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आरम्भिक बातें – 4
धीरज और निबाहना
आरंभिक बातों से सम्बन्धित पिछले लेखों में, परिचय के रूप में हमने इब्रानियों 5:11-14 से देखा था कि मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर के वचन को सीखते रहना, तथा साथ ही उसको औरों को सिखाते भी रहना, क्यों और कैसे आवश्यक है। यदि मसीही विश्वासी अपने मसीही जीवन और सेवकाई के इस पक्ष को अनदेखा कर देता है तो वह अपनी आत्मिक परिपक्वता और बढ़ोतरी में पिछड़ने लग जाता है और, इतना पिछड़ सकता है कि आत्मिक शिशु अवस्था या छोटे बालक के समान हो जाए, और उसे आरंभिक बातों को फिर से सिखाने की आवश्यकता हो जाए। ऐसे में इन सिद्धान्तों को फिर से सिखाया जाना आवश्यक है क्योंकि ये आरम्भिक बातें प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए आधारभूत हैं। यदि विश्वासी इन से अवगत नहीं है, इन में स्थापित नहीं है तो वह और आगे की गूढ़ बातें, परमेश्वर के वचन की उन्नत और गम्भीर बातें समझ और सीख नहीं पाएगा, जैसा कि इस पत्री के लेखक ने इब्रानियों 5:11-12 में कहा है। यह लेखक की, अर्थात परमेश्वर पवित्र आत्मा की, जिसकी अगुवाई में ये पत्री लिखी गई है, अपेक्षा थी कि जिन विश्वासियों को यह पत्री लिखे गई थी, वे इतने परिपक्व हो गए होंगे कि न केवल औरों को सिखाने पाएँ, वरन, परमेश्वर के वचन के गूढ़ शिक्षाओं को भी ग्रहण कर लें। किन्तु क्योंकि वे इस अपेक्षा पर खरे नहीं उतरे इसलिए इस पत्री का लेखक उन्हें उन आरंभिक बातों को, इब्रानियों 6:1-2 में उन बातों का नाम लेकर, उनका स्मरण करवाता है।
इब्रानियों 6:1-2 से हम देखते हैं कि लेखक इन आरम्भिक बातों की चर्चा में नहीं जाता है, उन्हें केवल इन छः मौलिक बातों का स्मरण करवा देता है; और फिर सिद्धता के ओर आगे बढ़ने की बात कहता है। यहाँ पर उल्लेखित ये छः मौलिक आरंभिक बातें हैं, मरे हुए कामों से मन फिराना, परमेश्वर पर विश्वास करना, बपतिस्मों, हाथ रखना, मरे हुओं के जी उठना, और अन्तिम न्याय। प्रकट तात्पर्य है कि उन मसीही विश्वासियों से अपेक्षा की गई थी कि इन मौलिक बातों या सिद्धान्तों के बारे में अपनी जानकारी और शिक्षाओं को वे दोहराएंगे, और ध्यान में ले आएँगे; जिसके लिए उनमें निवास करने वाला पवित्र आत्मा उनकी सहायता करेगा। यहाँ पर आज के मसीही विश्वासियों के लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षा है, कि उन्हें गूढ़ बातों को सीखने के साथ ही, मसीही विश्वास की इन आधारभूत बातों से सम्बन्धित शिक्षाओं को दोहराते रहना और ताज़ा बनाए रखना चाहिए। इन आधारभूत बातों को ध्यान में ताज़ा बनाए रखना बहुत आवश्यक है क्योंकि उनकी सेवकाई में उनके समय का एक मुख्य भाग नए विश्वासियों या बाल्यावस्था से निकल कर आगे बढ़ने वाले विश्वासियों के साथ संपर्क और वार्तालाप में व्यतीत होगा। इसलिए उन्हें इन आधारभूत बातों की आवश्यकता, गूढ़ बातों से कहीं अधिक पड़ेगी। साथ ही जैसा हमने इब्रानियों 5:13-14 से देखा है, “ठोस आहार” या “अन्न” सयानों के लिए होता है; इसलिए गूढ़ बातें सीखने के बाद भी, उन्हें शिशुओं और बच्चों के मध्य में उपयोग नहीं किया जा सकेगा। नि:सन्देह, गूढ़ बातों को सीखना और जानना आवश्यक है, परन्तु आधारभूत बातों की अनदेखी करने या उन्हें भूल जाने की कीमत पर नहीं।
साथ ही यह बात यह भी दिखाती है कि हमारा प्रभु परमेश्वर कितना धीरज रखने वाला और निबाहने वाला है। उसके लोगों, उसके बच्चों के उसकी अपेक्षाओं पर खरे न उतरने और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा न करने के कारण खिसियाने और परेशान होने की बजाय, वह फिर से उन्हें नए सिरे से सिखाने में लग जाता है; उन्हें सिखाता और दिखाता है कि उन्हें कैसे पुनः आरम्भ करना है और कैसे खोए हुए समय को पुनः प्राप्त करना है। प्रभु के अनुग्रहकारी रवैये का यही एकमात्र उदाहरण नहीं है। प्रभु द्वारा पतरस की असफलताओं के साथ व्यवहार करने के बारे में ध्यान कीजिए; पतरस ने न केवल प्रभु का तीन बार इनकार किया, लेकिन पुनरुत्थान के बाद प्रभु को देखने के बाद भी वह अपने मछली पकड़ने के काम पर लौट गया, और उसके साथ छः और शिष्य भी चले गए; लेकिन प्रभु ने फिर भी उसके साथ इतने प्रेम और धीरज के साथ व्यवहार किया, और उसे उसकी सेवकाई में बहाल कर दिया (यूहन्ना 21)। और पिन्तेकुस्त के दिन, पतरस ने ही भक्त यहूदियों के सामने प्रचार किया जिससे लगभग तीन हजार ने प्रभु को ग्रहण किया। वह पतरस ही था जो धार्मिक अगुवों के सामने दृढ़ता से खड़ा हुआ जब उन्होंने उन्हें सुसमाचार प्रचार से रोकना चाहा (प्रेरितों 4:8-20; 5:29-32); और यह पतरस की सेवकाई के द्वारा ही था कि सुसमाचार को अन्य जातियों में भेजा गया, कुरनेलियुस के घराने को किए गए प्रचार के द्वारा (प्रेरितों 10,11)। इन बातों के अतिरिक्त और भी कई बातें हैं जो दिखाती है कि पतरस कितनी सामर्थी रीति से पहले कलीसिया में उपयोग किया गया; केवल इसलिए, क्योंकि प्रभु उसके साथ धीरजवन्त रहा और उसे मौका देने के लिए तैयार रहा। इसी प्रकार एक निष्फल जन के प्रति धीरज रखने, उसके साथ निबाहने, और उसे अवसर देने का एक और उदाहरण यूहन्ना मरकुस का जीवन है, जिसे पौलुस और बरनबास के साथ सेवकाई का अवसर मिला, किन्तु वह बीच में ही छोड़कर वापस लौट गया। इस कारण पौलुस उसे फिर से अवसर देने और साथ ले जाने के लिए तैयार नहीं था, और इस बात को लेकर हुए विवाद से पौलुस और बरनबास अलग-अलग हो गए; पौलुस सिलास को लेकर चला गया, जबकि बरनबास यूहन्ना मरकुस को अपने साथ लेकर कुप्रुस को चला गया (प्रेरितों 12:25; 1536-39)। बाद में हम देखते हैं कि फिलेमोन 1:24 में यूहन्ना मरकुस का नाम पौलुस के सहकर्मियों में आया है, और उसकी सेवकाई एवं जीवन के अन्त के समय में पौलुस उसे सेवकाई के लिए उपयोगी कहता है (2 तीमुथियुस 4:11); और पतरस उसे अपने पुत्र के समान कहता है (1 पतरस 5:13); और उसी के द्वारा मरकुस रचित सुसमाचार भी लिखा गया। यदि बरनबास ने उसके साथ धीरज रख कर उससे निबाहा नहीं होता, तो संभवतः वह कलीसिया में फिर से इतना उपयोगी नहीं बन पाता। प्रभु का जाना-पहचाना, निष्फल अंजीर के वृक्ष का दृष्टान्त (लूका 13:6-9) भी प्रभु के इसी गुण को चित्रित करता है।
यह मसीही विश्वासियों के लिए एक शिक्षा है कि लोगों से, उनके साथ जो उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतारते हैं, व्यवहार करने में अधीर और गर्म-दिमाग़ के न हों; बल्कि प्रभु के समान, लोगों को अवसर दें, उन्हें बढ़ाने का प्रयास करें, उनके जीवन की कमजोरी के हिस्सों में उनकी सहायता कर के उन्हें दृढ़ बनाने का प्रयास करें, उनका सही पोषण करें। आने वाले समयों में, ये आज लड़खड़ाने और कमज़ोर दिखने वाले लोग, परमेश्वर की सामर्थ्य और मार्गदर्शन से प्रभु के लिए सामर्थी रीति से उपयोग होने वाले बन सकते हैं।
अब अगले लेख से, हम इन आरम्भिक बातों को एक-एक करके देखना आरम्भ करेंगे। अगले लेख में हम पहली बात, मरे हुए कामों से मन फिराने के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 4
Patience and Perseverance
In the previous articles on the elementary principles, as an introduction, we have seen from Hebrews 5:11-14 how and why it is necessary for every Christian Believer to keep learning the Word of God, and simultaneously to keep teaching it to others as well. If a Believer neglects this aspect of his Christian living and ministry, then he starts going downhill in his spiritual maturity and growth, and eventually may come down to the level of being a spiritual infant or babe, and he needs to be taught the elementary principles all over again. The re-teaching of these principles is necessary, since these elementary principles are foundational for every Believer. Unless the Believer is well versed and established in them, he will not be able to comprehend the higher things, the more serious and advanced teachings of God’s Word, as the author of this letter has said in Hebrews 5:11-12. It was the expectation of the author, thereby, of God the Holy Spirit, under whose inspiration this letter was written, that the Believers to whom this letter was addressed should have matured to not only be teaching others, but also to receive the more profound teachings of God’s Word. But since they had not lived up to the expectations, therefore through the Holy Spirit, the author of this letter reminds them of these elementary principles by naming them in Hebrews 6:1-2.
From Hebrews 6:1-2 we see that the author is not going into the discussions about these elementary principles, but only reminding them what these six foundational principles are; and then asking them to move ahead, to go on to perfection. The principles stated here are, repentance from dead works, faith towards God, doctrine of baptisms, of laying of hands, of resurrection of the dead, and of eternal judgment. The evident implication is that these Christian Believers were expected to revise and brush up their learning about these principles; and God the Holy Spirit residing in them would be helping them to do so. There is an important teaching here for the Christian Believers today, to keep revising and brushing up on their learning of the fundamental principles of faith, besides aspiring to learn the higher things. Keeping in touch with the foundational principles is very important, since in their ministry, a significant portion of their time will be spent communicating and interacting with either new Believers, or those still growing out of their spiritual childhood. Hence, they will need to use these foundational principles much more than the higher things. Moreover, as we have seen from Hebrews 5:14 in the previous article, the “solid food” belongs to those who are mature; so even after learning the higher things, they will not be able to use them amongst the spiritual infants and small children. For sure, the higher things have to be learnt, but not at the cost of neglecting or forgetting the foundational teachings.
This also shows how patient and longsuffering our Lord God is. Instead of getting perturbed and agitated about His people, His children not living up to the expectations, not fulfilling their responsibilities, He once again gets down to giving them a fresh start; showing them where and how to start and to catch up on lost time. This is not the only instance of this gracious attitude of the Lord. Recall the Lord’s handling of Peter’s failures; Peter had not only denied the Lord thrice, but even after being forgiven by the Lord and restored back, even after seeing the resurrected Lord, he once again went back to his fishing, and six other disciples also decided to go with him; but the Lord once again dealt so patiently and lovingly with him, and restored him back to his ministry (John 21). And, on the day of Pentecost, it was Peter who preached to the devout Jews and three thousand accepted the Lord. Again, it was Peter who stood up to the religious leaders when they tried to prevent them from preaching the gospel (Acts 4:8-20; 5:29-32); and it was through Peter that the gospel was sent to the Gentiles, the household of Cornelious (Acts 10, 11). Besides these, there were many other ways in which Peter was mightily used in the first Church, all because, the Lord was patient and longsuffering with him, and was willing to give him another chance. Another instance of this patience, forbearance, and willingness to give another chance to the unfruitful, is the life of John Mark, who was given ministry opportunity with Paul and Barnabas, but left in-between, and returned, so Paul was no longer willing to give take him along; because of this Paul and Barnabas broke up, and Paul went with Silas, while Barnabas took John Mark with him to Cyprus (Acts 12:25; 15:36-39). Later we find that John Mark is mentioned as a laborer with Paul, along with others (Philemon 1:24), and towards the end of his time, Paul refers to him as someone useful for him in his ministry in 2 Timothy 4:11; and Peter refers to him as his son in 1 Peter 5:13; and we have the Gospel of Mark written for us through him. Had Barnabas not persevered with him, he might not have been restored back and used so effectively in the first Church. The Lord’s well-known parable of the fruitless Fig tree (Luke 13:6-9) also illustrates this attribute of our Lord.
This is a lesson for the Christian Believers to not be impatient and short-tempered in handling people who do not live up to their expectations, but like the Lord, give people time and try to build them up, nurture them, help them in the weak areas of their lives by pointing those areas out to them and work with them to strengthen those areas. In times to come these currently faltering people, through the strength and guidance of God can turn into those through whom God works mightily.
We will now begin to consider these elementary principles one by one from the next article. From the next article we will begin considering the first elementary principle, i.e., repentance from dead works.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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