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आरम्भिक बातें – 88
विश्वासियों का न्याय – 2
पिछले लेख में, छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय” पर विचार करते हुए, हमने लेख का अन्त इस दावे के साथ किया था कि बाइबल में जिस अन्तिम न्याय की बात की गई है, वह, सामान्य समझ और धारणा के विपरीत, मुख्यतः वास्तव में नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का होगा। आज हम इसे परमेश्वर के वचन से देखना आरम्भ करेंगे, और जैसे-जैसे हम इस विषय में आगे बढ़ते जाएँगे, हम इस से जुड़ी हुई कुछ अन्य बाइबल की बातों को भी देखेंगे, जिन को लेकर इस दावे के साथ दुविधा हो सकती है। आगे बढ़ने से पहले, हमें दो शब्दों के उपयोग करने को लेकर एक तथ्य को समझना आवश्यक है। बहुधा, ये दोनों शब्द अदल-बदल कर, पर्यायवाची शब्दों के समान उपयोग किए जाते हैं, किन्तु वास्तव में उनके अर्थों में कुछ भिन्नता है, तथा वे हमेशा ही अदल-बदल कर, पर्यायवाची शब्दों के समान उपयोग नहीं किए जा सकते हैं। ये शब्द हैं “न्याय” और “दण्ड” और सामान्यतः न्याय का अर्थ दण्ड देना मान लिया जाता है। किन्तु वास्तव में किसी का न्याय करना, या किसी को न्याय के लिए सौंपने का अर्थ होता है कुछ निर्धारित मानकों के अनुसार उस व्यक्ति की जाँच-पड़ताल करना, उपलब्ध और खोजे गए प्रमाणों के आधार पर उस व्यक्ति का आँकलन करना, और फिर जाँच-पड़ताल तथा आँकलन के आधार पर उस व्यक्ति को एक परिणाम देना। यह दिया जाने वाला परिणाम दण्ड हो सकता है, पुरस्कार हो सकता है, या उसे आरोप से बरी करना हो सकता है। इस प्रकार से, दण्ड देना, न्याय के सम्भव परिणामों में से एक है। किन्तु आम तौर से लोग किसी का न्याय करने का अर्थ उसे दण्ड देना ही समझ लेते हैं।
उपरोक्त के आधार पर, और हमारे विषय “अन्तिम न्याय” तथा उस के संदर्भ में, कृपया इस खण्ड, यूहन्ना 3:16-18 में प्रभु यीशु द्वारा कही गई बात पर कुछ विचार कीजिए, और विशेषकर पद 18 पर, जिसे प्रमुख किया गया है, ध्यान दीजिए, “क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिये नहीं भेजा, कि जगत पर दण्ड की आज्ञा दे परन्तु इसलिये कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए। जो उस पर विश्वास करता है, उस पर दण्ड की आज्ञा नहीं होती, परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहर चुका; इसलिये कि उसने परमेश्वर के एकलौते पुत्र के नाम पर विश्वास नहीं किया।” परमेश्वर ने समस्त मानवजाति के बचाए जाने, उद्धार पाने के लिए प्रावधान किया है, और उसे सभी के लिए मुफ्त उपलब्ध करवा दिया है। जो कोई भी परमेश्वर के प्रावधान को स्वीकार करता है, और प्रभु यीशु में विश्वास करता है, वह, उसी पल से जिस पल उसने स्वीकार किया और विश्वास किया, बचाया गया या उद्धार पाया हुआ बन जाता है, परमेश्वर की सन्तान बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13), और हमेशा के लिए पाप के दोष से मुक्त हो जाता है। लेकिन जो अपने सारे जीवन भर परमेश्वर के प्रावधान को स्वीकार नहीं करता है, उस में विश्वास नहीं करता है, और उसी अस्वीकार करने तथा अविश्वास करने की दशा में ही मर जाता है, वह अपने सारे जीवन भर दण्ड की आज्ञा के अन्तर्गत जिया, उसी स्थिति में मरा, और अब उसी को भोगने के लिए अनन्त दण्ड की दशा में चला गया है। उस की यह दशा अब कभी नहीं बदली जाएगी, कभी पलट नहीं सकती है। उसकी इस स्थिति का बदलना, इस पृथ्वी पर तो सम्भव था; यदि जीवन के किसी भी पल में वह परमेश्वर के प्रावधान को स्वीकार कर लेता, प्रभु यीशु में विश्वास कर लेता तो स्थिति पलट जाती। लेकिन अस्वीकार करने और अविश्वास की दशा में सँसार से कूच करने के बाद, उस की आत्मा हमेशा के लिए नरक के दण्ड की भागी हो गई है, और यह दशा कभी बदलेगी नहीं, कभी पलटी नहीं जाएगी। अब इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है, ज़रा सा भी नहीं, कि उस ने पृथ्वी पर कैसा जीवन जीया है, और लोग उस के बारे में क्या कहते हैं, उसे कैसे याद करते हैं। चाहे उस ने बहुत भला जीवन जिया हो, या बहुत बुरा जीवन जिया हो, या वे केवल एक “सामान्य” प्रकार का व्यक्ति था, जो भी रहा हो, किन्तु क्योंकि उस ने परमेश्वर के प्रावधान का तिरस्कार किया है और प्रभु यीशु में अविश्वास किया है, इसलिए वह केवल दोषी और अनन्तकाल के लिए नरक के भागी ही माना जाएगा।
हम इसके निहितार्थों को अगले लेख में देखेंगे, और यह भी की यह बात न्याय विश्वासियों का होने पर न की अविश्वासियों के, किस प्रकार से लागू होती है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 88
Judgment of Believers – 2
In the last article, while considering the sixth elementary principle “Eternal Judgment,” we had closed with the assertion that the final judgment mentioned in the Bible, contrary to common belief and understanding, is essentially the judgment of the truly Born-Again Christian Believers. Today we will begin seeing this from God’s Word, and as we develop this theme, we will also consider some other related Bible texts that may seem to be confusing with this assertion. Before we proceed further, we need to realize a fact regarding the usage of two words; quite often these words are used interchangeably or as synonyms, but actually they have a difference in meaning, and cannot always be used interchangeably and synonymously. These two words are “judgment” and “punishment” and very often judgment is also taken to mean punishment. But actually speaking, to judge someone, or the carrying out of judgment of someone means evaluating that person for something, on the basis of some given criteria, ascertaining and weighing the evidence for or against that person, coming to a certain conclusion about the matter, and then awarding a result to that person based on the evaluation done and the conclusion reached. This result that is awarded can be a punishment, or a reward, or being acquitted of the allegation against that person. So, punishment is one of the possible concluding parts of the judgment or evaluation of the person. But usually, often judgment is taken to mean handing over a punishment to the person being judged.
In light of what has been said above, from our context, for our topic of discussion and learning, i.e., from the point of view of “Eternal Judgment,” please ponder over what the Lord Jesus has said in this passage, John 3:16-18, paying particular attention to verse 18, that has been made prominent: “For God so loved the world that He gave His only begotten Son, that whoever believes in Him should not perish but have everlasting life. For God did not send His Son into the world to condemn the world, but that the world through Him might be saved. He who believes in Him is not condemned; but he who does not believe is condemned already, because he has not believed in the name of the only begotten Son of God.” God has made a provision for all of mankind to be saved, and has made it freely available to everyone. Whosoever accepts God’s provision and believes in the Lord Jesus, from the moment of his accepting and believing, becomes a saved person, a child of God (John 1:12-13), and is set free from the condemnation of sin, forever. But those who do not accept and believe in God’s provision, all through their lives, and die in their state of non-acceptance and unbelief, they while they are alive on earth, as well as when they die and their soul reaches the next world, are in the state of condemnation, die in that state of condemnation, and reach the next world as those irreversibly and permanently condemned for eternity. Their change of state from being under condemnation to being saved could have been altered on earth; had they at any time accepted God’s offer and believed in the Lord Jesus. But not having accepted God’s offer, not having believed in the Lord Jesus, once they leave earth, the state of their soul becomes irrevocable, unchangeable, permanent; they are forever condemned to be in hell. Now, it matters little, rather, not at all, what kind of life they have lived on earth and what people say of them, and remember them to be. Whether they have led very good lives, or whether they have led very bad lives, or whether they have been just “ordinary” or “average” kind of people of the world, in any case, because they have rejected God’s provision and not believed in the Lord Jesus, they will only be considered condemned and sent to hell for eternity.
We will consider the implications of this in the next article, and see how it applies to the assertion that the judgment will be of Believers, and not of non-believers.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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