पवित्र आत्मा परीक्षाओं में हमारी सहायता करता है – 2
हम मसीही विश्वासी के परमेश्वर पवित्र आत्मा के प्रति योग्य भण्डारी होने का अध्ययन कर रहे हैं। जैसा प्रभु यीशु मसीह ने यूहन्ना 14:16 में कहा है, प्रभु के प्रत्येक शिष्य को पवित्र आत्मा प्रदान किया गया है, उसका सहायक, या, साथी होने के लिए। पिछले दो लेखों में हमने देखा था कि कुछ विश्वासियों में यह प्रवृत्ति होती है कि पवित्र आत्मा को उनके स्थान पर उनका काम करने के लिए उपयोग करें। विभिन्न बातों को आधार बनाकर वे परमेश्वर को उनके स्थान पर उनके कार्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कहें। हमने देखा था कि बाइबल के अनुसार यह सर्वथा गलत धारणा है, जिसका परमेश्वर के वचन में कोई समर्थन नहीं है। साथ ही, परमेश्वर के वचन में ऐसा कहीं कोई उदाहरण नहीं है कि परमेश्वर ने किसी व्यक्ति से उसके कार्य को लेकर उसके स्थान पर उस कार्य को पूरा कर दिया हो, चाहे उस व्यक्ति की परिस्थिति कितनी भी कठिन क्यों न रही हो। और इसलिए ऐसी सारी प्रार्थनाएँ हमेशा ही अनुत्तरित ही रहेंगी, क्योंकि उनका आधार ही अनुचित है। आज हम परमेश्वर पर ज़िम्मेदारी डाल कर उस से कार्य को करने के लिए कहने से सम्बन्धित एक अनकहे और उपेक्षित तथ्य को देखेंगे।
ज़रा विचार कीजिए, जो कमजोरियाँ और समस्याएँ, अनुशासनहीनता, जो पाप, विश्वासी कहते हैं कि वे उन पर जयवंत होने में असमर्थ हैं, और इसलिए चाहते हैं कि परमेश्वर उनके स्थान पर उनके लिए कुछ कर के दे, वे बहुधा या सामान्यतः हृदय या मन-मस्तिष्क की बातें कहे जा सकते हैं। अर्थात, निराकार या बाहर से दिखाई न देने वाले, या मन के अन्दर की बातों से सम्बन्धित पाप; जैसे कि, पापमय विचार, स्वयं पर नियन्त्रण न रख पाना, अनुशासनहीनता, साँसारिक लालसाओं, आनन्द, और विलास की बातों में बारंबार गिरते रहना, दोगलापन, द्वेष, अहंकार, क्रोध, सच्चे मन से क्षमा नहीं करने की प्रवृत्ति, एक कमज़ोर आत्मिक एवं प्रार्थना का जीवन होना, आदि। लेकिन बहुत ही कम ऐसा होता है कि मसीही विश्वासी किसी भौतिक या शारीरिक, अर्थात साकार या प्रकट दिखने वाली बात के लिए, जैसे कि गाली-गलौज़ करते रहना, लुचपन की बातों में संलग्न होना, चोरी या असामाजिक कार्यों में होना, या किसी अनुचित, व्यभिचारी, अथवा अनैतिक व्यवहार, आदि में पड़े होने के लिए ऐसा कहता है; अर्थात उन बातों में जिन्हें अन्य लोग अथवा विश्वासी देख सकते हैं और उसकी आलोचना कर सकते हैं। उनके द्वारा ऐसी सभी गलत या अनुचित गतिविधियाँ यत्न के साथ नियन्त्रण में तथा ढाँप कर रखी जाती हैं। लेकिन जो मन-मस्तिष्क में चल रहा होता है, क्योंकि वह औरों पर सरलता से प्रकट नहीं होता है, इसलिए जीवन में स्थान भी बनाए रखता है। यद्यपि विश्वासी जानता है कि यह सब बातें अन्दर रखना गलत है, किन्तु फिर भी वे अपने जीवन में उनकी उपस्थिति से संघर्ष करते रहते हैं।
अब, यदि विश्वासी प्रकट और शारीरिक गलत व्यवहार पर नियंत्रण रख लेता है, उस पर जयवंत होने पाता है, तो फिर वह अप्रत्यक्ष बातों और अनुचित विचारों आदि पर, अपने अन्दर की पापमय आदतों, और हृदय, मन-मस्तिष्क की गलत बातों पर, उसी तरह से नियंत्रण क्यों नहीं रखने पाता, उन पर जयवंत क्यों नहीं होने पाता है? जब कि, जैसा प्रभु यीशु मसीह ने मरकुस 7:21-23 में कहा है, ये दोनों ही प्रकार के पाप, शारीरिक और मानसिक, एक ही स्थान से, मनुष्य के हृदय से, निकलते हैं। तो फिर ऐसा क्यों है कि ये विश्वासी कुछ को, अर्थात बाहर प्रकट दिखने वालों को नियंत्रित रख सकते हैं, किन्तु कुछ को, अर्थात, अन्दर छिपी हुई बातों को नियंत्रित नहीं रख सकते हैं, उनमें गिरते रहते हैं? परमेश्वर हमें आज्ञा देता है कि हम शरीर और आत्मा, अर्थात बाहरी और भीतरी, दोनों प्रकार की मलिनता से अपने आप को स्वच्छ करें “सो हे प्यारो जब कि ये प्रतिज्ञाएं हमें मिली हैं, तो आओ, हम अपने आप को शरीर और आत्मा की सब मलिनता से शुद्ध करें, और परमेश्वर का भय रखते हुए पवित्रता को सिद्ध करें” (2 कुरिन्थियों 7:1)। हमने पिछले लेखों में जो देखा है, उसके सन्दर्भ में, यदि ऐसा कर पाना उसके बच्चों के लिए संभव नहीं होता, तो क्या परमेश्वर उन से ऐसा करने के लिए कहता? अर्थात, क्योंकि यह संभव है, इसीलिए परमेश्वर ने विश्वासियों से यह करने के लिए भी कहा है।
वास्तविकता यही है कि परमेश्वर ने हमें बताया है कि यह कैसे किया जा सकता है – परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी बने रहने के द्वारा। किन्तु ये विश्वासी प्रभु के इन निर्देशों का पालन नहीं करते हैं। उनका अहम् में होकर, या अहंकारी होकर, सच्चे मन से क्षमा न करने वाला, कठोर हृदय रखने वाला हो कर कार्य करना आदि बातें, उन्हें परमेश्वर के वचन का आज्ञाकारी होने से रोके रखती हैं, वे बाहर से चाहे जितने भी विनम्र और भक्त क्यों न दिखाई दें। इसीलिए, वे जिसका प्रचार करते हैं, बजाए उसका निर्वाह भी करने के, बजाए वास्तव में सच्चे मन से विनम्र, क्षमा करने वाला, और परमेश्वर का आज्ञाकारी होने के, वे सरल किन्तु बाइबल के विपरीत मार्ग को चुन लेते हैं, कि परमेश्वर उनके लिए उनकी समस्याओं का समाधान कर दे, और यही प्रार्थना करते रहते हैं। हो सकता है कि ये विश्वासी अपनी प्रार्थनाओं में अपनी कमजोरियों का सार्वजनिक अंगीकार भी कर लें, जिस से वे अपने श्रोताओं को बहुत विनम्र, भक्त, और परमेश्वर का भय रखने वाला प्रतीत होते हैं; किन्तु फिर भी उनके जीवनों से उनकी वे समस्याएँ कभी जाती नहीं हैं; इतनी और इन सभी प्रार्थनाओं के, और कमजोरियों के अंगीकार के बावजूद, जिन्हें वे हर अवसर पर दोहराते रहते हैं। इससे भी अधिक दुखद बात यह है कि वे औरों को भी यही गलती करना सिखाते रहते हैं। विडंबना यह है कि वे जानते हैं कि उनके जीवनों में इस तरीके ने कोई काम नहीं किया है, लेकिन फिर भी वे औरों को उसी गलती को करना बताते और सिखाते है, और श्रोता भी उसे स्वीकार कर के वैसा ही करते हैं, और फिर उनके जीवनों में भी वैसी ही असफल प्रार्थनाएँ दिखाई देती हैं। इस असफलता का ज़िम्मेदार बहुधा या तो विश्वास की कमज़ोरी होने को ठहरा दिया जाता है, अथवा परमेश्वर के उपयुक्त समय और तरीके से उत्तर मिलने की प्रतीक्षा करने पर टाल दिया जाता है। लेकिन कभी कोई भी
परमेश्वर के निर्देशों का पालन न करने की अपनी गलती को स्वीकार कर के उसे सुधारता नहीं है।
अगले लेख में हम इसी बात पर और आगे देखेंगे, और इस स्थिति का एक संभव समाधान समझेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Holy Spirit Helps in Our Tests – 2
We are studying a Christian Believer’s stewardship of God the Holy Spirit, who has been given to every disciple of the Lord Jesus to be their Helper, or, Companion, as promised by the Lord Jesus in John 14:16. In the previous two articles we have seen how some Believer’s have a tendency of trying to use the Holy Spirit as their substitute, asking God to do their works, to fulfil their responsibilities, instead of them, on various grounds. We have also seen how, Biblically speaking, this is a wrong notion that has no support from God’s Word. Moreover, there is no example in God’s Word of God ever having taken over from someone to fulfil their work and responsibilities, no matter how difficult the situation may have been for that person. And therefore, all such prayers will always remain unanswered, since their very basis is incorrect. Today we will see an unspoken and unacknowledged fact about having this tendency of passing the responsibility to God and asking Him to do the work instead.
Think it over, the weaknesses and problems, the undisciplined life, the sins that the Believers say that they are unable to overcome, and therefore want God to do something about it for them, are usually what can be called as problems or sins in the heart or mind, i.e., about non-tangible, or, non-visible things. These can be sinful thoughts, lack of self-control, indiscipline, tendency to keep falling for worldly desires and pleasures, hypocrisy, jealousy, egoism, anger, being non-forgiving, having a poor prayer or spiritual life, etc. But it hardly ever is something physical, i.e., visible or tangible, e.g., using abusive language, being involved in lewd conversations, indulging in things like robbery, unsocial behavior, or stealing from others, or maintaining some kind of inappropriate, adulterous, or lustful behavior etc. In other words, things that other people and other Believers can readily see and criticize the person for. All such activities are carefully and diligently controlled and kept under wraps. But what goes on in the heart and mind, since it is not readily apparent to others, continues to find a place in life. Even though the Believer knows that it is wrong to have these things in them, yet they continue to struggle with their presence in their lives.
Now, if the Believers can get over and control their visible and physical wrong behavior, why is it that they are they not able to similarly take care of the non-tangible, non-visible things, their inappropriate thoughts, their internal sinful habits, the wrong things in their minds or hearts, etc.? As the Lord Jesus has said, the physical as well as the non-physical sins, they both come from the same place within man, from his heart Mark 7:21-23? So, why is it that they are able to control some, i.e., the externally manifest, and unable to control the others, i.e., the internally hidden? God commands us to cleanse ourselves of filthiness of both the flesh as well as the spirit, i.e., the external as well as the internal, “Therefore, having these promises, beloved, let us cleanse ourselves from all filthiness of the flesh and spirit, perfecting holiness in the fear of God” (2 Corinthians 7:1). In light of what we have seen in the preceding articles, would God have said this, that we cleanse ourselves, if it was not feasible for His children to do it? In other words, since it is possible, that is why God has asked His children to do it.
In fact, the Lord has told us how to do it – by being obedient to God’s Word. But these Believers do not follow the Lord’ instructions. Their being egoistic, being unforgiving, being hard-hearted, etc., all keep them obeying God’s Word, no matter how pious and humble they may appear from the outside. So, instead of practicing what they often preach, instead of actually being humble, forgiving, and obedient to God, they take the easy but unBiblical way out of asking God to solve their problem for them. They may even acknowledge their shortcomings publicly in their prayers, that make them appear very humble, pious and God-fearing to their audience. But those problems never go away from their lives despite all these prayers and acknowledgements, which they keep repeating time and again at every opportunity. The even sadder part is that they also teach others to do the same. Ironically, they know that it has not worked in their lives, yet they preach and teach it for others to do the same, and many in the audience accept and do the same, with the same results. This failure is often attributed to either a weakness of faith in asking, or to waiting for God’s appropriate time and method of answering the prayers, but never to their own shortcoming of following God’s instructions; and no amends are made for this shortcoming.
In the next article we will continue to look into this and see a possible solution to this situation.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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