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बुधवार, 26 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 112

 

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आरम्भिक बातें – 73

मरे हुओं का जी उठना – 8


मसीह के पुनरुत्थान के अभिप्राय

 

पिछले कुछ लेखों में, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई पाँचवीं आरम्भिक बात “मरे हुओं का जी उठना” के अध्ययन में, हम ने प्रभु यीशु मसीह के मृतकों में जी उठने के महत्व के बारे में तीन शीर्षकों के अन्तर्गत देखा है कि, यह भविष्यवाणी किया हुआ है; यह प्रमाणित है; यह परमेश्वर की सामर्थ्य है। जैसा कि हम बल देते चले आ रहे हैं, यह अनिवार्य है कि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी प्रभु के पुनरुत्थान के बारे में जाने और सीखे, क्योंकि यह मसीही विश्वास की धुरी है। पुनरुत्थान के बिना मसीही विश्वास का कोई अस्तित्व नहीं है। इसी लिए, शैतान पुनरुत्थान और उस के अभिप्रायों पर हमले करता रहता है, जिस से कि लोगों में उस के प्रति एक सन्देह बना रहे, और उन्हें बहकाया-भरमाया जा सके। शैतान की इन झूठी शिक्षाओं का खण्डन करने के लिए, और विश्वासियों के पुनरुत्थान के बारे में समझने के लिए, प्रत्येक मसीही विश्वासी को अपने में प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के तथ्यों और अभिप्रायों से भली-भाँति अवगत होना चाहिए। जैसा हम पहले, जब इस पाँचवीं आरम्भिक बात का अध्ययन आरम्भ किया था, तब कह चुके हैं, बाइबल में 1 कुरिन्थियों 15 अध्याय, पुनरुत्थान का अध्याय है – पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित में हो कर मसीही विश्वासियों के पुनरुत्थान के बारे में अधिकाँश शिक्षाएँ परमेश्वर के वचन के इसी अध्याय में दी हैं। अगले लेख से हम इस अध्याय में मसीही विश्वासियों के लिए दी गई शिक्षाओं पर विचार करना आरम्भ करेंगे। आज, हम देखेंगे कि प्रभु के पुनरुत्थान का सारे सँसार के सभी लोगों के लिए, वे चाहे विश्वासी हों या अविश्वासी, क्या अभिप्राय है।

बाइबल, परमेश्वर का वचन, यह बिलकुल स्पष्ट कर देता है कि प्रभु यीशु के पुनरुत्थान का महत्व केवल प्रभु यीशु के अनुयायियों ही के लिए नहीं है, किन्तु समस्त सँसार के सभी लोगों के लिए है। मसीह यीशु का पुनरुत्थान, परमेश्वर द्वारा सभी लोगों के लिए दिया गया प्रमाण और सम्पूर्ण मानवजाति के लिए एक अवश्यंभावी बात की चेतावनी है, जैसा कि प्रेरितों 17:30-31 में लिखा है, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है। क्योंकि उसने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रमाणित कर दी है।” इस खण्ड का प्रकट तात्पर्य है कि प्रभु यीशु का पुनरुत्थान सँसार के सभी लोगों के लिए चेतावनी है कि समस्त सँसार का न्याय अवश्यंभावी है। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार से प्रभु यीशु के पुनरुत्थान का इनकार नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार से प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के परिणाम, सँसार के अवश्यंभावी न्याय, का भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

और यह सामान्य समझ और साधारण तर्क की बात भी है; यदि लोगों ने जो अपने जीवनों में किया है उसका कोई न्याय नहीं होना है, यदि परमेश्वर ने लोगों से उस के द्वारा उन्हें दिए गए गुणों और योग्यताओं के उपयोग का, और लोगों ने अपना जीवन कैसे बिताया, इस का कोई हिसाब-किताब नहीं लेना है, और सँसार के लोगों को उन के किये के अनुसार के परिणाम नहीं भुगतने हैं, तो फिर परमेश्वर पुत्र को स्वर्ग का अपना वैभव और महिमा छोड़ कर पृथ्वी पर आने, पापियों द्वारा अपमानित होने, दुःख उठाने और मानवजाति के उद्धार के लिए अपना जीवन बलिदान करने की, ताकि लोगों के पास उस अंतिम न्याय के परिणामों से बचने का मार्ग उपलब्ध हो, क्या आवश्यकता थी?

प्रभु यीशु के पुनरुत्थान को मानवजाति के सामने प्रमाण के रूप में रखने के द्वारा परमेश्वर “अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” – सब का अर्थ है सब; कोई अपवाद नहीं, कहीं पर भी किसी के भी लिए किसी प्रकार की कोई छूट नहीं; चाहे उन का धर्म (चाहे ईसाई या मसीही धर्म ही क्यों न हो), देश, भाषा, विश्वास, रंग, शिक्षा, स्तर, आदि कुछ भी क्यों न हो। क्योंकि परमेश्वर चाहता है कि सभी बच जाएँ “वह यह चाहता है, कि सब मनुष्यों का उद्धार हो; और वे सत्य को भली भांति पहचान लें” (1 तीमुथियुस 2:4); इसीलिए, यह परमेश्वर की आज्ञा भी है कि सभी को पापों से पश्चाताप भी करना है, और अभी करना है, जब यह करने का समय और अवसर उपलब्ध है (इब्रानियों 3:7-8, 12-15)। जैसे कि इब्रानियों के इस खण्ड के ये पद कहते हैं, प्रिय पाठक, आज ही यह कर लें, अभी इसे कर लें; पाप को अपने हृदयों को कठोर नहीं करने दें, बहकाने नहीं दें; परमेश्वर कहता है कि अभी कर लें। क्योंकि न्याय का वह समय आ रहा है, और उस समय मसीह यीशु उद्धारकर्ता प्रभु नहीं बल्कि धर्मी और निष्पक्ष न्यायी होगा, और तब, उस समय, किसी के भी पास फिर पश्चाताप करने का कोई अवसर नहीं होगा। प्रभु यीशु मसीह ने लूका 16:19-31 में दिए गए दृष्टान्त में, अब्राहम द्वारा यही बात उस धनी व्यक्ति से कही थी। यह न्याय अन्तिम होगा, अपरिवर्तनीय होगा, और कभी पलटा नहीं जाएगा, जैसा कि दृष्टान्त में अब्राहम ने कहा, “और इन सब बातों को छोड़ हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गड़हा ठहराया गया है कि जो यहां से उस पार तुम्हारे पास जाना चाहें, वे न जा सकें, और न कोई वहां से इस पार हमारे पास आ सके” (लूका 16:26)। मसीह यीशु ने कहा है कीकि पापों को क्षमा करने का अधिकार यहाँ पृथ्वी पर है (मत्ती 9:6; मरकुस 2:10; लूका 5:24); एक बार इस पृथ्वी से गए, फिर उस के बाद पापों से क्षमा का कोई अवसर नहीं है।

निवेदन है की कृपया परमेश्वर के वचन और विनती को हलके में लेने, उस की अनदेखी करने के दोषी न हों; उस की बात को मान लें, अन्यथा परिणाम बहुत बुरे होंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 73

Resurrection of the Dead – 8


Implications of Christ’s Resurrection


In the last few articles, in our study on the fifth elementary principle, “Resurrection of the Dead,” given in Hebrews 6:1-2, we have studied about the importance of the resurrection of the Lord Jesus Christ under three headings: it was prophesied; it was proven; it is the power of God. As we have been emphasizing, it is necessary that every Born-Again Christian Believer learn and understand about the Lord’s resurrection, since it is the pivotal point of Christian faith. Without the resurrection, the Christian Faith cannot exist. Therefore, Satan keeps attacking the resurrection and its implications, to create doubts and mislead people, so that they do not become the disciples of the Lord Jesus. To counter these satanic false teachings, and to understand about the Believer’s resurrection, every Christian believer must be clear in their minds about the fact and implications of the Lord Jesus’s resurrection. As we had said earlier, when starting the study of this fifth elementary principle, 1 Corinthians 15 is the “Resurrection chapter” of the Bible – the Holy Spirit, through the Apostle Paul has given most of the teachings related to the resurrection of the Christian Believers in this chapter of God’s Word. From the next article, we will start considering the things mentioned in this chapters for the learning of the Believers. Today we will see what the Lord’s resurrection implies for all the people of the world, whether Believers, or non-Believers.

God’s Word the Bible makes it very clear that the implications of the resurrection of the Lord Jesus are not just for the followers of the Lord Jesus, but are for the whole world. The Resurrection of Christ Jesus is God's proof and a wake-up call for something inescapable for the whole of mankind as is written in Acts 17:30-31 “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent, because He has appointed a day on which He will judge the world in righteousness by the Man whom He has ordained. He has given assurance of this to all by raising Him from the dead.” The evident understanding of this passage is that the resurrection of the Lord Jesus warns all people of the world about the inevitable impending judgment of the whole world, of all of mankind. In other words, just as the resurrection of the Lord Jesus is an undeniable fact, similarly the impending judgement of the world, as a consequence of the Lord’s resurrection is also an inevitable fact.

And it stands to reason, to simple common sense; if there was to be no judgement of what people have done in their lives, had there been no taking of an account by God from the people of the world about how they have spent their lives and what they have done with their God given abilities, and no handing out the consequences of the judgement to the people of the world, then why would God the Son need to empty Himself of all His heavenly glory, come down to earth, be humiliated by sinners, suffer and sacrifice His life for salvation of mankind, so that the people of the world are provided a way to be saved from the consequences of this final judgement that they will have to go through?

Keeping the resurrection of Lord Jesus as proof before mankind, God "COMMANDS ALL MEN EVERYWHERE TO REPENT" - all means all; no exception, no concession to anyone, anywhere; no matter what their religion (including the christian religion), nation, language, belief, color, education, status etc. may be. Because it is God's desire that all be saved, “who desires all men to be saved and to come to the knowledge of the truth” (1 Timothy 2:4); therefore, it is God has also commanded that everyone must repent, and repent now while there is time and opportunity to do so (Hebrews 3:7-8, 12-15). As these verses from Hebrews say, dear reader, please do it today, do it now; don't let sin harden your hearts or beguile you; Satan will have you postpone it, ignore it, laugh it away, but God says do it now. Because a time of judgment is coming, at that time Christ Jesus will not be the Savior Lord but the Righteous impartial Judge, and at that time there will not be any opportunity for repentance for anybody, as Abraham said to the rich man in the parable told by the Lord Jesus in Luke 16:19-31. This judgment will be final, unalterable, and irreversible, as Abraham says in this parable "And besides all this, between us and you there is a great gulf fixed, so that those who want to pass from here to you cannot, nor can those from there pass to us" (Luke 16:26). Christ Jesus said that the power for forgiveness of sins is here on earth (Matthew 9:6; Mark 2:10; Luke 5:24); once out of this earth, the forgiveness of sins is no longer possible.

Please do not be found guilty of taking God's appeal and command lightly; obey Him, or the consequences will be grave.

   If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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