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पवित्र आत्मा से सीखना – 12
प्रत्येक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को परमेश्वर के द्वारा कुछ सँसाधन दिए गए हैं, और वह उन संसाधनों का भण्डारी है, अपने मसीही जीवन और सेवकाई में उनके सही उपयोग के लिए परमेश्वर को जवाबदेह है। उन सँसाधनों में से एक है परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो उसे उसके उद्धार के पल से ही दे दिया जाता है, कि उस में निवास करे, उसका सहायक, साथी, शिक्षक और मार्गदर्शक हो। परमेश्वर पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों को परमेश्वर का वचन भी सिखाता है, यदि वे मनुष्यों की बजाए, उस से सीखने के लिए तैयार हों। पिछले लेखों में हमने उन कारणों को देखा था जिनके कारण विश्वासी परमेश्वर के वचन को परमेश्वर की बजाए मनुष्यों से सीखना चुनते हैं; और देखा था कि कैसे यह उन्हें झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों में फँसने के जोखिम में डाल देता है। अब हम 1 पतरस 2:1-2 से देख रहे हैं कि मसीही विश्वासी किस प्रकार से परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीख सकता है।
हमने देखा है कि विश्वासी को पहले साँसारिक मानसिकता से बाहर निकलना है, शारीरिक प्रवृत्तियों को त्यागना है। फिर, विश्वासी को अपने में वचन के निर्मल दूध की वास्तविक लालसा, एक तीव्र उत्कंठा उत्पन्न करनी है; तथा परमेश्वर के वचन के नाम पर उसे कुछ भी परोस दिया जाए उस पर अँध-विश्वास नहीं करना है। जब विश्वासी सच्चे मन से परमेश्वर से माँगता है और उस पर भरोसा करता है कि उसे निर्मल और मिलावटी, सही और गलत, की पहचान दे, जब वह यह आदत बना लेता है कि किसी के भी द्वारा कही या प्रचार की गई या सिखाई गई कोई भी बात को ग्रहण करने तथा स्वीकार करने से पहले उसे वचन से जाँच-परख कर देखेगा, और जब वह बाइबल से बाहर की हर बात के लिए प्रश्न करने और उसका तिरस्कार करने (1 थिस्सलुनीकियों 5:21) का साहस दिखाएगा, तब परमेश्वर पवित्र आत्मा भी उसे सब सत्य का मार्ग बताएगा (यूहन्ना 16:13) और उसमें बढ़ने में उसकी सहायता तथा मार्गदर्शन करेगा, तथा उसे असत्यों से सुरक्षित रखेगा, क्योंकि पवित्र आत्मा का यह भी एक काम है। आज हम इससे आगे देखेंगे और 1 पतरस 2:2 में से “...निर्मल आत्मिक दूध की लालसा करो...” पर और आगे विचार करेंगे।
विश्वासी के अन्दर यह लालसा, यह तीव्र उत्कण्ठा किसी भी, कैसे भी “दूध” के लिए नहीं होनी चाहिए, किन्तु जैसे पतरस ने यहाँ पर लिखा है, केवल “निर्मल दूध” ही के लिए होनी चाहिए। विश्वासियों को कभी इस तथ्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि शैतान को भी परमेश्वर का वचन आता है, और वह उसके दुरुपयोग के द्वारा लोगों को बहकाना और भरमाना भी जानता है। यहाँ तक कि उसने वचन का अनुचित हवाला और अर्थ देने के द्वारा, उसकी परीक्षाओं के समय में, प्रभु को भी बहकाने और भरमाने का प्रयास किया (मत्ती 4:1-11; लूका 4:1-13)। इसी प्रकार से शैतान के दूत भी विश्वासियों को बहका और भरमा सकते हैं, तथा ऐसा करते भी हैं, अपने आप को झूठे प्रेरित और छल से मसीह का काम करने वाले प्रचारक दिखा कर (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। लेकिन एक बात जो शैतान और दूत कभी नहीं करेंगे, वह है परमेश्वर के वचन को उसकी सम्पूर्णता में पूरे सत्य में प्रस्तुत करें; उसे, जैसा वह है, उसका जो अर्थ होना चाहिए, और जिस उद्देश्य के लिए वह दिया गया है, उस रीति से प्रस्तुत करें; क्योंकि ऐसा करने से उनका उद्देश्य ही असफल हो जाएगा। शैतान जानता है कि मनुष्य की समझ और बुद्धि के अनुसार की बातों को वचन में मिलाने से वह अप्रभावी हो जाता है (1 कुरिन्थियों 1:17)। इसीलिए वह मनुष्य द्वारा, उसकी अपनी समझ और बुद्धि के अनुसार वचन की शिक्षाओं में मिलावट करवाने के द्वारा, परमेश्वर के वचन की निर्मलता को भ्रष्ट करवाता है। शैतान यह दो तरीकों से करता है – पहला, जान-बूझकर, अपने लोगों के द्वारा जो अपने आप को प्रेरित और प्रभु के सेवक प्रस्तुत करते हैं; और दूसरा, अनजाने में, परमेश्वर के समर्पित प्रतिबद्ध विश्वासियों को बहका कर उन से बाइबल की बातों पर बाइबल से बाहर की रीति के अभिप्रायों के साथ विश्वास करवाता है, फिर उन बातों को औरों पर प्रकट करवाता है, फिर औरों के मानने के लिए उनका प्रचार करवाता उनकी शिक्षा दिलवाता है।
पहले वाले, जान-बूझकर करने के लिए, शैतान के दूत सामान्यतः जो करते हैं, वे परमेश्वर के वचन के अधिकाँश भागों को उसी तरह से प्रस्तुत करते हैं जैसे वे पवित्र शास्त्र में हैं, किन्तु चुपके से उनमें कुछ गलत या बाइबल के बाहर की बातों को मिला देते हैं, और लोग भोलेपन में उस को उसकी सम्पूर्णता में परमेश्वर का सत्य समझकर स्वीकार कर लेते हैं। दूसरे, अनजाने में किये जाने वाले के लिए, शैतान किसी ख्याति प्राप्त और आदरणीय प्रतिबद्ध विश्वासी के द्वारा गलत शिक्षाओं को उत्पन्न करने और सिखाने वाला बना देता है; और श्रोता जो उस परमेश्वर के जन पर पूरा भरोसा रखते हैं, उसकी हर बात मानते हैं, वे उस पर अँध-विश्वास कर के इन गलत शिक्षाओं को भी स्वीकार कर लेते हैं, और परमेश्वर की उस सँतान के साथ उसके श्रोता भी गलतियों में डाल दिए जाते हैं। कोई भी समर्पित प्रतिबद्ध विश्वासी किसी भी प्रकार के घमण्ड में पड़ने, उसे मिलने वाली प्रशंसा में बहक जाने, बाइबल की बातों के प्रति लापरवाह हो जाने, या अपने आत्मिक जीवन के प्रति निश्चिंत होकर बातों को हलके में लेने के प्रवृत्ति में पड़ने, आदि के द्वारा गलतियों में डाला जा सकता है। कहीं पर भी, कभी भी, कोई भी कमजोरी, और शैतान अवसर को नहीं चूकता है, उसमें चुपके से चला आता है और उसके जीवन में गलत धारणाओं के बीज बो देता है। फिर, कुछ समय के बाद और उपयुक्त अवसर पर उन बीजों की फसल, उस निश्चिंत विश्वासी के द्वारा, उसके प्रचार और शिक्षाओं के माध्यम से, औरों के जीवनों में भी बो दी जाती है। सारे समय वह विश्वासी और अन्य लोग यही समझते और मानते रहते हैं कि वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं और परमेश्वर के वचन का प्रचार कर रहे हैं सही वचन को ही सिखा रहे हैं; जब कि वास्तव में वे बहकाए और भरमाए गए हैं और परमेश्वर के सत्य के नाम पर झूठी शिक्षाओं पर विश्वास कर रहे हैं, उन्हें ही का प्रचार कर रहे हैं और सिखा रहे हैं।
हम अगले लेख में इसके बारे में और आगे देखेंगे; किन्तु चाहे जान-बूझकर किया गया हो, अथवा अनजाने में, परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग को रोकने और सुधारने का एक ही उपाय है – मनुष्यों के ज्ञान पर निर्भर रहने की बजाए परमेश्वर की सामर्थ्य पर भरोसा रखें (1 कुरिन्थियों 2:5)। दूसरे शब्दों में पहले हर बात को परमेश्वर के वचन से जाँच-परख लें, उसकी पुष्टि कर लें, उसके बाद ही उसे स्वीकार करें; चाहे प्रचार करने और सिखाने वाला कोई भी हो, और बात को कितनी भी आकर्षक तथा तर्कपूर्ण रीति से प्रस्तुत क्यों न किया हो।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 12
Every Born-Again Christian Believer has received some provisions from God, and he is a steward of those provisions, accountable to God for their proper utilization in his Christian life and ministry. One of these is God the Holy Spirit who has been given to him from the moment of his salvation, to reside in him, and be his Helper, Companion, Teacher, and Guide. The Holy Spirit teaches God’s Word, the Bible to the Christians Believers, provided they are willing to learn from Him, rather than from men. In the previous articles we have seen the reasons why the Believers choose to learn God’s Word from men, rather than God; and how this makes them prone to falling into false teachings and wrong doctrines. We are now seeing through 1 Peter 2:1-2 how the Believer can learn from God the Holy Spirit.
We have seen that the Believer first needs to get out of the worldly mentality and get rid of worldly behavior of the flesh. Next, the Believer has to develop and maintain a sincere desire, an intense craving, for the pure milk of the Word of God; and not be willing to blindly accept just anything served to him as the Word of God. When the Believer sincerely asks for and trusts God to give him the discernment between the pure and the impure, between the correct and the incorrect, when he makes it a habit to cross-check everything from the Word of God before accepting anything preached and taught by anybody, when he is willing to accept only the Biblical truth and when he is bold to not only question anything unBiblcal but also reject it (1 Thessalonians 5:21), God the Holy Spirit will also help and guide him into all truth (John 16:13) and keep him safe from the untruths, since that is what the Holy Spirit is there for. Today, we will carry on from here and further ponder over, “…desire the pure milk of the word…” from 1 Peter 2:2.
The longing, the intense craving in a child of God has to be not just for any “milk,” but as Peter says here, only for the “pure” milk. The Believers should never overlook the fact that even Satan knows God’s word, and knows how to misuse it to beguile people। So much so, that he did not hesitate to try and mislead the Lord by misquoting and misapplying God’s Word even to Him, in His temptations (Matthew 4:1-11; Luke 4:1-13). Similarly, Satan’s messengers and followers can, and do lead the Believers astray by presenting themselves as apostles and deceitful preachers of Christ (2 Corinthians 11:3, 13-15). But the one thing that Satan and his messengers will never do is present God’s Word in its truth in its entirety; present it as it is, in the sense as it ought to be, for the purpose it is meant to be; since doing this will defeat their very purpose. Satan knows that mixing things of man’s understanding and wisdom can render the message of God’s Word ineffective (1 Corinthians 1:17). Therefore, he gets man to adulterate God’s Word through inserting teachings from his own understanding and wisdom into it. Satan gets this done in two ways – firstly, deliberately, through his own people presenting themselves as apostles and workers of the Lord; and secondly, inadvertently, by misleading even the committed Believers into believing, propounding, preaching, and teaching Biblical things in an unBiblical manner.
For the first, the deliberate manner, what the agents of Satan usually do is, they present significant portions of God’s Word, as they are given in the Scriptures, to give their message an appearance of being truthful and Biblical, but subtly mix a few unBiblical things or untruths into it, and the gullible audience will swallow it all, thinking it is God’s truth. For the second, the inadvertent misuse and misleading, Satan gets a well known and respected, committed Believer to think of, preach, and teach erroneous things. And the audience who fully trust and believe in everything that man of God says, also blindly accept these erroneous teachings, and along with that God’s child they too are misled into errors. A committed Believer can be misled either due to pride, or complacency about Biblical things, or by getting carried away by the adulation he receives, or by taking things for granted in his spiritual life, etc. Any weakness, anywhere, at any time, and Satan does not miss the opportunity of subtly creeping in and sowing the seeds of erroneous beliefs in that person’s life. Then, after sometime and in an appropriate season, the fruits of those seeds are transferred by that unsuspecting child of God into other’s lives as well through his preaching and teachings. All the time he and others keep thinking and believing that they are serving God, are preaching, and teaching God’s Word; but actually, they have been beguiled into believing, preaching, and teaching false things as God’s truth.
We will look further into this in the next article, but whether for the deliberate, or for the inadvertent misuse of God’s Word, the prevention and cure is the same – not to rely on the wisdom of men, but on the power of God (1 Corinthians 2:5). In other words, to always cross-check and verify everything from God’s Word before accepting it, no matter who it is who has preached and taught it, and no matter how appealing and logical it may appear.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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