ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 45

 

Click Here for the English Translation


आरम्भिक बातें5

मरे हुए कामों से मन फिराना 1

 

    पिछले लेख में हमने देखा था कि कैसे इन आरंभिक बातों के अध्ययन का आरम्भ हमें परमेश्वर के दो गुणों, धीरज और निबाहने, को दिखाता है। यह मसीही विश्वासियों, प्रभु यीशु के अनुयायियों के सामने अनुसरण करने के लिए एक उदाहरण को रखता है कि किसी से भी जल्दी ही मुँह न फेर लें, बल्कि धीरज से उसके साथ निबाहते रहें, और उनकी सहायता करें, उनकी कमजोरियों में उन्हें संभालें और सिखाएं, और परमेश्वर अपने समय में लोगों को उसके राज्य और महिमा के लिए फलवन्त बना देगा। आज से हम इब्रानियों 6:1-2 में उल्लेखित छः आरम्भिक बातों में से पहली, “मरे हुए कामों से मन फिराना” के बारे में सीखना आरम्भ करेंगे।

    इस वाक्यांश को पढ़ते समय, प्रवृत्ति केवल शब्द “मन फिराने” पर ही ध्यान केंद्रित करने की रहती है, और यह मान लिया जाता है कि जो लिखा हुआ है वह उद्धार के लिए पापों से मन फिराने, या परमेश्वर के साथ संगति में बहाल हो जाने के बारे में लिखा गया है। इसकी बजाए, वाक्यांश के अन्य शब्दों पर ध्यान पूर्वक विचार करना चाहिए, तथा देखना चाहिए कि वाक्यांश वास्तव में क्या कह रहा है। ध्यान कीजिए कि यह पत्री मसीही विश्वासियों को लिखी गई है; इसलिए, वे परमेश्वर की सन्तान बनने के लिए पश्चाताप करने या मन फिराने की प्रक्रिया से होकर पहले ही निकल चुके हैं। साथ ही, जैसा हमने इब्रानियों 5:11-14 का अध्ययन करते हुए देखा था, सन्दर्भ उनके उद्धार पाने का नहीं, बल्कि उनकी आत्मिक उन्नति और परिपक्वता का है। ये इब्रानी विश्वासी अपनी आत्मिक बढ़ोतरी में बहुत पिछड़ गए हैं, और यहाँ तक पीछे आ चुके हैं कि अब उन्हें ने जन्मे हुए आत्मिक शिशुओं के समान ‘दूध’ पिलाए जाने की, अर्थात मसीही विश्वास के आधारभूत सिद्धान्तों को फिर से सिखाए जाने आवश्यकता हो गई है। वे नया जन्म पाए हुए हैं, वे मसीही विश्वास में हैं, लेकिन अब उन्हें विश्वास की मौलिक बातों को फिर से सिखाने और उन्हें आत्मिक जीवनों में पोषित करने की आवश्यकता पड़ गई है, जैसे कि परमेश्वर के नवजात आत्मिक शिशुओं को होती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम अब समझ सकते हैं कि यहाँ पर उल्लेखित मन फिराने का अर्थ उद्धार के लिए पापों से पश्चाताप करना नहीं हो सकता है, क्योंकि वह तो अविश्वासियों के लिए होता है। इसलिए, हम इस पहली आरम्भिक बात के वाक्यांश को फिर से देखते हैं, कि वहाँ क्या लिखा गया है; वहाँ लिखा है “मरे हुए कामों से मन फिराना।” जैसे उद्धार के लिए मन फिराने या पश्चाताप करने का अर्थ होता है साँसारिक और पापमय जीवन को पूर्णतः त्याग देना और उससे अपना मुँह फेर लेना, उसी प्रकार से पवित्र आत्मा इस पत्री के लेखक में होकर परमेश्वर के लोगों, परमेश्वर की सन्तानों से यह आग्रह कर रहा है कि जिन कामों में वे लगे हुए हैं, जो उनकी कोई सहायता नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनकी हानि ही कर रहे हैं, उन्हें पूर्णतः त्याग दें, उन कामों से मुँह फेर लें।

    ध्यान कीजिए कि इब्रानियों 5:11-12 पर विचार करते समय हमने देखा था कि ये इब्रानी विश्वासी, उनके उद्धार पाने के समय के आधार पर उनसे रखी गई अपेक्षाओं से, किसी कारणवश बहुत बुरी तरह से पिछड़ गए थे। और अब वे जो भी कर रहे थे, वह उनकी आत्मिक उन्नति में कोई सहायता नहीं कर रहा था, बल्कि उन्हें उनके आत्मिक जीवनों में और पीछे खींच रहा था। साथ ही उस समय की परिस्थितियों पर भी विचार कीजिए; जैसा कि प्रेरित यूहन्ना ने लिखा है, “हे प्रियो, हर एक आत्मा की प्रतीति न करो: वरन आत्माओं को परखो, कि वे परमेश्वर की ओर से हैं कि नहीं; क्योंकि बहुत से झूठे भविष्यद्वक्ता जगत में निकल खड़े हुए हैं” (1 यूहन्ना 4:1; साथ ही 1 यूहन्ना 2:18 पर भी ध्यान कीजिए); और प्रेरित पौलुस ने 2 कुरिन्थियों 11:13-15 में सचेत किया है कि शैतान और उस के लोग कलीसियाओं में मसीह के झूठे प्रेरित, छल से काम करने वाले, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का रूप धरकर घुस आते हैं। इस प्रकार से पहली कलीसिया के समय से लेकर आज तक भी, उस समय से लेकर जब लोग मसीही विश्वास में प्रभु के प्रेरितों द्वारा लाए और वचन सिखाए जा रहे थे, शैतान अपने लोगों को कलीसियाओं में घुसाने और गलत शिक्षाओं तथा झूठे सिद्धान्तों को सिखाने में लगा हुआ है, और लोगों को बहका और भरमा रहा है (2 कुरिन्थियों 11:3), कि वे वास्तविक मसीही विश्वास के और परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं के मानने वाले नहीं रहें। पौलुस गलतिया के विश्वासियों को बड़े दुःख के साथ लिखता है, “हे निर्बुद्धि गलतियों, किस ने तुम्हें मोह लिया है? तुम्हारी तो मानों आंखों के सामने यीशु मसीह क्रूस पर दिखाया गया!” (गलतियों 3:1); और “पर अब जो तुम ने परमेश्वर को पहचान लिया वरन परमेश्वर ने तुम को पहचाना, तो उन निर्बल और निकम्मी आदि-शिक्षा की बातों की ओर क्यों फिरते हो, जिन के तुम दोबारा दास होना चाहते हो? तुम दिनों और महीनों और नियत समयों और वर्षों को मानते हो। मैं तुम्हारे विषय में डरता हूं, कहीं ऐसा न हो, कि जो परिश्रम मैं ने तुम्हारे लिये किया है व्यर्थ ठहरे” (गलतियों 4:9-11)।

    इसलिए यह बाइबल की स्पष्ट शिक्षा है कि मसीहियत के आरम्भ से ही, शैतान सक्रिय होकर अपनी विभिन्न युक्तियों के द्वारा विश्वासियों को बहकाता और भरमाता आया है कि वे आत्मिक जीवन में उन्नति न करने पाएँ। शैतान की इन युक्तियों का आधार मसीही विश्वासियों को ऐसी बातों को करने में उलझा देना है जो उन्हें परमेश्वर के वचन के अध्ययन और पालन करने से दूर रखें, ताकि वे सही आत्मिक खुराक प्राप्त न कर सकें। शैतान लोगों को भरमाता है कि अनेकों प्रकार के “धर्म के कार्यों” और भले कामों को करने के द्वारा, जिन में से अधिकाँश परमेश्वर की ओर से लोगों को सौंपे गए नहीं होते हैं, बल्कि लोगों ने स्वयं ही अपने लिए चुन और निर्धारित कर लिए होते हैं, वे परमेश्वर को प्रभावित करने पाएंगे, उससे प्रशंसा और आशीष प्राप्त कर लेंगे, जो कि बाइबल के अनुसार एक झूठी शिक्षा है। ये बहकाए और भरमाए हुए लोग यह एहसास नहीं करते हैं कि अदन की वाटिका के समय से ही, परमेश्वर ने केवल एक ही बात मनुष्य से चाही है कि वह परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता करे; और मनुष्य जब भी पाप में गिरा है, वह हमेशा इसी बात, परमेश्वर और उसके वचन की अनाज्ञाकारिता के कारण ही हुआ है, जो कि परमेश्वर के वचन के स्थान पर मनुष्य के वचन और मनुष्य के वचन की आज्ञाकारिता ले आने के कारण होता है। परमेश्वर के वचन के स्थान पर रखे गए मनुष्य के वचन और उनकी आज्ञाकारिता कभी भी परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं होती है; परमेश्वर उस से कभी प्रसन्न नहीं होता है (यशायाह 1:11-16 – इन पदों में परमेश्वर द्वारा ‘तुम्हारे’ के उपयोग पर विशेष ध्यान कीजिए), वे सभी व्यर्थ और निष्फल रहते हैं। यही वे “मरे हुए काम” हैं जिन्हें करने के लिए शैतान मसीही विश्वासियों को बहकाता और भरमाता है, परमेश्वर की आज्ञाकारिता के स्थान पर उन बातों का पालन करवाता है। यही वह पहली आरंभिक बात है जिसे सीखना और जिसका पालन किया जाना चाहिए – प्रत्येक मसीही विश्वासी को उन से मन फिराना चाहिए – उन्हें पहचान और स्वीकार कर के, उन्हें पूर्णतः त्याग देना चाहिए, उनसे मुँह मोड़ लेना चाहिए; उन सभी “मरे हुए कामों” से अलग हो जाना चाहिए जो उसे परमेश्वर के वचन का अध्ययन और पालन करने से रोकते हैं।

    अगले लेख में हम बाइबल से “मारे हुए कामों” के कुछ उदाहरणों को देखेंगे, जिन से पश्चाताप करने की आवश्यकता है; ऐसे काम जो उन लोगों के लिए समस्याओं और आशीषों को गँवाने का कारण बने, उन लोगों को लगता था कि उन बातों का पालन करने के द्वारा वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं, किन्तु वास्तव में वे अनजाने में शैतान के कहे के अनुसार चल रहे थे।    

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


The Elementary Principles – 5

Repentance From Dead Works - 1

 

    In the previous article, we have seen how the beginning of the study on the elementary principles shows patience and perseverance as attributes of God. This places before the Christian Believers, the followers of the Lord Jesus, an example to be followed; i.e., not to easily give up on anyone, but to be patient, persevere with them, help and nurture them through their weaknesses and short-comings, and God in His time, will make people bring fruit for His Kingdom and glory. Today we will start studying the first of the six elementary principles mentioned in Hebrews 6:1-2, i.e., “repentance from dead works.”

    When reading this phrase, often, the tendency is to concentrate only upon the first word – ‘repentance’ and assume what is written is about repenting from sins for salvation, or for being restored in fellowship with God. Instead, careful attention should be paid to the remaining parts of the phrase, and it should be seen what the phrase actually is saying. Remember, this letter has been written to Christian Believers; therefore, they have already been through the process of repenting from their sins to become the children of God. Also, as we have seen from Hebrews 5:11-14, the context is not their salvation, but their spiritual growth and maturity. These Hebrew Believers have slipped up in their spiritual growth, and declined so much that now they are like spiritually newly born children, and they need to be fed the ‘milk’ i.e., the basics of Christian faith. They have been Born-Again, they have come into the Christian faith, but now they need to be taught the basics of the faith and nurtured in their spiritual lives once again like newly Born-Again children of God. With this in mind, we can see that for them the mention of repentance cannot be the repentance for salvation; which is meant for the unbelievers. Therefore, let us look at the phrase of the first elementary principle again, it says “repentance from dead works.” Just as for salvation, to repent means to give up and totally turn away from the worldly and sinful life, similarly, the Holy Spirit, through the author of this letter, is appealing to the people of God, the children of God to repent, i.e., to give up and totally turn away from what they had got involved in doing, which was not helping, but only harming them.

    Recall that while considering Hebrews 5:11-12 we had seen that these Hebrew Believers, for some reason, had fallen terribly short of the expectations that were from them, according to their time since being saved. Now, whatever they were doing was not building them up spiritually, but was only pulling them down in their spiritual lives. Also consider the circumstances around them at that time; as the Apostle John says, “Beloved, do not believe every spirit, but test the spirits, whether they are of God; because many false prophets have gone out into the world” (1 John 4:1; see also 1 John 2:18); and the Apostle Paul has cautioned in 2 Corinthians 11:13-15 that Satan and his people infiltrate the Church in the form of false apostles of Christ, deceitful workers, ministers of righteousness, angel of light etc. So, since the time of the first Church, and even within the Believers being brought into the Christian faith and being taught God’s Word through the Apostles, till today, Satan had infiltrated his people into the Church to spread false teachings, wrong doctrines, and beguile people away (2 Corinthians 11:3) from following the true Christian faith and the true teachings of God’s Word. Paul laments in Galatians 3:1 “O foolish Galatians! Who has bewitched you that you should not obey the truth, before whose eyes Jesus Christ was clearly portrayed among you as crucified?” and, “But now after you have known God, or rather are known by God, how is it that you turn again to the weak and beggarly elements, to which you desire again to be in bondage? You observe days and months and seasons and years. I am afraid for you, lest I have labored for you in vain”).

    So, the teaching of the Bible is clear that from the very beginning of Christianity, Satan has been actively deceiving and beguiling the Believers, through his various ploys, so that the Believers do not grow spiritually. The mainstay of these satanic ploys is to entangle the Christian Believers in various other things that keep them away from studying and following God’s Word, and thereby not allow them to receive proper spiritual nourishment. Satan deceives people into thinking that by doing various “religious” activities and good works, most of which are not God given to them but are those that they have thought and planned out for themselves, they will be able to impress God, gain His favor and blessings; which is a Biblically false teaching. But what these beguiled people do not realise is that since the Garden of Eden, all God has wanted from man has only been obedience to Him and His Word; and whenever man has fallen away, he has fallen away because of disobeying God and substituting God’s Word, God’s instructions by man’s word and instructions. Man’s words and instructions replacing God’s Word and instructions, are never accepted and blessed by God; they never please God (Isaiah 1:11-16 – take not of the use of ‘your’ by God in these verses), they remain vain and fruitless. These are the “dead works” – the vain and fruitless works that Satan beguiles the Christian Believers into indulging in, at the cost of obeying God. This is the first elementary principle to be leant and followed – every Christian Believer should repent – acknowledge and totally turn away, totally reject all “dead works” and then stay away from all that keeps him from studying God’s Word and applying it in his life.

    In the next article we will see some examples from the Bible of the “dead works” that need to be repented of; works that brought problems and loss of blessings for those who thought they were serving God through them, but actually, unknowingly they had been obeying Satan through those works.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें