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आरम्भिक बातें – 27
बपतिस्मों – 6
बपतिस्मे का उद्देश्य (1)
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से तीसरी, “बपतिस्मों” के हमारे इस अध्ययन में, पिछले लेखों में परमेश्वर के वचन बाइबल का अध्ययन तथा व्याख्या करने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों, तथा कुछ प्रारंभिक बातों को देखने के पश्चात, जिनसे हमें बपतिस्मे के बारे में सीखने में सहायता मिलेगी, आज से हम इसके बारे में बाइबल से अध्ययन आरंभ करेंगे। जैसा कि हम पिछले लेखों में देख चुके हैं, रीति के अनुसार शुद्ध होने के लिए जल द्वारा धोए जाने और स्नान करने से यहूदी भली भांति परिचित थे। साथ ही वे पाप से भीतरी सफाई के प्रतीक के रूप में जल द्वारा बाहरी धोए जाने को भी जानते और मानते थे (यशायाह 1:16; ज़कर्याह 13:1; यूहन्ना 13:10; इब्रानियों 10:19-22; तीतुस 3:4-7)। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के अन्दर हुए भीतरी परिवर्तन का बाहरी प्रकटीकरण और चिह्न होना भी अनिवार्य था। प्रभु यीशु मसीह ने अपने ‘पहाड़ी उपदेश’ में अपने शिष्यों से उनके भीतरी परिवर्तन के बाहरी प्रकटीकरण, बाहरी विदित प्रमाण की अनिवार्यता के बारे में कहा (मत्ती 5:14-16)। बाद में प्रेरितों ने भी अपने लेखों में इस बाहरी प्रकटीकरण का, प्रभु यीशु का शिष्य हो जाने का संसार के सामने चिह्न रखने का उल्लेख किया (रोमियों 12:1-2; 1 पतरस 1:14-16)। इन बातों को ध्यान में रखते हुए, हम बपतिस्मे को उस रूप में देखते हैं, जैसा वह आरंभ में होता था।
बाइबल में बपतिस्मे का प्रथम लेख मत्ती 3 में है। हम यहाँ पर पद 1-8 में देखते हैं कि दो श्रेणी के लोग यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के पास बपतिस्मे के लिए आए थे। पद 5-6 यरूशलेम, यहूदिया, और यरदन के आस-पास के सारे देश से जन-साधारण के लोग; और पद 7 में यहूदियों के धार्मिक अगुवे, फरीसी और सदूकी। पद 6 के जन-साधारण के लोगों को यूहन्ना ने यरदन नदी में बपतिस्मा दिया, किन्तु पद 7 के फरीसियों और सदूकियों को लौटा दिया। यहाँ इन पदों में कुछ है जो हमारे आज के इस अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है। जन-साधारण के लोगों ने “अपने अपने पापों को मानकर”; अर्थात उन्होंने अपनी भीतरी दशा को छिपाया नहीं, वरन उसे खुलकर मान लिया, और यूहन्ना ने उन्हें बपतिस्मा दे दिया – जो उनके पापों को मानने और उनके लिए पश्चाताप करने से उनके अन्दर हुए भीतरी परिवर्तन का बाहरी प्रतीक या चिह्न हुआ। लेकिन ऐसा कोई भी अंगीकार फरीसियों या सदूकियों की ओर से नहीं आया; बहुत संभव है कि उन्होंने इसे एक रस्म के अनुसार लिया, और वे केवल लोगों को दिखाने और उनकी प्रशंसा का पात्र बनने के लिए (मत्ती 23:5) बपतिस्मा लेना चाहते थे। लेकिन यूहन्ना ने उनके इस पाखण्ड पूर्ण रवैये के लिए उन्हें डाँटा, और उनसे कहा कि वे पहले “मन फिराव के योग्य फल लाओ” (मत्ती 3:8) उसके बाद बपतिस्मा लें; अर्थात, यूहन्ना उनसे उनके अंदर हुए परिवर्तन के बाहरी प्रमाण की माँग कर रहा था। जन-साधारण के लोगों ने अपने पापों के खुलकर अंगीकार करने के द्वारा यह प्रमाण दे दिया, किन्तु उन धार्मिक अगुवों से यूहन्ना ने उनके जीवन और व्यवहार के द्वारा इस परिवर्तन की माँग की।
इसलिए, प्रथम प्रयोग या प्रथम उल्लेख के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, हम सीखते हैं कि बपतिस्मा केवल पापों के लिए पश्चाताप के द्वारा हुए भीतरी परिवर्तन को दिखाने वाले व्यक्ति को ही, उसके बाहरी चिह्न या प्रतीक के रूप में दिया जाता था। जिसे बपतिस्मा दिया जाता था, वह अपने पापों का सार्वजनिक रीति से अंगीकार और उनके लिए पश्चाताप करने की बात को मानता था, और यूहन्ना उन्हें बपतिस्मा दे देता था। किन्तु जो लोग पाखंडी जीवन जीने के लिए जाने जाते थे, जो केवल रीति को पूरा करने या लोगों को दिखाने भर के लिए बपतिस्मा लेना चाहते थे, उन्हें वापस लौटा दिया गया। लेकिन उनके लिए द्वारा खुला छोड़ा गया; वे बपतिस्मा लेने के लिए वापस आ सकते थे। किन्तु तब, जब वे अपने जीवनों तथा व्यवहार से अपने भीतरी परिवर्तन को बाहरी रूप में दिखाते, तथा औरों के समान सार्वजनिक रीति से अपने पापों का अंगीकार करने को तैयार होते। यहाँ पर परमेश्वर के वचन में दिए गए क्रम पर ध्यान दीजिए - पहले पश्चाताप, फिर बपतिस्मा। बपतिस्मे से न तो कोई धर्मी बना, और न किसी पश्चाताप किया; लेकिन जो पश्चातापी थे, केवल उन्हीं को बपतिस्मा दिया गया। यह उस बात की पुष्टि करता है जिसे हमने इन शृंखला के आरंभ में कहा था - बपतिस्मा किसी को धर्मी या परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बनाता है; वरन जो परमेश्वर को स्वीकार्य और धर्मी बन चुके हैं, उन्हें अपने अन्दर आए इस परिवर्तन की गवाही देने के लिए बपतिस्मा लेना है। हम इस बात और इसी पुष्टि को आगे के लेखों में भी देखेंगे, प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को अपने स्वर्गारोहण से पहले दी गई “महान आज्ञा” के निर्देशों के संदर्भ में। किन्तु इस अति-महत्वपूर्ण तथ्य की आज रस्म के समान लिए और दिए जाने वाले बपतिस्मों में पूर्णतः अनदेखी की जाती है, और ईसाई या मसीही धर्म के अगुवे अपने लोगों और समुदायों को यह बिल्कुल झूठी और बाइबल के विपरीत बात बताते और सिखाते हैं कि डिनॉमिनेशन की रीतियों के अनुसार किसी भी स्वरूप में दिया गया बपतिस्मा “ईसाई” या “मसीही” बना देता है और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने के योग्य कर देता है। यह धर्म के नाम पर पढ़ाया और सिखाया जाने वाला एक ऐसा झूठ है जिस ने इस झूठे और बाइबल के विपरीत आश्वासन के कारण असंख्य लोगों को अनन्तकालीन नरक के मार्ग पर डाल दिया है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 27
Baptisms - 6
The Purpose of Baptism (1)
In our study of “Baptisms,” the third of the six elementary principles from Hebrew 6:1-2, and having seen some important principles of studying and interpreting God’s Word the Bible, and some preliminary considerations that will help us understand about baptism, from today we will start studying about it, from God’s Word the Bible. As we have seen in the earlier articles, the Jews were quite familiar with the use of water for ceremonial cleansing, in the form or bathing or washing. Moreover, outside cleansing with water was also known and accepted as symbolical of the inner cleansing from sin (Isaiah 1:16; Zechariah 13:1; John 13:10; Hebrews 10:19-22; Titus 3:4-7). In other words, an external representation and sign to witness to others of the inner change within the person was also necessary. The Lord Jesus said in His ‘Sermon on the Mount’ that this external witnessing, this external evidence, of the inner transformation of His followers is essential (Matthew 5:14-16). Later the Apostles in their writings too spoke of this external witnessing, of presenting to the world an external sign of becoming followers of the Lord Jesus (Romans 12:1-2; 1 Peter 1:14-16). With this in mind, let us look at the baptism as it was initially practiced.
The first Biblical record of baptism is in Matthew 3. We see here in verses 1-8 that basically two categories of people came to John the Baptist to be baptized. Verse 5-6 speaks of the common people residing in Jerusalem, Judea, and the region around Jordan; and verse 7 talks about the religious leaders of the Jews, the Pharisees and the Sadducees coming to him to be baptized. The common people of verse 6, were baptized by John in the river Jordan, but he turned away the Pharisees and Sadducees of verse 7. There is something here in these verses, that is of relevance for our today’s study. The common people were baptized, “confessing their sins,” i.e., they did not hide their actual inner state, but openly confessed it, and John baptized them - an external sign of an inner transformation by acknowledging of personal sins and repenting of them. But no such confession coming from the Pharisees and Sadducees is recorded here; they quite likely took it as a formal ritual, and wanted to undergo baptism to be seen and praised by people for doing it (Matthew 23:5). But John roundly condemned them for their hypocritical attitude, and asked them to first “bear fruits worthy of repentance” (Matthew 3:8), i.e., John asked for external evidence of an inner change from them. The common people provided the evidence by their confession, but from the religious leaders John asked that it should come through their works and living.
So, from the principle of the first use, we see that baptism was only given as a sign of acknowledging an inner transformation of repentance for sins by a person. The person being baptized, publicly confessed his sins and repentance, and John then baptized them. Those who were known for their hypocritical living, who wanted to take it merely to fulfil a ritual, to only show to the people, were turned away. The door to those who were turned away was left open; they could come back for baptism, provided they exhibited their inner transformation through their lives and behavior, and like the others were ready to publicly confess their sins. Take careful note the sequence that is given here in God’s Word - first repentance, then baptism. Baptism did not make anyone righteous or penitent; but those who were penitent, only they were baptized. This affirms what we had said at the beginning of this series - baptism does not make a person righteous and acceptable to God; rather, those who have become righteous and acceptable to God, they are to take baptism to witness for the change that has come within them. We will see this point coming up again and being affirmed once again in the subsequent articles, in context of the Lord Jesus’s instructions to His disciples in His “Great Commission” before His ascension. But this very important point is largely ignored in the ritualistic baptism done today, and the religious leaders of Christian religion convey to the congregation an absolutely unBiblical and false impression that ‘baptism,’ administered in whatever denominational form, makes one a “Christian” and worthy to be admitted to the Kingdom of God. This is a lie preached and taught in the name of religion that has created a false and unBiblical assurance in countless people and put them on the road to eternal hell.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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