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पवित्र आत्मा से सीखना – 11
परमेश्वर के पवित्र आत्मा के भण्डारी होने के नाते, जो हमेशा उनमें बना रहता है और उन्हें परमेश्वर के द्वारा उनके उद्धार पाने के क्षण से ही दे दिया गया है, नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को अपना मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह करने के लिए योग्य रीति से उसकी सहायता और मार्गदर्शन का उपयोग करना चाहिए। उसके बारे में जैसा बाइबल में नहीं दिया गया है, उस रीति से और उन बातों के लिए उसका उपयोग करना, एक अयोग्य भण्डारी होना है, जो कभी सफल नहीं होगा। इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसके बारे में बाइबल में से सीखना चाहिए। परमेश्वर पवित्र आत्मा को विश्वासियों को उनका शिक्षक होने के लिए भी दिया गया है, कि उन्हें परमेश्वर का वचन बाइबल सिखाए। यद्यपि पवित्र आत्मा प्रत्येक विश्वासी को परमेश्वर का वचन सिखाना चाहता है, लेकिन सामान्यतः विश्वासी उस से सीखना नहीं चाहते हैं, बल्कि मनुष्यों से सीखने पर निर्भर रहना चाहते हैं। पिछले लेखों में हमने उन कारणों के देखा है कि क्यों विश्वासी असिद्ध, गलती करने वाले मनुष्यों से सीखने और झूठी शिक्षाओं तथा गलत सिद्धांतों में पड़ने का जोखिम उठाते हैं, बजाए सिद्ध और अचूक परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीखने के।
पिछले लेख में हमने देखना आरंभ किया था कि विश्वासी पवित्र आत्मा से कैसे सीख सकता है। हमने 1 पतरस 2:1-2 से देखा था कि इसके लिए जो पहला काम विश्वासी को करना है, वह है अपने हृदय को पवित्र आत्मा के रहने और काम करने के लिए योग्य स्थान बनाना, साँसारिक रवैये और व्यवहार को अपने अन्दर से निकालने के द्वारा। हमने यह भी देखा था कि विश्वासी को स्वयं ही यह काम करना है, न कि इसे पवित्र आत्मा पर डालकर उसे अपने स्थान पर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए लगाने का प्रयास करना है। उनका सहायक और मार्गदर्शक होने के नाते पवित्र आत्मा इस में उनकी सहायता करेगा, उन्हें दिखाएगा, उन्हें सिखाएगा कि यह कैसे करना है, लेकिन उनके स्थान पर उनके लिए कर के नहीं देगा।
फिर जो दूसरा काम करना है, जैसा 1 पतरस 2:1-2 में दिया गया है, विश्वासी को “नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक दूध की लालसा” करनी है, क्योंकि उसकी बढ़ोतरी इसी पर निर्भर है। पतरस ने यहाँ पर कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें कहीं हैं, ऐसी बातें जिन पर विश्वासियों को मनन करना चाहिए, ताकि परमेश्वर से परमेश्वर के वचन को सीख सकें।
पहली बात है कि मसीही विश्वासी में निहित एक स्वाभाविक लालसा होनी चाहिए कि केवल परमेश्वर के वचन का निर्मल आत्मिक दूध ही ग्रहण करे, और कुछ नहीं। मूल यूनानी भाषा में जिस शब्द का उपयोग किया गया, जिसे लालसा अनुवाद किया गया है, उसका अर्थ होता है एक तीव्र लालसा, किसी बात पर हक जता कर उसे अपनाए रखना। पवित्र आत्मा ने यहाँ पर पतरस के द्वारा जो कहा है कि वे चाहे नए जन्मे हुए शिशु ही हैं, किन्तु विश्वासियों के अंदर एक तीव्र लालसा होनी चाहिए, उन्हें पूरे मन से केवल वह जो निर्मल आत्मिक दूध है, उसी की उत्कंठा होनी चाहिए। उन्हें जो कुछ भी ‘परमेश्वर के वचन का दूध’ के नाम पर परोस दिया जाता है, उसे ग्रहण कर लेने और उस से संतुष्ट हो जाने वाला नहीं होना चाहिए, लेकिन उन में एक समझ-बूझ होनी चाहिए, सही और गलत या उचित अथवा अनुचित की पहचान करने की भी चाह होनी चाहिए। अब एक नए नया-जन्म पाए हुए विश्वासी के लिए यह कर पाना असंभव कार्य प्रतीत होता है। वह जिसे परमेश्वर के वचन के बारे में बहुत ही कम पता है, वह यह कैसे समझने पाएगा कि उसे जो दिया जा रहा है वह परमेश्वर के वचन का “निर्मल आत्मिक दूध” है अथवा कुछ और, कोई मिलावट की हुई वस्तु?
यहीं पर पवित्र आत्मा का योग्य भण्डारी होना, अर्थात पवित्र आत्मा से सही सहायता और मार्गदर्शन प्राप्त करना आ जाता है। प्रभु यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में, मत्ती 7:7 में कहा है, “मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूंढ़ो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा।” प्रभु ने यह बात अपनी पृथ्वी की सेवकाई के आरंभिक चरण में अपने उन अनुयायियों से कही थी जो सामान्यतः अनपढ़, और साधारण लोग थे। प्रभु उन्हें सिखा रहा था कि परमेश्वर में उनका विश्वास और परमेश्वर के प्रावधान, जब साथ मिल जाएंगे, तो उनके लिए अद्भुत काम करेंगे; किन्तु उन्हें परमेश्वर से माँगने के लिए साहस करना पड़ेगा। विश्वासी बहुधा इस पद को तब माँगते और उपयोग करते हैं जब उन्हें परमेश्वर से कुछ भौतिक वस्तुएँ चाहिए होती हैं। किन्तु कितने हैं जो इस पद को परमेश्वर से उसका वचन सीखने के लिए माँगते और उपयोग करते हैं? कितने हैं जो जब वे परमेश्वर के वचन को पढ़ या अध्ययन कर रहे होते हैं, या किसी भी प्रचारक अथवा शिक्षक से कोई संदेश को सुन रहे होते हैं तब परमेश्वर से यह माँगते हैं कि उन्हें झूठी शिक्षाओं, गलत सिद्धान्तों, और मनुष्यों की बुद्धि तथा समझ की बातों से बचाए रखे?
विश्वासी द्वारा सच्चे मन से इस लालसा को व्यक्त करना, और परमेश्वर से सही-गलत की पहचान करने और बहकाए जाने से बचाए रखने के लिए उसकी सहायता और मार्गदर्शन माँगने से, उनका दृष्टिकोण मौलिक रूप से बदल जाएगा, और उन में परमेश्वर के वचन को सीखने के लिए सही -गलत की समझ-बूझ आ जाएगी। साथ ही उन्हें इसके साथ परमेश्वर के वचन के आधार पर बातों को जाँचने-परखने वाला (1 थिस्सलुनीकियों 5:21) भी बनना चाहिए, और किसी से भी कुछ भी ग्रहण कर लेने से पहले बेरिया के विश्वासियों के समान करना चाहिए (प्रेरितों 17:11)। बेरिया के ये विश्वासी परमेश्वर के वचन के कोई बहुत बड़े विद्वान नहीं थे। ध्यान कीजिए, यह पहली कलीसिया का समय था, नए नियम की सभी पुस्तकें और पत्रियाँ अभी लिखे भी नहीं गए थे, मसीही शिक्षाएँ मुख्यतः मौखिक ही होती थीं, लेकिन फिर भी बेरिया के विश्वासियों ने पवित्र शास्त्र से उसे जाँच-परख कर देखा, जो पौलुस उन्हें मसीह के बारे में पवित्र शास्त्र में से बता रहा था, उसकी पुष्टि करने के लिए कि पौलुस सही कह रहा था या नहीं।
यही वह लालसा, वह उत्कंठा है जिसे मसीही विश्वासी को परमेश्वर के वचन को पढ़ते, अध्ययन करते, या सुनते समय दिखानी चाहिए; कि सही और गलत की पहचान करने में उनकी सहायता और मार्गदर्शन किया जाए। जो लोग सच्चे मन से, सार्थक रीति से यह माँगते हैं, परमेश्वर पवित्र आत्मा उन्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा (यूहन्ना 16:13), और इस तरह से उन्हें सभी झूठी शिक्षाओं, गलत सिद्धान्तों, और उनके द्वारा होने वाली हानि से बचाए रखेगा। हम अगले लेख में यही से आगे देखना आरंभ करेंगे, तथा 1 पतरस 2:1-2 में पवित्र आत्मा से परमेश्वर के वचन को सीखने से संबंधित लिखी अन्य बातों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 11
As stewards of God’s Holy Spirit, who resides in them always and has been given to them at the very moment of their salvation by God, the Born-Again Christian Believers are to worthily utilize His help and guidance to live their Christian lives and fulfil their God assigned ministry. Wanting to use the Holy Spirit in ways and for things not given about Him in the Bible, is being an unworthy steward, and will never succeed. Therefore, every Christian Believer should learn about Him from the Bible. God the Holy Spirit has also been given to be the Teacher of Christian Believers, to teach God’s Word the Bible to them. Though the Holy Spirit wants to teach every Believer, but usually the Believers do not want to learn from Him, wanting to rely on learning from man instead. In the previous articles we have seen the reasons for Believers choosing to learn from imperfect, fallible men and get into erroneous teachings and false doctrines, rather than learning from the perfect infallible God the Holy Spirit.
In the last article we had started to see how a Believer can learn from the Holy Spirit. We had seen from 1 Peter 2:1-2, that the first thing that the Believer has to do is prepare one’s heart to be a proper place for the Holy Spirit to live and work, by getting rid of the worldly attitude and behavior. We had also seen that the Believer has to do this himself, and not try to put it upon the Holy Spirit to be their substitute and fulfil their responsibility for them. The Holy Spirit as their helper and guide will help them, show them, teach them how to do this, but will not do it for them.
Then, the second thing, as given in 1 Peter 2:1-2 is that the Believer needs to “desire the pure milk of the word, that you may grow thereby” because his growth is dependent upon this. In other words, he should desire to have a discernment, and the attitude of accepting only what is pure from God’s Word. Peter says some very important things here, things that the Believers need to ponder over, to learn God’s Word from God.
Firstly, within the Christian Believer there must be an inherent natural desire for receiving only the pure milk of the Word of God, and nothing else. The word used in the original Greek language, and translated as ‘desire’ means to have an intense craving, a possessiveness. What the Holy Spirit through Peter has stated here is that even as “newborn babes” the Believers are to intensely crave, to sincerely desire only for that which is the pure milk. They should not be satisfied with anything and everything served to them as ‘milk of the Word of God’ but have an understanding, a discernment between right and wrong, between correct and incorrect. Now, for a newly Born-Again Christian Believer, this seems to be an impossible task. One who hardly knows anything about God’s Word, how will he be able to figure out whether or not he is being given the “the pure milk of the word” or something adulterated?
This is where the stewardship of the Holy Spirit i.e., the proper utilization of the help and guidance of the Holy Spirit comes into play. The Lord Jesus, in His Sermon on the Mount, in Matthew 7:7 has said, “Ask, and it will be given to you; seek, and you will find; knock, and it will be opened to you.” The Lord has made this statement at the beginning of His earthly ministry, to disciples who had recently started to follow Him, and were generally the common uneducated, simple folks. The Lord was teaching them that their faith in God and His providence when joined together, they will work wonders for them, but they have to be bold enough to ask God. The Believers often use and claim this verse when asking for temporal things from God, but how often and how many ask and claim this verse for learning God’s Word from God? How many ask God to keep them safe from wrong doctrines, false teachings, things of man’s wisdom and understanding, etc., when reading, or studying God’s Word, or listening to any message from any preacher or teacher?
The sincere expressing of this desire by the Believers, and asking for God’s help and guidance for discernment to not be misled, to be kept safe from anything incorrect, will radically change their perception and bring about a great discernment in their learning God’s Word. They should also supplement this by making it a practice to cross-check from God’s Word (1 Thessalonians 5:21), before accepting anything from anyone, they should do as the Berean Believers did (Acts 17:11). These Berean Believers were not great scholars of God’s Word. Remember, this was the time of the first Church, the New Testament books and letters had not yet been fully written, Christian teachings were mainly oral, but still the Bereans cross-checked from the Scriptures whether what Paul was telling them about Christ from those Scriptures, to verify what Paul was saying was correct or not.
This is the craving, the discernment that Christian Believers need to exhibit when studying, listening to, and learning God’s Word; to be helped and guided only into the correct and nothing incorrect. For those who ask for it and mean it, God the Holy Spirit will guide them into all truth (John 16:13), thereby keeping them safe from false teachings, wrong doctrines, and from the harm these bring. We will carry on from here in the next article, and see the other aspects mentioned in 1 Peter 2:1-2 about learning God’s Word from the Holy Spirit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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