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बुधवार, 18 दिसंबर 2024

The Lord Jesus - Resurrected From the Dead / प्रभु यीशु - मृतकों में से जीवित हुआ (2)

 

पाप और उद्धार को समझना – 26

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पाप का समाधान - उद्धार - 23

प्रभु यीशु - मृतकों में से जीवित हुआ (2)



पिछले दो लेखों से हम प्रभु यीशु मसीह के पुनरुत्थान के प्रमाणों के बारे में देखते आ रहे हैं। हमने देखा है कि यदि प्रभु यीशु मसीह का पुनरुत्थान मसीही विश्वास में से हटा दिया जाए, या उसे झूठ प्रमाणित कर दिया जाए, तो फिर मसीही विश्वास, संसार के किसी भी अन्य धर्म से भिन्न नहीं रह जाता है, उसका महत्व समाप्त हो जाता है। मनुष्यों के पापों का समाधान और निवारण प्रदान करने वाले सिद्ध मनुष्य के लिए यह अनिवार्य था कि वह मनुष्यों पर से मृत्यु के प्रभाव को मिटा दे। इसलिए यह अनिवार्य था कि पहले वह स्वयं मृत्यु को पराजित करे, और फिर इस विजय को औरों को, जितने उसके द्वारा उपलब्ध करवाए गए समाधान को स्वीकार करते हैं, भी पहुँचा दे। क्योंकि प्रभु यीशु का यह पुनरुत्थान इतना अधिक महत्व रखता था, शैतान और उसके राज्य के लिए इतना घातक था, इसीलिए प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के साथ ही उसे झुठलाने के प्रयास भी शैतान द्वारा फैलाए जाने लगे। किन्तु बाइबल में दिए गए प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के वर्णन शैतान की प्रत्येक मन-गढ़न्त कहानी को झूठा प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। आज हम प्रभु के पुनरुत्थान के प्रमाणों को देखना जारी रखेंगे। 


कुछ अन्य कहते हैं कि प्रभु मरा नहीं था, केवल बेहोश हुआ था, फिर कब्र में ठण्डे में विश्राम करने के बाद वह होश में आया, और कब्र में से बाहर आ गया। हम पहले के एक लेख में देख चुके हैं कि प्रभु को क्रूस पर चढ़ाने से पहले जिस बेरहमी से उसे मारा-पीटा गया था, फिर हाथों-पैरों में कील ठोंके गए, छाती में भाला मारा गया (यूहन्ना 19:34), और सैनिकों ने पुष्टि की, कि वह मर गया है, इसलिए उसकी टांगें नहीं तोड़ीं (यूहन्ना 19:32-33) – इन सभी प्रमाणों के होते हुए, यह कहानी निराधार है। और फिर तीन दिन कब्र में लहूलुहान और बिना भोजन या पानी के पड़े रहने के बाद किस मनुष्य के शरीर में यह शक्ति बचेगी कि वह 50 सेर मसालों के लेप और लपेटे हुए कपड़े (यूहन्ना 19:39-40) को खोल कर, अपने कीलों से छेदे हुए हाथों और पैरों तथा बेधी हुई छाती के साथ कब्र के मुँह पर लुढ़काए गए भारी पत्थर को हटा कर बाहर आ जाए, पहरेदारों को भी भगा दे, और चलकर वहाँ से चला जाए।


एक अन्य कहानी है कि शिष्यों ने अपनी मनःस्थिति के कारण, प्रभु की आत्मा को देखा था न कि उसके जी उठे शरीर को। प्रभु ने स्वयं ही इस धारणा का खण्डन प्रदान किया – लूका 24:38-43; और थोमा को भी आमंत्रित किया कि वह अपनी रखी गई शर्त के अनुसार उसके घावों को छू कर देख ले (यूहन्ना 20:26-27)। और प्रभु चालीस दिन तक अलग-अलग लोगों को अलग-अलग स्थानों पर दिखाई देता रहा, उनके साथ बात करता रहा; एक साथ पाँच सौ से अधिक शिष्यों को भी दिखाई दिया (1 कुरिन्थियों 15:5-8) – क्या चालीस दिन तक ये सभी एक ही भ्रम के शिकार रहे थे; और फिर बाद में इस भ्रम के कारण अपनी जान पर भी खेलकर प्रचार करने से नहीं रुके? क्या एक भ्रम के लिए वे शिष्य अपने उस अनुभव के बाद उसके लिए दुःख उठाने और मारे जाने को भी तैयार हो गए। जिसने प्रभु का अनुभव कर लिया है, वह उससे पलट नहीं  सकता है।


प्रभु यीशु के पुनरुत्थान और सुसमाचार की सत्यता का संभवतः सबसे बड़ा प्रमाण, जो आज भी कार्यकारी है, वह है प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने के बाद जीवनों में आने वाला परिवर्तन। उद्धार पाया व्यक्ति कुछ और ही हो जाता है; स्वयं अपने आप पर अचंभित होता है कि मैं इतना बदल कैसे गया – और यह सारे संसार में, हर स्थान पर, हर प्रकार के लोगों में, पिछले दो हज़ार वर्षों से निरंतर होता चला आ रहा है। यदि पुनरुत्थान और सुसमाचार कल्पना की बातें होतीं, तो आरंभिक उत्साह और उत्तेजना के बाद, कुछ ही समय में उनकी पोल खुल जाती, और प्रचार समाप्त हो जाता, लोग वापस अपने पुराने जीवन में लौट जाते – जो नहीं हुआ, वरन लोग हर दुःख-परेशानी-मुसीबत उठाकर भी सारे संसार में सुसमाचार फैलाते फिरे और आज भी फिर रहे हैं; क्यों?


मसीही विश्वास ही संसार का एकमात्र विश्वास है जो लोगों को खुला आमंत्रण देता है कि उसे परखें, और फिर विश्वास करें – “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो” (1 थिस्सलुनीकियों 5:21); “परखकर देखो कि यहोवा कैसा भला है! क्या ही धन्य है वह पुरुष जो उसकी शरण लेता है” (भजन 34:8)। अन्य सभी धर्मों और मान्यताओं में यदि संदेह के प्रश्न उठाए जाएँ तो उसे उन धर्मों एवं मान्यताओं का अपमान समझा जाता है, लोग ऐसा करने वाले को मारने-काटने को तैयार हो जाते हैं। किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल की खुली चुनौती है कि कोई भी उसकी बातों को जाँच-परख कर देख सकता है, उनकी वास्तविकता की जाँच कर सकता है, और फिर, अपनी जाँच के आधार पर अपना निर्णय ले सकता है। प्रभु यीशु की खाली कब्र आज भी इस्राएल में विद्यमान है। उनके जीवन, क्रूस पर मारे जाने, और तीसरे दिन जी उठने के ऐतिहासिक प्रमाण, बाइबल के बाहर समकालिक के लेखों में पाए जाते हैं। अनेकों लोगों ने प्रभु के जीवन, मरने, और जी उठने को गलत प्रमाणित करने का प्रयास किया है, किन्तु सफल कोई नहीं होने पाया। अपितु, इन प्रयासों में बहुत से लोगों के जीवन बदल गए और वे नास्तिक अथवा प्रभु में अविश्वासी होने से प्रभु में विश्वास करने वाले और उसे समर्पित जीवन जीने वाले बन गए। 


हम अगले लेख में प्रभु यीशु मसीह के पुनरुत्थान के महत्व के बारे देखेंगे। यदि आप अभी भी प्रभु यीशु मसीह में, उनके जीवन, शिक्षाओं, बलिदान, और पुनरुत्थान में; आपकी वास्तविक स्थिति के बावजूद आपके लिए प्रभु यीशु के प्रेम में विश्वास नहीं करते हैं, तो आप भी प्रभु यीशु के पुनरुत्थान से संबंधित प्रमाणों की जाँच कर सकते हैं, अपने आप को संतुष्ट कर सकते हैं। प्रभु यीशु आपको इस सांसारिक नाशमान जीवन से अविनाशी जीवन में लाना चाहता है; पाप के परिणाम से निकालकर परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप करवाकर अब से लेकर अनन्तकाल के लिए आपको स्वर्गीय आशीषों का वारिस बनाना चाहता है। शैतान की किसी बात में न आएं, उसके द्वारा फैलाई जा रही किसी गलतफहमी में न पड़ें, अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 


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 Understanding Sin and Salvation – 26

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 23

The Lord Jesus - Resurrected From the Dead (2)



From the past two articles we have been looking at the resurrection of the Lord Jesus Christ and its importance. We have seen that if the resurrection of the Lord Jesus is taken away from the Christian faith, or is proven to be false, then the Christian faith remains no different from any other religion of the world, and it loses its importance. For the man who was to provide the atonement and solution of sin for mankind, it was mandatory that he would also remove the hold of death from man. Therefore, first he had to defeat death, and then pass on that victory to those who would accept the solution provided by him. Since the resurrection of the Lord was so very important, and was so fatally detrimental to Satan and his kingdom, therefore, as we have been seeing, since the time of the Lord's resurrection, Satan immediately started to spread false information, to somehow deny it. But the Biblical account of the Lord's resurrection is sufficient to disprove each and every one of Satan's concocted stories. Today we will continue to look at some other proofs of the Lord's resurrection.


Some others claim that the Lord had not died on the cross, but had only become unconscious; he revived after resting in the cool environment of the tomb, and then walked out of the tomb. As we have seen in an earlier article, the gross cruelty with which the Lord had first been beaten, scourged, and then crucified; Having His hands and feet nailed to the cross with thick iron nails, and His side pierced with a spear (John 19:34), and the soldier’s confirming that He indeed had died, therefore His legs were not broken (John 19:32-33), are all proofs that this story is totally baseless and false. In any case, for a badly bruised and battered person lying without any food or water for three days in the tomb would it at all have been possible to unwrap himself from the 100 pounds of material (John 19:39-40) and blood-soaked cloth which would have now stuck to the wounds on his body, and then walk up to the stone covering the mouth of the tomb, push away the heavy stone despite his nail pierced hands and feet, spear pierced chest; then push away the heavy stone to open the grave, chase away the guards, and then walk away? Can any human being ever be able to do this?


Another concocted story is that the disciples, because of their mental condition, saw an apparition, they saw the spirit of the Lord, and not His risen body. The Lord Himself had taken care to disprove this - read Luke 24:38-43; He had also invited Thomas to come and examine Him and feel Him to verify the conditions he had put up to believe in the resurrection of the Lord (John 20:26-7). Then, after His resurrection, for forty days the Lord kept appearing to different people at different places, and was seen by more than five hundred disciples on one occasion (1 Corinthians 1:5-8) - so, were all of these deceived by the same deception for forty days at a stretch? Then despite their deception, they could not keep themselves from preaching about the Lord, even though they were threatened for their lives? Is it at all possible that because of their experiencing a deception, those disciples would be willing to suffer and even be killed for the Lord? The one who has personally experienced the Lord, can never deny Him.


The greatest proof of the Lord’s resurrection, one that is effective and working even today, is the change in the person’s life that comes after his repenting of sins and accepting Jesus as his Lord. This saved person becomes a new creation; he himself is surprised how could he change so much? And this has been happening continually all over the world, at every place, amongst all kinds of people, for the past two thousand years. If the resurrection and the Gospel had been figments of imagination, then after an initial hype and enthusiasm, in a short while the truth would have become evident, the preaching would have stopped, and the people would have reverted to their previous lives. But this never happened; instead, even today, the Believers in Christ are going around spreading the gospel all over the world, undaunted by the opposition, sufferings, and persecutions they are having to face because of their efforts. Why are people still willing to face all of this for their faith in Christ?


The Christian faith is the only faith in the world that gives an open invitation to everybody to come and first examine it, and only then believe - “Test all things; hold fast what is good” (1 Thessalonians 5:21); “Oh, taste and see that the Lord is good; Blessed is the man who trusts in Him!” (Psalms 34:8). In every other religion and belief, if anyone raises any doubts about them, then it is considered as an insult to that religion or belief, and their followers do not hesitate to take things in their own hands and react violently against those who raise doubts. But it is an open challenge of God’s Word for anyone to come forth and test it, and then based upon the results of their evaluation, they can decide for themselves whether or not to believe. The open and empty tomb of the Lord Jesus is still present in Israel, as a proof of the resurrection. The proofs of His life, death by crucifixion, and resurrection are present in the historical extra-Biblical writings of that time. Many people have tried to prove wrong the life, death, and resurrection of the Lord Jesus, but none has ever been successful in this attempt. Rather, because of their efforts and the evidence they came across, the lives of many people changed and they became Believers in Christ, from being either atheists or unbelievers in Christ.


In the next article we will look further at the importance of the resurrection of the Lord Jesus. If you are still unwilling to accept and believe in the Lord Jesus, in His life, teachings, sacrifice, and resurrection; if despite being aware of your own sins and sinful condition, are unwilling to believe in His love and forgiveness for you, then you can convince yourself by examining the evidences of the Lord resurrection. 


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


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