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आरम्भिक बातें – 10
मरे हुए कामों से मन फिराना – 6
इब्रानियों 6:1-2 में उल्लेखित आरम्भिक बातों के हमारे इस अध्ययन में हम वर्तमान में पहली आरंभिक बात, अर्थात मरे हुए कामों से मन फिराने के बारे में विचार कर रहे हैं; अर्थात उन धार्मिक और भले प्रतीत होने वाले कामों के बारे में जो उन्हें करने वाले व्यक्तियों के जीवनों में कोई आत्मिक बढ़ोतरी या परिपक्वता लेकर नहीं आते हैं। अभी तक हमने बाइबल में से तीन प्रकार के मरे हुए कामों को देखा है – स्व-निर्धारित सेवकाइयाँ (मत्ती 7:21-23); स्व-निर्धारित परमेश्वर की उपासना और आराधना (मत्ती 15:3-9); और स्व-निर्धारित उद्धार (प्रेरितों 8:5-25)। आज से हम कुछ मत और डिनॉमिनेशनों के द्वारा बहुत बल देकर पवित्र आत्मा के दिए जाने, तथा मसीही विश्वासियों में उसके कार्यों से सम्बन्धित गलत धारणाओं के सिखाए जाने के बारे में विचार करना आरम्भ करेंगे। इन गलत धारणाओं और झूठी शिक्षाओं को हम इस ब्लॉग में पवित्र आत्मा और उसकी सेवकाई से सम्बन्धित शिक्षाओं के साथ, पहले के कुछ लेखों में कुछ विस्तार से देख चुके हैं। इसलिए हम इन मत और डिनॉमिनेशनों द्वारा प्रचार किए और सिखाए जाने वाली केवल मुख्य झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों को ही देखेंगे।
कुछ मत और डिनॉमिनेशन यह प्रचार करते और सिखाते हैं कि पवित्र आत्मा प्राप्त करना, उद्धार पाने से पृथक अनुभव है, और पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए विश्वासी को समय और प्रयास लगाने पड़ते हैं। लेकिन जैसे कि हमने इस वर्तमान श्रृंखला के पहले के लेखों में देखा है, परमेश्वर के वचन की स्पष्ट शिक्षा है कि प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को, पिता परमेश्वर के द्वारा पवित्र आत्मा उसके उद्धार पाने के साथ ही प्रदान कर दिया जाता है (प्रेरितों 19:2; इफिसियों 1:13-14; गलतियों 3:2); कि आजीवन उसमें बना रहे (यूहन्ना 14:16-17)। इसके अतिरिक्त, हम 1 कुरिन्थियों 12:3 से देखते हैं कि पवित्र आत्मा के बिना कोई भी यीशु को प्रभु नहीं कह सकता है। इसलिए, यदि एक नया-जन्म पाए हुए नए विश्वासी में उसके उद्धार पाने के पल से पवित्र आत्मा नहीं है, तो फिर क्या वह यीशु को प्रभु कह कर संबोधित कर सकता है, या, उसका प्रभु होने के नाते यीशु से प्रार्थना में कुछ माँग सकता है? साथ ही, क्योंकि उस में पवित्र आत्मा नहीं है, और वह यीशु को प्रभु नहीं कह सकता है, तो फिर पिता परमेश्वर के साथ उसका क्या संबंध है (यूहन्ना 1:12-13)? इसी प्रकार से हम रोमियों 8:9 से देखते हैं कि जब तक कि मसीह का आत्मा, अर्थात पवित्र आत्मा, किसी व्यक्ति में निवास नहीं करता है, तब तक वह प्रभु का जन नहीं है। यदि उसमें पवित्र आत्मा नहीं है तो फिर नया-जन्म पाए हुए नए मसीही विश्वासी की क्या आत्मिक स्थिति, क्या आत्मिक स्थान है? क्योंकि इन मत और डिनॉमिनेशनों की गढ़ी हुई धरण के अनुसार नया-जन्म पाए हुए नए मसीही विश्वासी को तुरन्त ही पवित्र आत्मा नहीं मिलता है, इसलिए फिर रोमियों 8:9 के आधार पर वह परमेश्वर का जन भी नहीं है। इन दोनों हवालों के संदर्भ में यदि अभी भी परमेश्वर उनका पिता है, तो यह कैसे संभव है कि वह विश्वासी पवित्र त्रिएक परमेश्वर की एक हस्ती के साथ पिता और सन्तान के घनिष्ठ संबंध में बना हुआ है, किन्तु अन्य दोनों के साथ उसका कोई संबंध नहीं है; वह उनमें से एक को न तो प्रभु कह सकता है और न ही उसका जन है? आप स्वयं ही देखिए कि किस तरह से चालाकी से गढ़ी गई यह शैतानी युक्ति पवित्र त्रिएक परमेश्वर में विभाजन और विच्छेदन उत्पन्न कर देती है। साथ ही, इस पर भी विचार कीजिए कि यदि पवित्र आत्मा के न होने से नया विश्वासी न तो यीशु को प्रभु कह सकता है, और न ही उसका जन है, तो फिर वह प्रभु से पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना कैसे और किस आधार पर करेगा, और उसकी प्रार्थना क्योंकर सुनी जाएगी? ऐसे जन की प्रार्थना तो सदा ही अनुतरित ही रहेगी। यह झूठी मन-गढ़ंत शिक्षा देने के द्वारा, इन लोगों ने स्वयं ही अपनी शिक्षाओं में विरोधाभास उत्पन्न कर लिया है। इसलिए बाइबल इस धारणा का कोई समर्थन नहीं करती है कि पवित्र आत्मा प्राप्त करना एक पृथक बात या अनुभव है।
पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए “ठहरे रहना” प्रचार करने और सिखाने के लिए ये मत और डिनॉमिनेशन प्रेरितों 1:4-8 की गलत व्याख्या और उसका दुरुपयोग करते हैं। यह खण्ड प्रभु द्वारा अपने आरंभिक शिष्यों से सेवकाई पर जाने से पहले पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करने से सम्बन्धित है। ध्यान कीजिए कि प्रभु ने उन्हें पवित्र आत्मा से सामर्थ्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा के लिए तो कहा, किन्तु यह कहीं नहीं कहा पवित्र आत्मा को प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते रहें, या यह कि यदि वे प्रार्थना में नहीं माँगेंगे तो पवित्र आत्मा उन्हें नहीं मिलेगा। क्योंकि प्रभु तो उसके क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले ही उन्हें पवित्र आत्मा देने की प्रतिज्ञा कर चुका था (यूहन्ना 14:16; 15:26; 16:7); इसलिए उनका पवित्र आत्मा प्राप्त करना एक पूर्व-निर्धारित बात थी, न कि उनके प्रार्थना करने और प्रतीक्षा करने पर निर्भर बात। साथ ही प्रेरितों 2:38 में जब पतरस के सन्देश से कायल हुए यहूदियों ने समाधान पूछा, तो पतरस ने उन से कहा कि विश्वास करें, बपतिस्मा लें, और उन्हें पवित्र आत्मा का दान मिलेगा; उसने उन से पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा तथा प्रार्थना करने के लिए कुछ नहीं कहा। प्रेरितों 1:4-8 में ये बातें घुसाना मनुष्यों द्वारा गढ़ी गए बात है, न कि परमेश्वर द्वारा दिया गया सिद्धान्त। साथ ही यह भी ध्यान कीजिए कि शिष्यों के पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए इस आरंभिक प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त, यह शिक्षा पूरे नए नियम में फिर कभी नहीं दोहराई गई है, न ही कभी इसका किसी अन्य स्थान पर कहीं पालन किया गया है, उस समय के ज्ञात सम्पूर्ण सँसार भर में होने वाले सुसमाचार प्रचार और कलीसियाओं के स्थापित किए जाने के बावजूद, कभी भी किसी से भी पवित्र आत्मा के लिए प्रतीक्षा और प्रार्थना करने के लिए नहीं कहा गया, और न ही कभी पूछा गया कि उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?
पवित्र आत्मा को प्राप्त करने में विलम्ब को वैध ठहराने के लिए ये मत और डिनॉमिनेशन के लोग प्रेरितों 8:14-16, जो सामरियों के मध्य में फिलिप्पुस की सेवकाई के बारे में है, और प्रेरितों 19:6, जो यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के उन शिष्यों के बारे में है जो मसीही हो गए थे, का संदर्भ देते हैं। इन दोनों ही स्थानों पर स्पष्ट रीति से विश्वास करने और पवित्र आत्मा प्राप्त करने के मध्य एक अन्तराल है। किन्तु ध्यान कीजिए कि इन दोनों में से किसी भी घटना में उन लोगों में से कोई भी, उद्धार पाने के बाद, पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए, प्रतीक्षा और प्रार्थना नहीं कर रहा था। बल्कि, सच तो यह है कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों ने तो पवित्र आत्मा के बारे में कभी सुना भी नहीं था (प्रेरितों 19:2)। जब पतरस और यूहन्ना ने सामरियों पर हाथ रखा (प्रेरितों 8:17-18), और पौलुस ने यूहन्ना बपतिस्मा देने वालों पर हाथ रखा (प्रेरितों 19:2), तब उन लोगों ने पवित्र आत्मा प्राप्त किया। हम इसके बारे में फिर से विचार कर के इसे समझेंगे, जब हम चौथी आरंभिक बात, हाथ रखने, के बारे में सीखेंगे। अभी के लिए यही पर्याप्त है कि इस झूठी शिक्षा और गलत धारणा का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है कि पवित्र आत्मा प्राप्त करना और प्रभु यीशु में विश्वास करके उद्धार पाना पृथक हैं।
क्योंकि पवित्र आत्मा सच में प्रभु यीशु में विश्वास में आने वाले वास्तविक विश्वासी को ही दिया जाता है, और क्योंकि परमेश्वर जानता है कि वास्तव में उसका जन कौन है (2 तीमुथियुस 2:19), इसलिए केवल उन्हें ही जो वास्तविकता में अपने पापों से पश्चाताप करते हैं और जिन्होंने सच में अपने आप को परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित किया है, बिना माँगे ही, स्वतः ही पवित्र आत्मा दे दिया जाएगा। लेकिन वे जो परमेश्वर की दृष्टि में वास्तव में नया जन्म पाए हुए नहीं हैं, जिन्होंने सच में अपने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, उन्हें पवित्र आत्मा कभी भी प्रदान नहीं किया जाएगा, वे उसे पाने के लिए चाहे कितनी भी प्रतीक्षा, प्रार्थना, और उपवास करें – वह सब व्यर्थ और निष्फल रहेगा, जब तक कि उनका वास्तव में नया-जन्म नहीं हो जाता है; और जब यह होगा, तो तुरन्त, बिना माँगे, स्वतः ही उन्हें पवित्र आत्मा परमेश्वर से दान के समान मिल जाएगा। इसलिए पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए यह प्रतीक्षा, प्रार्थना, और उपवास करना, आदि, बाइबल के अनुसार नहीं हैं, व्यर्थ हैं, एक अन्य प्रकार के मरे हुए काम हैं क्योंकि इन से कोई भी आत्मिक बढ़ोतरी या अपरिपक्वता नहीं आती है। अगले लेख में हम यहाँ से आगे चलेंगे, और इन मत एवं डिनॉमिनेशनों द्वारा दी जाने वाली पवित्र आत्मा से सम्बन्धित कुछ अन्य झूठी शिक्षाओं के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 10
Repentance From Dead Works - 6
In our study of Elementary Principles from Hebrews 6:1-2, we are presently considering the first principle, i.e., repentance from dead works; i.e., repentance from those seemingly religious and good works, that do not cause any spiritual growth or maturity in the person doing them. So far, we have seen three kinds of dead works from the Bible - self-determined ministries (Matthew 7:21-23), self-determined worship of God (Matthew 15:3-9), and self-determined status of salvation (Acts 8:5-25). Today we will begin considering some very common misconceptions compellingly preached and taught by some sects and denominations, regarding God the Holy Spirit, His availability and His ministry amongst the people of God. These misconceptions and false teachings have already been considered on this blog in some past articles on teachings about the Holy Spirit and His ministry. So, we will only go through the main false teachings and wrong doctrines regarding the Holy Spirit and His ministry amongst the Christian Believers preached and taught by the sects and denominations.
Some sects and denominations preach and teach that receiving the Holy Spirit after salvation is a separate experience, and receiving the Holy Spirit requires time and special efforts by the Believers. But as we have seen in the earlier articles of the present series, the clear teaching of God's Word is that the Holy Spirit is automatically given by God the Father to every truly Born-Again Christian Believer, from the moment of his salvation (Acts19:2; Ephesians 1:13-14; Galatians 3:2); to always reside in him, as long as he is on this earth (John 14:16-17). Moreover, we see from 1 Corinthians 12:3, that no one can call Jesus Lord, except by the Holy Spirit. So, if a newly Born-Again person does not have the Holy Spirit, then how can he address Jesus as Lord or pray to him as his Lord? Then, since he does not have the Holy Spirit, and cannot call upon the Lord Jesus, then what is his relationship with God the Father (John 1:12-13)? Similarly, we see from Romans 8:9 that unless the Spirit of Christ, i.e., the Holy Spirit dwells in a person, he does not belong to the Lord. Where then does the newly Born-Again Believer stand spiritually, if he does not have the Holy Spirit in him? Because according to the contrived notion of these sects and denominations, the newly Born-Again Believer does not immediately receive the Holy Spirit, therefore, by Romans 8:9, he does not belong to God. If, in context of both these references, God is still this Believer’s Father, then how is it possible for the Believer to be in the intimate relationship of Father and child with one member of the Holy Trinity, but have no relationship with the other two members; not even being able to call upon the Lord or belonging to the Lord? See for yourself how this subtle satanic ploy tries to disrupt and fragment the Holy Trinity. Also consider this, that since because of the Holy Spirit not being with him, therefore, the new Believer can neither address Jesus as Lord, nor will he be accepted as His, so then how, to whom, and on what basis can he pray to receive the Holy Spirit, and on what rounds will his prayer be heard and answered? The prayers of such a person will remain unanswered. By bringing this contrived teaching, these people have created a contradiction for themselves. Hence, the Bible does not support the contention that receiving the Holy Spirit is a separate experience.
In teaching “tarrying” and praying to receive the Holy Spirit, these sects and denominations misinterpret and misapply Acts 1:4-8 which is about the Lord asking the initial disciples to wait till they had received the Holy Spirit before going out for their ministry. Notice, the Lord had asked them to wait to be empowered by the Holy Spirit, which He would send (John 14:16; 15:26; 16:7); but He never asked them to pray to receive the Holy Spirit, nor did He say that unless they prayed and asked for the Holy Spirit, He would not come upon them. Their receiving the Holy Spirit was a pre-determined thing, promised by the Lord even before His crucifixion, as given in the three references from John’s gospel above. Moreover, in Acts 2:38, in Peter’s answer to the Jews convicted by his message, though Peter says to them to believe and be baptized and they will receive the gift of the Holy Spirit; but Peter never asks them to “tarry,” or having believed to specially pray to receive the Holy Spirit. Inserting all these things into Acts 1:4-8 is man-made, and not a God given doctrine. Also notice that besides this initial waiting of the disciples to receive the Holy Spirit, this teaching has never been either repeated, nor practised anywhere else, nor was anyone ever asked why they did not do so, in the entire New Testament despite all the evangelistic activities and Church planting all over the known world.
In trying to justify a delay in receiving the Holy Spirit, the adherents of these sects and denominations also use Acts 8:14-16, which is about the ministry of Philip amongst the Samaritans, and Acts 19:6, which is about the ministry of Paul amongst the disciples of John the Baptist who had started to follow Lord Jesus. In both instances, there was a clear delay in people coming to faith in the Lord and their receiving the Holy Spirit. But note that in neither of these instances, were the recipients of the Holy Spirit “tarrying,” praying, and fasting to receive the Holy Spirit. In fact, the disciples of John the Baptist had not even heard about the Holy Spirit (Acts 19:2). When Peter and John laid hands on the Samaritans (Acts 8:17-18), and Paul laid hands on the disciples of John the Baptist (Acts 19:6), these people received the Holy Spirit. We will consider and understand this later when learning about the fourth elementary principle, i.e., laying of hands. For now, suffice it to say that there is no Biblical support for the false teaching and wrong doctrine of receiving the Holy Spirit being separate from believing in the Lord Jesus and being Born-Again.
Since the Holy Spirit is given to the Believer on his truly coming to faith in the Lord Jesus, and since God knows those who actually are His (2 Timothy 2:19), therefore those who sincerely repent of their sins and fully submit themselves to God, will also receive the Holy Spirit without even having to ask for him. But those who, in God’s eyes, are not truly Born-Again, have not actually repented of their sins, they will never receive the Holy Spirit no matter how long they tarry, how much they pray or fast about it – all of it will be vain and fruitless until they are truly Born-Again; when they do, they immediately and automatically will receive the Holy Spirit as a gift from God. So, this tarrying, praying, fasting etc. to receive the Holy Spirit is another kind of “dead work” since it is unBiblical and vain; it does not bring any spiritual growth or maturity.
We will carry on from here in the next article, and learn about some more false teachings related to the holy Spirit preached and taught by these sects and denominations.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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