Click Here for the English Translation
आराधना करने की अनिवार्यता (3)
हमने पिछले लेख में देखा था कि परमेश्वर ऐसे आराधकों को ढूँढ़ता है जो आत्मा और सच्चाई से उसकी आराधना करने वाले हों, अर्थात, जो उसे पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी हों। इससे पहले हम देख चुके हैं कि परमेश्वर की यह आज्ञा है कि जब लोग उसके समक्ष आएँ, तो छूछे हाथ न आएँ (निर्गमन 34:20; व्यवस्थाविवरण 16:16)। लोग जब प्रार्थना में भी परमेश्वर के समक्ष आएँ, तो यह धन्यवाद के साथ होना चाहिए (फिलिप्पियों 4:6-7), तथा लोगों को प्रार्थनाओं के उत्तर मिलने के बाद भी उन्हें उसका धन्यवादी होना चाहिए (भजन 50:15)। यह एक सामान्य शिष्टाचार की बात है कि जब हम किसी के पास जाते हैं तो उसके लिए कुछ भेंट या उपहार भी ले जाते हैं, जैसे कि कुछ मिठाई या फल, या फूलों का गुलदस्ता, आदि - यह करना उस व्यक्ति को न केवल आदर देने का एक तरीका है, बल्कि उसके प्रति हमारे प्रेम और आदर की भी अभिव्यक्ति है। हमारे द्वारा ले जाई गई भेंट या उपहार की गुणवत्ता और कीमत न केवल उस व्यक्ति के साथ हमारे संबंधों की घनिष्ठता का, वरन उस व्यक्ति के अपने स्तर या ओहदे का भी सूचक होता है। इसी प्रकार से परमेश्वर चाहता है कि उसके लोग उसके पास उसे उसके योग्य आदर को देते हुए आएँ (भजन 29:2; भजन 96:8; भजन 100:4)।
ऐसा नहीं है कि यह परमेश्वर के अहं की बात है, जिसके कारण वह आराधना करने की आज्ञा दे रहा है; बल्कि, वह तो हमें एक ऐसी जीवन-शैली में ले जा रहा है जिस में हम शैतान और उसकी युक्तियों से सुरक्षित बने रहेंगे। परमेश्वर चाहता है कि आराधना का जो सामर्थी हथियार उसने हमारे हाथों में सौंपा हैं उसे हम प्रभावी रीति से शैतान के विरुद्ध उपयोग करने वाले बनें। हम पहले देख चुके हैं कि आराधना का सर्वोच्च स्वरूप, परमेश्वर का गुणानुवाद या गुणगान करना है, जिस में हम परमेश्वर के बारे में, उसकी पवित्रता, उसकी पूर्ण सामर्थ्य और योग्यताएँ, उसके गुणों और चरित्र, उसके बच्चों के जीवनों में उसके द्वारा किए गए कार्यों, आदि का वर्णन करते हैं और परमेश्वर की स्तुति करते समय भी हम अपने अनुभवों के आधार पर उसके द्वारा किए गए कार्यों या प्रदान की गई बातों और वस्तुओं के बारे में बताते हैं, गवाही देते हैं। आराधना के इन दोनों स्वरूपों में आराधना करने वाला परमेश्वर के जितना अधिक निकट होगा, जितना घनिष्ठ होकर उसे जानता होगा, जितनी अधिक गहराई से उसने परमेश्वर को अनुभव किया होगा, उतना ही बेहतर वह इन दोनों प्रकार की आराधना को अर्पित करने पाएगा।
इसे यदि पलट कर, दूसरी ओर से देखें, तो व्यक्ति परमेश्वर के जितना अधिक निकट होगा, परमेश्वर से उसका संबंध जितना आधिक घनिष्ठ होगा, वह जितना अधिक परमेश्वर पर भरोसा करके उसपर निर्भर रहने वाला होगा, जितना अधिक वह उसकी आज्ञाकारिता में होकर परमेश्वर की इच्छा और निर्देशों के अनुसार कार्य करेगा, व्यक्ति हर परिस्थिति में और हर बात के लिए जितना अधिक परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला होगा, वह उतनी ही बेहतर परमेश्वर की आराधना करने पाएगा, उतनी ही बेहतर परमेश्वर की स्तुति और प्रशंसा करेगा। अर्थात, व्यक्ति की आराधना की गुणवत्ता, परमेश्वर के साथ उसके संबंधों का, परमेश्वर के साथ उसकी घनिष्ठता का, उसके द्वारा परमेश्वर को जानने का, परमेंश्वर के प्रति उसकी आज्ञाकारिता का, और उसका परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला होने के स्तर, आदि का सूचक है। इसलिए प्रकट तात्पर्य यह है कि जब परमेश्वर यह आज्ञा दे रहा है कि लोग आत्मा और सच्चाई में होकर उसकी आराधना करें, और जब उसके पास प्रार्थना लेकर भी आएँ तो कम से कम धन्यवाद के साथ प्रार्थना करें, तो वह जो चाह रहा है, उसकी जो लालसा है, वह है कि उसके लोग उसकी निकटता में और भी अधिक बढ़ते जाएँ, उसके बार में और अधिक सीखने वाले बनें, उसे और अच्छे से जानने लगें - और यह सभी उनकी आराधना के स्तर और गुणवत्ता के द्वारा दिखाई देगा, प्रमाणित होगा।
व्यक्ति जितना अधिक परमेश्वर के निकट होगा, जितना अधिक परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए उसका आज्ञाकारी बना रहेगा, उतना ही अधिक वह शैतान और उसकी चालाकियों और युक्तियों से सुरक्षित बना रहेगा, तथा न शैतान और न ही उसके सेवक ऐसे व्यक्ति को बहकाने और पथभ्रष्ट करने पाएँगे। इसलिए, परमेश्वर द्वारा यह आज्ञा देना कि कोई भी उसके समक्ष छूछे हाथ न आए, बल्कि हमेशा ही उसे अर्पित करने के लिए कुछ लेकर आए; परमेश्वर द्वारा यह आज्ञा देना कि लोग उसके योग्य आदर के साथ उसके पास आएँ; उसका इस बात पर दृढ़ होना कि उनकी प्रार्थनाएँ भी धन्यवाद के साथ कही जाएँ, आदि, इन सभी बातों के द्वारा परमेश्वर यह सुनिश्चित करना चाह रहा है कि उसके लोग शैतान से कुछ-न-कुछ सुरक्षा बनाकर रखें, शैतान के हमलों के लिए खुले और दुर्बल न हों। परमेश्वर की इच्छा तो यह है कि हम पूरी तरह से सुरक्षित, शैतान के हमलों और युक्तियों से पूर्णतः बचे हुए हों, इसीलिए वह चाहता है कि उसके लोग “प्रोसक्यूनिटीस”, अर्थात आत्मा और सच्चाई से उसकी आराधना करने वाले बनें, परमेश्वर के समक्ष “प्रोसक्यूनियोस” करने वाले, अर्थात उसके प्रति पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी जीवन जीने वाले होने के द्वारा। जो लोग “प्रोसक्यूनियोस” करने के द्वारा परमेश्वर के “प्रोसक्यूनिटीस” बनेंगे उन्हें परमेश्वर की पूर्ण सुरक्षा भी प्राप्त रहेगी और वे एक सामर्थी एवं जयवंत जीवन जीने वाले भी हो जाएँगे, वैसा जीवन जिसकी बारे में प्रभु यीशु ने यूहन्ना 10:10 में कहा है। परमेश्वर तो हमें एक सामर्थी, जयवन्त, बहुतायत का जीवन देना चाहता है; किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए जो आवश्यक है, क्या हम उसे करने और फिर उस जीवन को प्राप्त कर के उसके अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार हैं?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 17-19
मरकुस 13:1-20
कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
**********************************************************************
The Necessity of Worshipping (3)
We have seen in the previous article that God is looking for those who will worship Him in Spirit and in truth, i.e., those who will be fully submitted and obedient to Him. Earlier, we had seen that God commands that when His people approach Him, it should not be with empty hands (Exodus 34:20; Deuteronomy 16:16). Even when people come to God in prayer, it should be with thankfulness (Philippians 4:6-7), and people should also remember to thank Him for answered prayers (Psalm 50:15). It is common etiquette, that when we visit someone, we go with some gift, e.g., sweets, or fruits, or even a bouquet of flowers – this is a way of according honor to that person and is also an expression of our love and regards for him. The quality and value of the gift we take not only reflects the closeness of our association with that person, but also the stature of the person. Similarly, God wants His children, His people to come to Him according to Him His due honor (Psalm 29:2; Psalm 96:8; Psalm 100:4).
It is not that God is on an “ego-trip” in commanding us to worship Him; rather, He is guiding us into a way of life that will keep us safe from Satan and his devices. He wants us to learn to effectively use the powerful weapon of worship that He has placed in our hands, against Satan. We have seen earlier that the highest form of worship, Exaltation of God is describing Him, His Holiness, His absolute powers and abilities, His characteristics and qualities, His works in the lives of His children, etc. and in Praising God we again speak or witness about His works that we have experienced, or praise Him for the things we have received from Him. For both of these expressions of worship, the closer the worshipper is to God, the more intimately he knows God, and the more deeply he has experienced God, the better will he be able to worship God through either of these forms.
If you look at it the other way around, the closer a person is to God, the more intimate is his relationship with God, the more he relies upon God, trusts Him, and does everything according to God’s will and directions, the more a person is concerned about being obedient to God and being a “God-Pleaser” in and for all things, the better will he be able to to worship God, to Praise and Exalt God. So, the quality of one’s worship, is an indicator of one’s relationship with God, about how close he is with God, how well he knows God, how much he strives to please God, and how obedient he is to God. Therefore, the evident implication is that when God commands that people worship Him in Spirit and truth, accord Him His due honor when they approach Him, at the very least have an attitude of thankfulness even when approaching Him in prayer, what He is actually asking for, desiring, is that His people draw closer to Him, learn about Him even more, know Him better - and this will be reflected in and evidenced by the worship they offer.
The closer a person is to God, and the more the person trusts God and obeys Him, the safer will he be from Satan and his ploys, his devices and being misled into harm by Satan or his minions. So, God’s commanding that none come before Him empty handed, but always have something to offer to Him; by commanding that people should approach Him through giving Him His due honor according to His status; by insisting that even for prayers people should at the least have an attitude of thankfulness, God is ensuring that His people get into some protection or the other from Satan, and not remain totally vulnerable to satanic attacks. God’s desire is that we be fully protected, be totally safe from Satan’s attacks and devices, that is why His desire is that His people be the “proskunetes” i.e., those who worship Him in Spirit and truth; by being those who “proskuneos” before Him i.e., totally submit and surrender themselves into His hands and always for all things be fully obedient to Him. The “proskunetes”, by virtue of their “proskuneos”, will have God’s full protection and enjoy an overcoming and victorious life, the kind of life the Lord Jesus spoke of in John 10:10. God wants to give us an abundant, overcoming, victorious life; but are we willing to do what is necessary to receive it and then live it out?
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 17-19
Mark 13:1-20
Please Share The Link & Pass This Message To Others As Well
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें