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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 48

 

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आरम्भिक बातें – 9

मरे हुए कामों से मन फिराना – 5

 

    इब्रानियों 6:1-2 में उल्लेखित छः आरंभिक बातों में से हम अभी पहली बात, अर्थात “मरे हुए कामों से मन फिराना” पर विचार कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि “मरे हुए काम” वे धार्मिक और भले प्रतीत होने वाले काम हैं जिनसे विश्वासियों को कोई आत्मिक बढ़ोतरी अथवा परिपक्वता नहीं मिलती है, चाहे उन्हें बहुत भक्ति, श्रद्धा, और लगन से क्यों न किया जाए। पिछले लेखों में हमने दो तरह के कामों के उदाहरणों को बाइबल से देखा है, जो कि मसीहियों के द्वारा बहुत सामान्य रीति से किए  जाते हैं, स्वयं-निर्धारित सेवकाइयाँ (मत्ती 7:21-23), और स्वयं-निर्धारित उपासना (मत्ती 15:3-9), किन्तु उनसे उन्हें कोई आत्मिक लाभ नहीं मिलते हैं। आज हम एक अन्य प्रकार के “मरे हुए काम” के बाइबल से उदाहरण को देखेंगे, जो नया-जन्म पाने और पवित्र आत्मा से सम्बन्धित है, अर्थात स्वयं-निर्धारित उद्धार। बहुत से लोग अपने नया-जन्म पाए हुए होने के बारे में स्पष्ट नहीं है, न ही यह जाँच पाने के बारे में कि वे वास्तव में विश्वास में हैं भी कि नहीं (2 कुरिन्थियों 13:5)। बहुधा बाहरी स्वरूप और व्यवहार, तथा अन्य नया-जन्म पाए हुए लोगों के समान जीवन जीने और काम करने के आधार पर अधिकाँश मसीही या ईसाई यह समझ लेते हैं कि उन्होंने भी नया-जन्म पा लिया है, इसलिए वे परमेश्वर की सन्तान हैं और परमेश्वर की अनन्तकालीन स्वर्गीय आशीषों के तथा स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के हकदार हैं। लेकिन यह उनकी अपनी गढ़ी हुई बात है, एक शैतानी धोखा, जिस में उन्हें फँसा दिया गया है।

    प्रेरितों 8:5-25 में, सामरिया के एक नगर में, फिलिप्पुस की सुसमाचार प्रचार की सेवकाई की एक घटना दर्ज की गई है। उस नगर में शमौन नामक एक जादू-टोना करने वाला था, जो अपने आप  को एक बड़ा पुरुष बताता था, और वहाँ के स्थानीय लोग भी मानते थे कि उसमें ईश्वर की बड़ी सामर्थ्य है, और उससे बहुत प्रभावित थे (प्रेरितों 8:9-11)। लेकिन जब फिलिप्पुस ने उस नगर में सुसमाचार का प्रचार किया, तो बहुत से लोग प्रभु की ओर मुड़ गए, और उन मुड़ने वालों में से शमौन भी एक था (प्रेरितों 8:12-13)। उसके बारे में पद 13 में लिखा गया है कि उसने विश्वास किया, उसका बपतिस्मा हुआ, और वह फिलिप्पुस के साथ रहता था, अर्थात वह फिलिप्पुस के साथ संगति में रहने लगा; और वह चमत्कार और अद्भुत कार्यों को देखकर चकित होता था। जब प्रेरितों पतरस और यूहन्ना की सेवकाई के द्वारा नगर के लोगों ने पवित्र आत्मा को प्राप्त किया (प्रेरितों 8:14-17), तो इससे शमौन और भी अधिक चकित हुआ। शमौन ने विश्वासियों के जीवनों में पवित्र आत्मा की उपस्थिति की सामर्थ्य को समझा और उसने भी चाहा कि उसे भी औरों को पवित्र देने की सामर्थ्य मिले, और यह सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए वह धन देने के लिए तैयार था (प्रेरितों 8:18-19)। पवित्र आत्मा के विषय शमौन के विचार, यह सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए उसका धन देने का प्रस्ताव करना, इस बात के संकेत हैं कि यद्यपि वह सुसमाचार में विश्वास करने का दावा करता था, उसने बपतिस्मा भी लिया था, और वह सुसमाचार प्रचारक फिलिप्पुस के साथ संगति में रहा करता था, लेकिन फिर भी उसका नया-जन्म नहीं हुआ था; अन्यथा उसे भी औरों के साथ पवित्र आत्मा प्राप्त हो जाता, जो फिर उसे वह नहीं कहने देता जो उसने कहा था। उसके वास्तव में नया जन्म न पाने, और उसमें अभी भी अपरिवर्तित मन होने की पुष्टि उसे पतरस द्वारा प्रेरितों 8:2-24 में लगाई गई डाँट से हो जाती है; साथ ही यह भी ध्यान कीजिए कि पतरस उस से मन फिराने और उसके मन की दुष्टता के लिए परमेश्वर से क्षमा माँगने की प्रार्थना करने के लिए कहता है (प्रेरितों 8:22-23), लेकिन पतरस से उसे मिले इस निर्देश का शमौन पालन नहीं करता है, बल्कि उलटे पतरस से ही कहता है कि वह ही उसके लिए प्रार्थना करे। पतरस से कही गई उसकी इस बात पर ध्यान कीजिए – वह यह नहीं कहता है कि उसे क्षमा मिलने और उसका वास्तव में उधर हो जाने की प्रार्थना करे, वरन यह कि पतरस द्वारा जो बातें उसके लिए कही गई थीं, वे घटित न हों। दूसरे शब्दों में, अभी भी उसका मन परिवर्तन नहीं हुआ था। उसे बस भौतिक वस्तुओं की चिन्ता थी, ऐसी बातों की जिन से उसे औरों पर नियंत्रण एवं सामर्थ्य मिल सके, जिन से वह अपने आप को बड़ा दिखा सके। उसे अपनी आत्मिक दशा की भी चिन्ता नहीं थी और न ही उस अनन्तकालीन विनाश की जो, यदि वह पश्चाताप न करे, तो उसके सामने धरा था।

    शमौन अपने बाहरी परिवर्तन, बपतिस्मा लेने, और फिलिप्पुस के साथ संगति करने के कारण स्वयं ही यह मान बैठा था कि उसने भी नया-जन्म पा लिया है, उद्धार प्राप्त कर लिया है। लेकिन अन्य लोगों के समान उसका पवित्र आत्मा प्राप्त न करना, जो उसके द्वारा व्यक्ति में पवित्र आत्मा की उपस्थिति होने के कारण कही जाने वाले बातों के विपरीत बातें कहने से प्रकट है, और एक ढीठ एवं अपश्चातापी मन रखना था, उसकी वास्तविकता को प्रकट करते हैं। लगभग ऐसी ही स्थिति अधिकाँश मसीहियों के साथ भी है। वे यह मान लेते हैं कि उन्होंने “नया-जन्म” पा लिया है, वे परमेश्वर को स्वीकार्य हैं, और इस पृथ्वी के उनके जीवन के समाप्त होने पर वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य इसलिए होंगे क्योंकि उन्होंने धर्म की कुछ रीतियों और परम्पराओं का पालन किया है, क्योंकि वे एक निर्धारित प्रकार का व्यवहार करते हैं – जैसा कि “मसीहियों” सी अपेक्षित है, तथा वे अन्य नया-जन्म पाए हुए लोगों के साथ संगति रखते हैं। लेकिन उनके मनों की दशा कुछ और ही होती है, उनके मन वास्तव में पश्चातापी एवं परमेश्वर को समर्पित नहीं होते हैं, न ही उनके मन परमेश्वर की महिमा करना चाहते हैं; वरन, वे परमेश्वर और भक्ति को साँसारिक लाभ अर्जित करने के लिए उपयोग करना चाहते हैं (1 तीमुथियुस 6:9)।

    इन ऊपरी बातों से परमेश्वर कभी बहकाया नहीं जा सकता है; उसे पता है कि उसके लोग कौन हैं; वह प्रत्येक के मन को जानता है; और उसके वचन से बढ़ोतरी पाने के लिए, व्यक्ति को बुराई से दूर हटने के साथ आरम्भ करना पड़ता है (यूहन्ना 2:24-25; 2 तीमुथियुस 2:19; 1 पतरस 2:1-2), क्योंकि यदि व्यक्ति के मन में बुराई होगी तो परमेश्वर उसकी नहीं सुनेगा (भजन 66:18)। प्रत्येक मसीही को अपने उद्धार पाए हुए होने और उसके वास्तव में नया-जन्म पा लेने को जाँच-परख लेना चाहिए। यदि उद्धार पाने या नया-जन्म पाने की अपनी दशा के बारे में ज़रा भी शंका है तो 1 यूहन्ना 2:3-6 में दी गई बातों के आधार पर अपने आप को जाँच लेना चाहिए। ध्यान कीजिए कि यहाँ पर प्रभु किसी से भी पूर्ण सिद्धता एवं पवित्रता की माँग नहीं कर रहा है; वह जानता है कि हम मिट्टी ही हैं (भजन 103:14), और यह कि हम सब पापों में गिरते ही रहते हैं (1 यूहन्ना 1:8-10)। प्रभु यही चाहता है कि सच में मन फिराएँ और उसे समर्पित हो जाएँ, और हम में उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलने की सच्ची लालसा हो, न कि हम मात्र औपचारिकताएं निभाने के लिए बाहरी दिखावा और ऊपरी व्यवहार करते रहें। इस प्रकार का यह ऊपरी या स्वयं ही निर्धारित उद्धार पाया हुआ होना भी एक प्रकार का “मरा हुआ काम” है जिससे कोई भी आत्मिक बढ़ोतरी अथवा परिपक्वता नहीं होती है, इसलिए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, इस मरे हुए काम से भी मन फिराना और स्थिति को सही करना अनिवार्य है।

    यह घटना हमारे प्रभु की सहनशीलता और विलम्ब से क्रोध करने के गुण को भी दिखाती है, और यह भी कि कैसे वह सभी को बारंबार मन फिराने, उसकी ओर लौट आने, उद्धार पाने के अवसर देता रहता है (2 पतरस 3:9)। किन्तु जो ढिठाई से मन फिराने और उसे समर्पित हो जाने की उसकी पुकार को अनसुना करते रहते हैं, फिर अन्ततः उन्हें अपने इनकार में बने रहने और परमेश्वर की दया को अस्वीकार करने के परिणामों को भुगतना ही पड़ेगा। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 9

Repentance From Dead Works - 5

 

    Of the six elementary principles mentioned in Hebrews 6:1-2, we are presently considering the first one, i.e., “repentance from Dead Works.” We have seen that the term “dead works” refers to those seemingly religious and good works which do not result in any spiritual growth and maturity in the life of Believers, even though done very piously, reverentially, and sincerely. In the preceding articles, we have seen Biblical examples of two kinds of works, presumed ministries (Matthew 7:21-23), and presumed worship and following the Lord (Matthew 15:3-9), very commonly done by the Christians, but without any spiritual benefits in their lives. Today, we will consider the Biblical example of another kind of “dead works” related to being Born-Again and the Holy Spirit, i.e., presumed salvation. Many people are not clear about their being Born-Again, or how to discern whether they truly are in the faith or not (2 Corinthians 13:5). Very often due to external appearances and behavior, living and doing things like other Born-Again people do, most Christians tend to assume that they are also Born-Again, thereby, are the children of God, and qualify for God’s eternal heavenly blessings and being in the Kingdom of God. But this is a presumption on their part, a satanic deception, into which they have been brought.

    In Acts 8:5-25 we have an incidence of the evangelical ministry of Philip, in a city of Samaria. In that city there was a sorcerer, named Simon, and not only did he claim to be someone great, but the local people also thought that he had great powers from god, and were in great awe of him (Acts 8:9-11). But when Philip preached the gospel in that city, many people turned to the Lord, and Simon the sorcerer was also amongst those who turned to the Lord (Acts 8:12-13). It is written about him in verse 13 that he believed, he was baptized, and he continued with Philip, i.e., was in a steady fellowship with Philip; and was amazed seeing the miracles and signs which were done. When the people of the city received the Holy Spirit through the ministry of the Apostles Peter and John (Acts 8:14-17), it amazed Simon even more. Simon realized the power of the presence of the Holy Spirit in the Believers, and he too wanted to have the power to give the Holy Spirit to others, and was willing to pay money to get this power (Acts 8:18-19). Simon’s thinking about the Holy Spirit, and his offering money for getting this power, are the indicators that though he claimed to have believed the gospel, had taken baptism, and was in fellowship with Philip the evangelist, yet he was not truly Born-Again; else he too would have received the Holy Spirit along with others, and the Holy Spirit in him, would have never let him say what he did. His not being truly Born-Again, and his still having an unregenerated heart was affirmed by Peter’s admonition of him in Acts 8:20-24; also notice that though Peter asks him to repent and pray to God for the forgiveness of his wickedness (Acts 8:22-23), yet Simon does not accept Peter’s instruction, instead asks him, i.e., Peter to pray for him. Notice the content of his request to Peter – it is not that he may be forgiven and truly be saved, be actually Born-Again, but that the things spoken by Peter may not come upon him. In other words, he still did not have a truly repentant heart. All he was bothered about was temporal things, things that gave him a hold or some power over people, showed him to be someone great; he was not even concerned about his spiritual state and the eternal destruction that lay ahead of him if he did not repent.

    Simon, who because of his external change, taking baptism, and being in the fellowship with Philip assumed that he too was Born-Again, was saved. But his not receiving the Holy Spirit along with others – evidenced by his saying and asking for things contrary to the presence of the Holy Spirit in a person, and a stubborn, unrepentant heart, exposed his actual condition. Much the same state prevails with most Christians. They assume that they are “Born-Again,” are okay with God, and qualify to enter God’s Kingdom when their earthly life comes to an end because they have fulfilled certain religious rituals and traditions, because they are behaving in a certain way – as “Christians” are expected to behave, and they are fellowshipping with other Born-Again people. But their hearts have another tale to tell, they do not have hearts that are truly repentant and submitted to God, hearts that desire to glorify God; instead, they want to use God and godliness for worldly gain (1 Timothy 6:9).

    Lord is never fooled with these externals, and outward behavior; He knows them who are His; He knows the heart of every person; and to grow through His Word, one has to start by turning away from iniquity (John 2:24-25; 2 Timothy 2:19; 1 Peter 2:1-2), because with iniquity in a person’s heart, God will not listen to him (Psalm 66:18). Every Christian needs to check his actual condition of salvation and ascertain the state of his really being “Born-Again.” Any assumed state of being saved or Born-Again needs to be identified using the criteria given in 1 John 2:3-6. Notice here that the Lord is not asking for absolute holiness and perfection; He knows that we are dust (Psalm 103:14), and that we all keep falling into sin (1 John 1:8-10). What the Lord wants is a sincere repentance and submission to Him and a sincere desire to live in obedience to His Word, instead of carrying on in perfunctory external appearances and behavior. This false sense of being saved is another kind of “dead works” that brings no spiritual growth and maturity, therefore it needs to be repented off and rectified before it is too late.

    This incidence also illustrates the longsuffering of our Lord, and how He keeps giving everyone the chance to repent, turn back to Him, and be saved (2 Peter 3:9). But those who stubbornly continue to reject his call to repent and submit to Him, will then eventually have to accept the consequences of their persistent refusal to accept God’s mercy. We will carry on from here in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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