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गुरुवार, 5 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 181

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 26


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (1) 



मसीही विश्वासी की आत्मिक जीवन में बढ़ोतरी तथा कलीसिया की उन्नति के लिए परमेश्वर के वचन और निर्देशों का पालन अनिवार्य है। परमेश्वर, उसके वचन, तथा उसकी आज्ञाकारिता को व्यक्तिगत जीवन में प्राथमिकता दिए बिना, मसीही विश्वासी न तो अपने आत्मिक जीवन बढ़ सकता है, और न ही परमेश्वर द्वारा आशीषित रह सकता है। परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी पर यह श्रृंखला इसी विषय पर है। वर्तमान में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों, जिन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है, देख रहे हैं। परमेश्वर का वचन बाइबल हमें बताती है कि आरम्भिक मसीही विश्वासी इन चारों बातों में लौलीन रहते थे, और परिणामस्वरूप, विश्वासियों की संख्या में, आत्मिक जीवनों में बढ़ोतरी होती चली गई, और कलीसिया की उन्नति होती चली गई। पिछले लेखों में हम इन चार में से दो बातों, यत्न से और लौलीन होकर परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने तथा संगति रखने के बारे में सीख चुके हैं। आज से हम इस पद में दिए गए तीसरे स्तम्भ - “रोटी तोड़ना,” अर्थात प्रभु-भोज या प्रभु की मेज़ में भाग लेने के बारे में सीखना आरम्भ करेंगे। इस ब्लॉग के पूर्व के लेखों में, इस विषय पर एक विस्तृत लेख श्रृंखला, जिसमें पुराने नियम में निर्गमन 12 अध्याय और फिर नए नियम में प्रेरितों 11 अध्याय से फसह के पर्व तथा प्रभु-भोज से सम्बन्धित व्याख्या हैं, दी जा चुकी है। अभी हम प्रेरितों 11:17-34 से प्रभु की मेज़ में भाग लेने से सम्बन्धित बातों को देखेंगे।

 

प्रेरित पौलुस द्वारा कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी गई पहली पत्री में, परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रभु की मेज़ में भाग लेने के सम्बन्ध में मण्डली के लोगों में पाई जाने वाली भ्रांतियों, उनकी अधूरी समझ, और उनके अनुचित व्यवहार को प्रकट किया है, उनकी गलतियों के परिणाम और समाधान बताए हैं, तथा मेज़ में सही रीति से भाग लेने के बारे में निर्देश दिए हैं। आज भी मसीही विश्वासियों में प्रभु-भोज को लेकर कई गलतफहमियाँ पाई जाती हैं, और बहुत से मसीही विश्वासी इसे भी एक औपचारिकता के समान ही लेते हैं। साथ ही कुछ मसीही विश्वासियों में तथा पारम्परिक कलीसियाओं के अधिकाँश सदस्यों में यह गलत धारणा पाई जाती है कि प्रभु-भोज में भाग ले लेने से वे परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी, और स्वर्ग में प्रवेश के लिए योग्य हो जाते हैं। इस गलत धारणा का आधार उनका यह मानना है कि क्योंकि प्रभु-भोज में भाग ले लेने से उनके अन्दर प्रभु की अविनाशी देह और लहू के अंश हैं, इसलिए प्रभु के समान ही वे भी कभी नाश नहीं होंगे। और इसीलिए, जब भी उन कलीसियाओं में प्रभु-भोज दिया जाता है, उस दिन सभा में सम्मिलित होने वालों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। लेकिन उनकी इस मन-गढ़न्त धारणा का बाइबल से कोई आधार अथवा समर्थन नहीं है। इसीलिए परमेश्वर के वचन की यही शिक्षाएँ जो तब कुरिन्थुस की मण्डली के लिए आवश्यक और महत्वपूर्ण थीं, आज हमारे लिए भी उतनी ही आवश्यक और महत्वपूर्ण हैं, जितनी तब उन लोगों के लिए थीं।


इस विषय पर अपने इस संक्षिप्त अध्ययन में हम कुछ आवश्यक आरम्भिक बातों को और फिर प्रेरितों 11:17-34 के खण्ड में दी गई शिक्षाओं को निम्न सात बिन्दुओं के अन्तर्गत देखेंगे:

  1. प्रभु-भोज की पृष्ठ-भूमि 

  2. प्रभु-भोज की स्थापना 

  3. प्रभु-भोज के लिए तैयारी - एक फटकार - पद 17-22 

  4. प्रभु-भोज के लिए प्रभु के निर्देश - उद्देश्य - पद 23-26

  5. प्रभु-भोज में भाग लेने के निहितार्थ - भाग कैसे लेना है - पद 27-28 

  6. प्रभु-भोज में अनुचित रीति से भाग लेने के परिणाम - पद 29-30 

  7. अन्तिम टिप्पणियाँ - पद 31-34 


प्रभु की मेज़ में भाग लेना न तो कोई हल्की बात है, और न ही इसे औपचारिकता के समान निभाया जा सकता है। योग्य रीति से मेज़ में भाग लेने की आशीषें भी हैं, लेकिन अनुचित रीति से भाग लेने के भयानक दुष्परिणाम भी हैं। इस मेज़ के बारे में सामान्यतः देखी जाने वाली धारणाओं के विपरीत, न तो मेज़ में भाग लेने से कोई मसीही विश्वासी बनता है, न ही परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरता है, और न ही भाग लेने वाले का स्वर्ग में प्रवेश निश्चित हो जाता है। अगले लेख से हम इस मेज़ के बारे में, और सच्चे मसीही विश्वासियों के इसमें भाग लेने, तथा योग्य रीति से भाग लेने की अनिवार्यता से सम्बन्धित बाइबल की शिक्षाओं पर विचार आरम्भ करेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 26


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (1)




Obedience to God's Word and instructions is essential for the spiritual growth of a Christian Believer and the edification of the church. Without giving priority to God, His Word, and to obedience to Him in their personal life, the Christian Believer can neither grow in his spiritual life nor be blessed by God. This series on growing through God's Word is on this topic. Presently we are looking at four things given in Acts 2:42, also called the “Pillars of the Christian living.” God's Word, the Bible, tells us that the early Christians continued steadfastly in these four things. As a result, the number of Believers multiplied as well as grew in their spiritual lives, and the churches increased. In previous articles we have learned about two of these four pillars, i.e., diligently and steadfastly studying God's Word, and being in fellowship. Today we will begin to learn about the third pillar given in this verse – “the breaking of bread,” that is, partaking in the Holy Communion or, in the Lord's Table. In previous articles on this blog, there has been a comprehensive series on this topic, covering the Passover and the Lord's Supper from Exodus 12 in the Old Testament and then Acts 11 in the New Testament. Now we'll look at things related to partaking of the Lord's table from Acts 11:17-34.


In the first letter written by the Apostle Paul to the congregation at Corinth, God the Holy Spirit revealed the misconceptions the congregation had, their incomplete understanding, their errors and their inappropriate behavior regarding partaking in the Lord's Table. He also told about the consequences of wrong participation, the remedies for correcting the errors, and also gave instructions on how to worthily participate in the Table. Even today, there are many misunderstandings among Christians regarding the Lord's Table, and many Christian Believers also partake in it as a formality. Also, there is a misconception among some Christian Believers and amongst most members of traditional or denominational churches that partaking in the Lord's Supper not only makes them righteous in the eyes of God, but also eligible to enter heaven. The basis of this misconception is their belief that because by partaking of the Lord's Supper they have within them parts of the Lord's imperishable body and blood, therefore, like the Lord, they too will never perish. And that is why, whenever the Lord's Supper is given in those churches, the number of people attending the meeting on that day increases greatly.  But this false notion of theirs has no basis or support from the Bible. That is why the related teachings of God's Word, that were necessary and important for the church in Corinth then, are just as necessary and as important for us today, as they were for them then.


In this brief study of this topic, we will first look at some essential preliminary points and then look at the teachings from Acts 11:17-34, under the following seven points:

1. Background to the Lord's Table

2. Establishing of the Lord's Table

3. Preparation for the Lord's Table – A Rebuke – Verses 17-22

4. The Lord's instructions for the Lord's Table - Purpose - verses 23-26

5. Implications of Participating in the Lord's Table - How to Partake - Verses 27-28

6. Consequences of improperly partaking of the Lord's Table - verses 29-30

7. Final Comments – Verses 31-34


Partaking of the Lord's Table is not to be taken lightly, nor should it be treated as a formality. There are blessings for partaking in the table in a worthy manner, but there are also dire consequences for partaking improperly. Contrary to popular belief about the table, partaking of the table does not make any one a Christian, nor does it qualify one as righteous before God, nor does it guarantee one's entry into heaven. In the next article we will begin to consider the Bible's teachings about this table and the necessity for true Christian Believers to participate in it, and do so worthily.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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