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शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 182


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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 27


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (2) 


इस सन्देश को हिन्दी में सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें 



प्रत्येक मसीही विश्वासी को व्यावहारिक मसीही जीवन जीने के लिए परमेश्वर और उसके वचन का आज्ञाकारी होना अनिवार्य है। व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित सात शिक्षाएं प्रेरितों 2 अध्याय में दी गई हैं; और इनमें से चार प्रेरितों 2:42 में पाई जाती हैं। आरम्भिक मसीही विश्वासी इन चार शिक्षाओं का लौलीन होकर पालन करते थे, और इससे मसीही विश्वासियों की संख्या में, उनके विश्वास में दृढ़ और स्थापित बने रहने में, तथा कलीसियाओं में तेज़ी से वृद्धि हुई। इसीलिए इन चारों शिक्षाओं को “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है; तथा सभी मसीही विश्वासियों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि उन आरम्भिक मसीही विश्वासियों के समान, वे भी इन चारों बातों का यत्न से और लौलीन होकर निर्वाह करें। पिछले कुछ लेखों में हम प्रेरितों 2 अध्याय की सात बातों में से पाँच को देख चुके हैं, और पिछले लेख से हमने इनमें से छठी बात, जो चार स्तम्भ में से तीसरा स्तम्भ है, “रोटी तोड़ना” पर विचार करना आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने देखा था कि यद्यपि पारम्परिक कलीसियाओं के अधिकाँश सदस्य और बहुत से मसीही विश्वासी भी रोटी तोड़ने, या प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होने को एक रीति के समान लेते हैं; एक औपचारिकता के समान उसका निर्वाह करते हैं, लेकिन ऐसा करना अनुचित है, जिसके बहुत गम्भीर दुष्परिणाम हैं। साथ ही हमने यह भी देखा था कि प्रभु कि मेज़ के बारे में जैसे आज के मसीही विश्वासियों में कुछ गलतफहमियाँ हैं, वैसे ही उस आरम्भिक कलीसिया में कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों में भी थीं, इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस में होकर उनको सही शिक्षाएं और मार्गदर्शन दिया। जो शिक्षाएं तब उनके लिए आवश्यक थीं, वे ही आज हमारे लिए भी उतनी ही आवश्यक हैं, और हमने पिछले लेख में देखा है कि हम उन्हें सात बिन्दुओं के अन्तर्गत, मुख्यतः प्रेरितों 11:17-34 में से देखेंगे। आज हम पहले बिन्दु, प्रभु-भोज की पृष्ठ-भूमि को देखेंगे। 


1. प्रभु-भोज की पृष्ठ-भूमि 


चारों सुसमाचार-वृत्तांतों से हमें पता चलता है कि क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के साथ अपनी अन्तिम गतिविधि के रूप में प्रभु-भोज को स्थापित किया था। और यह यहूदियों द्वारा मनाए जाने वाले फसह के पर्व के भोज का प्रतीकात्मक से आगे बढ़ कर, उसे व्यावहारिक स्वरूप देना था। यहूदी लोग फसह के पर्व और भोज को मिस्र के दासत्व से छुड़ाए जाने और फिरौन की गुलामी से स्वतन्त्र किए जाने के स्मरण के रूप में मनाते थे, और आज भी मनाते हैं। फसह का यह पर्व और भोज, प्रभु यीशु मसीह के बलिदान के द्वारा मनुष्यों के पापों के बन्धन से छुड़ाए जाने और शैतान की गुलामी से मुक्त किए जाने का एक प्रारूप है। जैसा कि निर्गमन 12 में दिया गया है, फसह का पर्व प्रत्येक यहूदी परिवार में मनाया जाना था; और मिस्रियों, अर्थात, परमेश्वर के लोगों के बैरी और विरोधियों पर आने वाली मृत्यु के उन पर भी आने से बचने के लिए, यहूदियों, अर्थात परमेश्वर के लोगों को अपने घरों के दरवाजे की चौखट पर बलि के मेमने का लहू लगाना था। परिवार के प्रत्येक सदस्य, बच्चे या वयस्क, को इस भोज में भाग लेना था। किसी भी अतिथि या किसी गैर-यहूदी व्यक्ति के इसमें भाग लेने के लिए, परमेश्वर द्वारा अनुमति नहीं दी गई थी - यह भोज केवल परिवार के सदस्यों के लिए ही था। इसी प्रकार से प्रभु ने भी इस भोज का पालन और इसके अनुसार प्रभु-भोज की स्थापना अपने निकटतम शिष्यों के साथ की, न कि अपने सांसारिक परिवार के साथ। ध्यान कीजिए कि प्रभु की मेज़ की स्थापना के समय, उस समय के फसह के उस भोज में, मरियम और प्रभु के भाई-बहन मौजूद नहीं थे। साथ ही यह भी ध्यान देने और विचार करने की बात है कि यद्यपि प्रभु की सेवकाई के दिनों में एक बड़ी भीड़ उसके साथ चला करती थी, और प्रभु के बारह शिष्यों के अतिरिक्त अन्य शिष्य होने का भी वचन में उल्लेख किया गया है ("सत्तर अन्य" - लुका 10:1; "कई" - यूहन्ना 6:60, 66 जिनमें से कुछ ऐसे भी थे जो यीशु पर विश्वास नहीं करते थे -यूहन्ना 6:64; और "120" पिन्तेकुस्त से पहले एक साथ इकट्ठा हुआ करते थे - प्रेरितों 1:15), लेकिन प्रभु ने केवल उनके साथ इस भोज को मनाया, और उनके साथ प्रभु-भोज या प्रभु की मेज़ की स्थापना की, जो उसके अंतरंग शिष्य और साथी थे; अपने अन्य शिष्यों के साथ नहीं। जैसा कि हम आने वाले लेख में प्रभु की मेज़ की स्थापना से सम्बन्धित बातों की चर्चा के समय देखेंगे, प्रभु को पकड़वाने वाला यहूदा इस्करियोती फसह के भोज के समय तो वहाँ था, किन्तु प्रभु द्वारा मेज़ की स्थापना के समय वह वहाँ से जा चुका था; अर्थात प्रभु की मेज़ में उसका कोई भाग, उसका सम्मिलित होना नहीं था। ये सभी बातें, प्रभु की मेज़, उसके महत्व, और उसमें भाग लेने से सम्बन्धित महत्वपूर्ण शिक्षाएं प्रदान करती हैं। 


कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों की मण्डली को लिखे पत्र में भी, पौलुस ने भी परमेश्वर के परिवार के सदस्यों को ही प्रभु की मेज में भाग लेने से सम्बन्धित उनकी गलतियों के बारे में सही किया है। जैसे यहूदियों के सारे परिवार को, बच्चों, वयस्कों, वृद्धों, सभी को फसह के पर्व और भोज में भाग लेना था, उसी प्रकार से प्रभु की मेज़ में भी भाग लेने वाले, चाहे वे आध्यात्मिक रूप से शिशु या छोटे बच्चे हों (1 कुरिन्थियों 3:1-3), अथवा परिपक्व वयस्क मसीही विश्वासी, बाइबल के अनुसार, परमेश्वर के परिवार के सभी सदस्यों को प्रभु की मेज़ में भाग लेना है। जैसे यहूदियों के परिवार से बाहर के लोगों को फसह के पर्व और भोज में भाग लेने की अनुमति नहीं थी, उसी प्रकार परमेश्वर के परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य किसी को प्रभु-भोज में भाग लेने की अनुमति नहीं है, जैसा कि यहूदा इस्करियोती के भाग ने लेने के द्वारा दिखाया गया है। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि प्रभु के परिवार का हिस्सा बनना किसी धर्म-जाति-परिवार में जन्म लेने और उसकी रीतियों के निर्वाह के द्वारा नहीं, बल्कि यूहन्ना 1:12-13 के आधार पर होता है; अर्थात प्रत्येक के द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने पापों से पश्चाताप करने, प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करने, और प्रभु के आज्ञाकारी अनुयायी होने का निर्णय कर लेने के द्वारा। एक बार जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के परिवार का हिस्सा बन जाता है, तो फिर उस परिवार से जुड़े सभी विशेषाधिकार और आशीर्वाद भी उस व्यक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं।

 

उपरोक्त बातों से, फसह के पर्व और भोज से यह प्रकट है कि जो परमेश्वर के लोग थे, उन्हें ही उस भोज में, सम्मिलित किया गया था, अन्य किसी को नहीं। तात्पर्य यह कि भोज में सम्मिलित होने से कोई परमेश्वर के परिवार का सदस्य नहीं बनता है, और न ही उसे कोई विशेषाधिकार मिलता है; परन्तु जो परमेश्वर के परिवार का सदस्य है, केवल वही सम्मिलित हो सकता है। यह तथ्य इन गलत धारणाओं का दृढ़ता से खण्डन करता है कि प्रभु की मेज में भाग लेने से कोई प्रभु का जन बन जाएगा, या किसी को उद्धार, या कोई लाभ अथवा विशेषाधिकार मिल जाएंगे। बल्कि जो परमेश्वर के परिवार का हिस्सा हैं; जिन्हें परमेश्वर की सन्तान होने के विशेषाधिकार और लाभ मिल चुके हैं, इस मेज़ में भागीदारी केवल उन्हीं के लिए है। इसलिए इस प्रभु-भोज को गलत नहीं समझा जाना चाहिए और स्वर्ग में प्रवेश के लिए "योग्यताएं" प्राप्त करने के साधन के रूप में इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए - जो कि प्रभु की मेज़ के माध्यम से कभी नहीं होता है। प्रभु की मेज में भाग लेने से न तो पापों की क्षमा मिलती है, न पवित्रता मिलती है, न ही मुक्ति मिलती है - यह सब होना प्रभु यीशु के प्रति सच्चे समर्पण और उस में किए गए विश्वास के द्वारा है; जो इस आरम्भिक शर्त को पूरा कर लेते हैं, उन्हें फिर मेज़ में भाग लेने की भी अनुमति है।


अगले लेख में हम दूसरे बिन्दु, प्रभु के द्वारा मेज़ को स्थापित किए जाने, से सम्बन्धित बातों पर विचार करेंगे। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

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English Translation


Things Related to Christian Living – 27


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (2)


To Listen to this message in English Click Here

 

To live a practical Christian life, it is essential for every Christian Believer to be obedient to God and His Word. In Acts 2, seven teachings related to practical Christian living are given; and four of them are found in Acts 2:42. The early Christians diligently followed these four teachings, and this led to a rapid increase in the number of Christian Believers, in their being steadfast and committed to their faith, and in the growth of the churches. Hence, these four teachings are also called the “Pillars of the Christian life;” and it is expected of all Christian Believers that like those early Christian Believers, they too will be diligent and sincere in observing these four teachings. In the last few articles, we have looked at five of the seven teachings of Acts 2, and in the last article we have begun to consider the sixth of these teachings, the third of the four pillars, i.e., the “breaking of bread.” In the previous article we saw that although most members of traditional or denominational churches and many Christian Believers also regard the participating in the breaking of bread, or partaking of the Lord's table, as a ritual; or observe it as a formality, but this is inappropriate and has very serious consequences. We have also seen that there are some misunderstandings among today's Christians about the Lord's Table, as were there amongst the people of the congregation in Corinth, in that early church. That is why God the Holy Spirit, through Paul, gave them the correct teachings and guidance. The teachings that were then necessary for them, are equally necessary for us today, and as said in the previous article, we will look at them under seven headings, primarily from Acts 11:17-34. Today we'll look at the first heading, the background to the Lord's Table.


1. Background to the Lord's Table


From the four gospel accounts we learn that the Lord Jesus instituted the Lord's Table as His last activity with His disciples, before He was betrayed to be crucified. The Lord did this to take the Passover feast, celebrated by the Jews, from being symbolic, to its actual and fulfilled form. The Jewish people celebrated, and still celebrate, the Passover as a remembrance of their deliverance from bondage in Egypt and slavery to Pharaoh. This Passover festival and its feast is a prototype of man's deliverance from the bondage of sin and slavery to Satan through the sacrifice of the Lord Jesus Christ. As given in Exodus 12, Passover was to be celebrated in every Jewish family; and to prevent the death that came upon the Egyptians, i.e., the enemies and adversaries of God's people, the Jews, i.e., God's people, were to apply the blood of the sacrificial lamb on the doorposts of their homes. Every member of the Jewish family, whether child or adult, had to participate in this feast. It was not permitted by God for any guest or any Gentile to partake of this feast; it was only for the family members. Similarly, the Lord also observed and established the Lord's Supper with His closest of disciples, not with His worldly family. Notice that at that Passover meal, at the establishment of the Lord's table, Mary and the Lord's brothers and sisters were not present. Also, it is worth noting and considering that although a large crowd accompanied the Lord during His ministry, and there were other disciples in addition to the Lord's twelve disciples; other disciples are also mentioned in God’s Word (“Seventy others” – Luke 10:1; “many” – John 6:60, 66 among whom were some who did not believe in Jesus – John 6:64; and “120” gathered together before Pentecost (Acts 1:15), but the Lord celebrated this feast, and established the Lord's Supper or Lord's Table only with those who were His intimate disciples and companions; and not with his other disciples. As we will see in the coming article when we discuss things related to the establishment of the Lord's table, Judas Iscariot, who betrayed the Lord, though he was present at the Passover meal, but he had already left at the time of the Lord's establishment of the Table; meaning he had no part or participation in the Lord's Table. All these things provide important teachings regarding the observance of the Lord's Table, its significance, and partaking of it.


In this letter to the congregation of Christian Believers in Corinth, Paul too corrects members of God's family about their mistakes regarding partaking of the Lord's Table. Just as the entire Jewish family, children, adults, and elders, all were to participate in the Passover festival and feast, similarly, according to the Bible, all of God’s family, whether spiritual infants or young children (1 Corinthians 3:1-3), or mature adult Christian Believers, all are to partake of the Lord's Table. Just as people outside the Jewish family were not allowed to partake of the Passover festival and feast, so no one other than members of God's family is allowed to partake of the Lord's Supper, as is exemplified by the exclusion of Judas Iscariot. We have seen in earlier articles that becoming part of the God's family does not happen by being born in a religion-caste-family and following its customs, but on the basis of John 1:12-13; i.e., by each individual deciding to repent of their sins, accept the Lord Jesus as Savior, and deciding to be an obedient follower of the Lord. Once a person becomes part of God's family, all the privileges and blessings associated with that family become available to that person.


From the above, and from the observance of the Passover festival and the feast, it is clear that only those who were God's people were included, and no one else. This also implies that partaking of the Lord’s Supper does not make one a member of God's family, nor does anyone receive any privileges by participation; rather, the one who already is a member of God's family, only he can join. This fact strongly refutes the misconceptions that partaking of the Lord's table will make one belong to the Lord, or bring one to salvation, or give them any benefits or privileges. Rather, only those who already are a part of God's family are to participate; this Table is only for those who already have received the privileges and benefits of being God's children. Therefore, this sacrament should not be misunderstood and misused as a means of acquiring "credentials" for entry into heaven - which never happens through the Lord's Table. Partaking of the Lord's table does not bring forgiveness of sins, nor sanctification, nor salvation - all this has to be done by true submission to the Lord Jesus and coming to faith in Him; those who satisfy this initial condition are then privileged to participate in the Lord’s Table.


In the next article we will consider the second point, the Lord's establishment of the table.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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