, only such a person receives forgiveness from sins and is saved from the eternal deleterious consequences of their sin, i.e. is saved, and receives the honor of being a child of God, and of living with Him in heaven for eternity “For the wages of sin is death, but the gift of God is eternal life in Christ Jesus our Lord” (Romans 6:23)।
This is salvation, or being saved – being delivered from sin and from death i.e. from the terrible and unimaginable pain of eternally suffering in hell, being separated from God forever, simply by believing on the Lord Jesus and thereby entering the eternal life of bliss with God.
So to be saved, do not rely on any thing or anyone else, except the one true, infallible, inerrant, and irrevocable Word of God - the Bible, and take that step of faith outlined above to secure your eternal destiny. By doing so, you have nothing to loose except your sins and eternity in hell, rather, you have everything to gain, for all eternity in heaven. You can do it right now, at this very moment; you do not need the presence or help of any other person to do this. All you need to do to be saved or Born Again is to pray with a sincere heart a simple, honest, and straightforward prayer, something like: "Lord Jesus I believe in you and that you have paid for my sins on the Cross of Calvary. Please forgive my sins, and accept me. I wholly surrender my life to you. Please help me to live a life committed to you and according to your Word - the Bible." That is all, no rituals, no works of any kind, no obligation to any person in any manner, but just entering into a sincere and heartfelt relationship with the Lord Jesus, through simple faith.
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