मसीही विश्वासी के प्रयोजन (8) - आश्चर्यकर्मों
के लिए अधिकार
मरकुस 3:14-15 में अपने शिष्यों के लिए प्रभु के तीन प्रयोजनों में से दो को, कि शिष्य प्रभु के साथ रहें, और जब तथा जहाँ भी प्रभु उन्हें भेजे, वहाँ जाकर वह प्रचार करें जो प्रभु उन्हें करने को कहे हम देख चुके हैं। प्रभावी और सफल सेवकाई के लिए ये तीनों प्रयोजन बहुत महत्वपूर्ण, वरन अनिवार्य हैं। पहला प्रयोजन प्रभु के साथ रहकर उससे सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए है; दूसरा उसकी आज्ञाकारिता और उसके प्रति समर्पण में होकर, अपनी नहीं वरन उसकी इच्छा पूरी करने से संबंधित है। और आज हम तीसरे प्रयोजन उस अधिकार के बारे में देखेंगे, जो अपने साथ रहने वाले, और अपने आज्ञाकारी शिष्यों को प्रभु देता है।
तीसरा प्रयोजन है “और दुष्टात्माओं के
निकालने का अधिकार रखें” (मरकुस 3:15)। प्रभु ने अपने शिष्यों को संसार में अपने प्रतिनिधि होने के लिए बुलाया
और चुना था, और प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के पश्चात,
उन्हें ही प्रभु के कार्य को आगे बढ़ाना था, सारे
संसार में पहुँचाना था। जो संसार के सामने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रतिनिधि
होंगे, उन प्रतिनिधियों में उन्हें यह अधिकार देने वाले के
समान कुछ गुण भी अवश्य होंगे। इसीलिए हम देखते हैं कि प्रभु ने अपने आज्ञाकारी और
समर्पित शिष्यों को एक ऐसा अधिकार भी दिया, जो संसार का कोई
व्यक्ति, कोई सामर्थ्य उन्हें नहीं दे सकती थी - वे
दुष्टात्माओं पर अधिकार रखें। मत्ती यह भी बताता है कि प्रभु ने न केवल
दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार दिया, वरन बीमारियों और
दुर्बलताओं को दूर करने का भी अधिकार दिया “फिर उसने अपने
बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार
दिया, कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब
प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें” (मत्ती 10:1)। और जब प्रभु ने उन्हें प्रचार के लिए भेजा, तो
उन्होंने यह सब किया भी “और उन्होंने जा कर प्रचार किया,
कि मन फिराओ। और बहुतेरे दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल मलकर उन्हें चंगा किया” (मरकुस 6:12-13)। किन्तु मरकुस 9:14-29 (तथा मत्ती 17:14-20, और लूका 9:37-42) में एक और घटना भी है जब यही शिष्य एक लड़के में से एक दुष्टात्मा को नहीं
निकाल सके। और प्रभु ने उनकी असफलता का कारण उनका अविश्वास और प्रार्थना की कमी को
बताया। संभवतः शिष्यों में प्रभु की बजाए अपने आप पर, अपनी
सामर्थ्य पर भरोसा आ गया था; वे प्रभु पर विश्वास के साथ
नहीं, अपने ऊपर रखे गए विश्वास द्वारा यह करना चाह रहे थे,
और जब असफल रहे तो संदेह में भी आ गए।
प्रभु द्वारा शिष्यों के प्रयोजनों के
लिए दिया गया क्रम और अभिप्राय आज भी उतने ही महत्वपूर्ण और कार्यकारी हैं। जो
प्रार्थना और वचन के अध्ययन के द्वारा प्रभु के साथ बने रहते हैं; जो प्रभु के आज्ञाकारी
रहते हैं, तब ही और वही कहते और करते हैं जब और जो प्रभु
कहता है; और हर बात के लिए प्रभु पर निर्भर तथा उस पर विश्वास रखने वाले रहते हैं,
वे फिर प्रभु के लिए अपनी सेवकाई के दौरान प्रभु से आश्चर्यकर्म भी
करने की सामर्थ्य पाते हैं और उन कार्यों को करते हैं। प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी
की सेवकाई के अंत में, अपने स्वर्गारोहण के समय, शिष्यों को संसार में सुसमाचार प्रचार के लिए जाने से पहले फिर से यह
अधिकार दिए थे (मरकुस 16:17-18), किन्तु प्राथमिकता फिर भी
“विश्वास करने” ही की थी - जो विश्वास में
स्थिर और दृढ़ होगा, उसी में ये बातें भी कार्यकारी होंगी।
आज बहुत से लोग प्रभु यीशु के नाम में
चमत्कार और अद्भुत कामों के द्वारा लोगों को लुभाने में लगे हुए हैं, और प्रभु ने बता भी दिया
था कि ऐसे लोग होंगे, किन्तु प्रभु उन्हें स्वीकार नहीं
करेगा; क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाकारिता में नहीं,
अपनी ही इच्छा में होकर यह सब किया (मत्ती 7:21-23)। अंत के दिनों के लिए, जिनमें हम आज हैं, यह भविष्यवाणी है कि बहुत से लोग चिह्नों और
चमत्कारों के द्वारा बहकाए जाएंगे (2 थिस्सलुनीकियों 2:9-12)। साथ ही 2 कुरिन्थियों 11:13-15 में भी चेतावनी दी गई है कि शैतान के दूत प्रभु के लोगों का भेष धरकर और
उनके समान बातें करने के द्वारा लोगों को बहका और भटका देते हैं। किन्तु मरकुस 3:14-15
हमें इस धोखे में पड़ने और बहकाए जाने से बचे रहने का तरीका बताता
है। जो भी अपने आप को प्रभु का शिष्य, उसका अभिषिक्त कहे,
उसके जीवन में उपरोक्त तीनों प्रयोजन उसी क्रम में विद्यमान होने
चाहिएं जिसमें प्रभु ने शिष्यों के लिए निर्धारित करे हैं, कहे हैं। यदि ऐसा नहीं
है, तो सचेत हो जाने और उस जन को वचन की कसौटी पर बारीकी से
परखने की आवश्यकता है।
प्रभु के सच्चे शिष्यों की प्राथमिकता
प्रभु के साथ बने रहना और उसकी आज्ञाकारिता में रहना है, न कि चिह्न और चमत्कार
दिखाकर लोगों को प्रभावित तथा आकर्षित करने, और उनसे भौतिक
लाभ कमाने की प्रवृत्ति रखना। प्रभु ने कभी भी अपने शिष्यों से यह नहीं कहा कि वे
इन चिह्नों और चमत्कारों को करने की सामर्थ्य को भौतिक लाभ अर्जित करने का माध्यम
बना लें; जो ऐसा करते हैं वे प्रभु की इच्छा का नहीं अपनी
इच्छा का पालन करते हैं। इसीलिए प्रभु का निर्देश है “सब
बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों
5:21)। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो
सचेत होकर, प्रभु के वचन के अनुसार अच्छे से जाँच-परखकर ही
इन विलक्षण और अद्भुत लगने वाली बातों और उनके करने वालों पर भरोसा करें। धोखे में
पड़ने से स्वयं भी बचें, तथा औरों को भी बचाकर रखें।
जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का
आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि
आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में
अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल
पढ़ें:
- यिर्मयाह
3-5
- 1 तिमुथियुस 4
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें