व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 20
व्यवस्था की क्षमताएँ और अक्षमताएँ (भाग 3)
इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है, पिछले लेखों में हमने रोमियों 7 अध्याय से व्यवस्था की सीमाओं के बारे में देखना आरंभ किया है। पिछले लेखों में हमने रोमियों 7:1, 5 से व्यवस्था की दो सीमाओं को देखा और समझा था। पहली, पद 1 से थी कि व्यवस्था प्रभुता करती है; उसमें दया, करुणा, व्यक्ति की परिस्थिति को समझना नहीं है; वह केवल दोषी ठहरा सकती है और दोष का दण्ड बता सकती है। दूसरी, पद 2 से थी कि व्यवस्था के कारण शरीर में अभिलाषाएं उत्पन्न होती हैं, जिनमें गिरा कर शैतान पाप करवा देता है। आज हम रोमियों 7 अध्याय में दी गई व्यवस्था की एक और सीमा और सम्बन्धित बातों को देखेंगे, जिन के कारण व्यवस्था उद्धार देने में असमर्थ है।
तीसरी और बहुत महत्वपूर्ण सीमा रोमियों 7:6 में दी गई है, जहाँ लिखा है, “परन्तु जिस के बन्धन में हम थे उसके लिये मर कर, अब व्यवस्था से ऐसे छूट गए, कि लेख की पुरानी रीति पर नहीं, वरन आत्मा की नई रीति पर सेवा करते हैं” (रोमियों 7:6)। प्रभु के शिष्यों, उस पर विश्वास और उसे जीवन समर्पण करने वाले लोगों, अर्थात मसीही विश्वासियों को व्यवस्था से छुड़ा लिया गया है; अब व्यवस्था उनके लिए लागू, और उन पर कार्यकारी नहीं है। वे अब व्यवस्था की बातों के पालन से, उस पर आधारित होकर परमेश्वर के समक्ष धर्मी बनने और परमेश्वर को स्वीकार्य होने से मुक्त कर दिए गए हैं। रोमियों में ही पौलुस आगे लिखता है, “क्योंकि हर एक विश्वास करने वाले के लिये धामिर्कता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है” (रोमियों 10:4)। परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, इसी विषय पर, प्रेरित पौलुस ने, कुलुस्से की मसीही मण्डली को, प्रभु यीशु मसीह द्वारा हमारे उद्धार के लिए किए गए काम के विषय लिखा, “और उसने तुम्हें भी, जो अपने अपराधों, और अपने शरीर की खतनारहित दशा में मुर्दा थे, उसके साथ जिलाया, और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया। और विधियों का वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिटा डाला; और उसको क्रूस पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया है। और उसने प्रधानताओं और अधिकारों को अपने ऊपर से उतार कर उन का खुल्लमखुल्ला तमाशा बनाया और क्रूस के कारण उन पर जय-जय-कार की ध्वनि सुनाई” (कुलुस्सियों 2:13-15)। अब जिसे परमेश्वर ने ही प्रभु यीशु मसीह में पूरा कर के, हमारे सामने से हटा दिया है, तो उसके सहारे से, उसके पालन के द्वारा, हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य कैसे हो सकते हैं? इसलिए व्यवस्था के पालन के द्वारा उद्धार पाने के प्रयास व्यर्थ हैं, असफल ही होंगे।
शैतान ने प्रथम कलीसिया के समय से ही मसीही विश्वासियों द्वारा भी व्यवस्था के पालन को अनिवार्य बनाने, और अपनी इस कुटिलता के द्वारा उन्हें विश्वास से नहीं वरन कर्मों से धर्मी ठहरने के जाल में फंसाने के प्रयास आरम्भ कर दी थे। इस विषय पर प्रभु के भाई और प्रथम कलीसिया के एक अगुवे, याकूब ने अपनी पत्री में लिखा है, “क्योंकि जो कोई सारी व्यवस्था का पालन करता है परन्तु एक ही बात में चूक जाए तो वह सब बातों में दोषी ठहरा” (याकूब 2:10)। अर्थात, व्यवस्था का पालन तब ही सार्थक समझा जा सकता है जब व्यक्ति उस की हर एक बात को अपने मन, ध्यान, विचारों, और कर्मों में पूरा करे, कहीं पर भी ऐसा करने में कदापि न चूके। क्योंकि यदि वह अपने समस्त जीवन में यदि एक भी बार, एक भी बात के लिए, चाहे अनजाने में ही सही, चूक गया तो सम्पूर्ण व्यवस्था के उल्लंघन का दोषी हो गया, और उसका ने सभी बातों का पालन करते रहना व्यर्थ बन गया। प्रथम कलीसिया के अगुवों में जब इस विषय पर चर्चा हुई, तो व्यवस्था पालन की इस माँग के विषय प्रेरित पतरस ने कहा, “तो अब तुम क्यों परमेश्वर की परीक्षा करते हो कि चेलों की गरदन पर ऐसा जूआ रखो, जिसे न हमारे बाप-दादे उठा सके थे और न हम उठा सकते” (प्रेरितों 15:10; कृपया प्रेरितों 15 अध्याय पढ़ें); अर्थात व्यवस्था की यह माँग कभी कोई भी पूरी नहीं कर सका था। प्रेरित पौलुस ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए गलातिया की मण्डली को लिखा, “सो जितने लोग व्यवस्था के कामों पर भरोसा रखते हैं, वे सब श्राप के आधीन हैं, क्योंकि लिखा है, कि जो कोई व्यवस्था की पुस्तक में लिखी हुई सब बातों के करने में स्थिर नहीं रहता, वह श्रापित है” (गलातियों 3:10)। अर्थात प्रभु द्वारा अनुग्रह से उद्धार पाने की बजाए, अपने कर्मों से व्यवस्था के पालन के द्वारा उद्धार पाने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा करने में एक भी बात में चूक जाना, फिर से श्राप में, मृत्यु-दण्ड के लिए दोषी होने में चले जाना है।
हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि शैतान और उसके दूत, दुष्टात्माएँ, जो अपनी सृष्टि से ही हर तरह से मनुष्य से अधिक सामर्थी और बुद्धिमान हैं, वे कभी भी मनुष्यों को अपनी बातों, युक्तियों, और कुटिलताओं में फंसा कर आसानी से पाप में गिरा सकते हैं। इसलिए मनुष्य का व्यवस्था के पालन के द्वारा आजीवन धर्मी बने रहने कभी भी संभव नहीं है; शैतान और उसकी दुष्टात्माएँ उसे पाप में गिराते ही रहेंगे, दोषी और श्रापित बनाए ही रखेंगे, तथा उसे इस व्यर्थ और निष्फल प्रयास में उलझाए रख कर अन्ततः अपने साथ नरक में पहुँचा ही देंगे।
हम व्यवस्था की सीमाओं तथा अक्षमताओं के बारे में अगले लेख में और आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 20
Law’s Capabilities & Incapabilities (Part 3)
Considering the question of why the law cannot save us, in the previous articles, we began to look at the limits of the Law from Romans 7. We saw and understood two limitations of the Law from Romans 7:1, 5. The first was from verse 1 that the law asserts dominion. There is no kindness, compassion, understanding of the person's situation, etc., in the Law; it can only convict, condemn, and punish. The second limitation, from verse 5 was that because of the Law desires arise in the flesh, and Satan exploits them, uses them to tempt people to fulfill those desires, and gets them to fall into sin. Today we'll look at another limitation of the Law from Romans 7; another aspect that renders it incapable of providing salvation.
A third and very important limitation is given in Romans 7:6, where it is written, "But now we have been delivered from the law, having died to what we were held by, so that we should serve in the newness of the Spirit and not in the oldness of the letter" (Romans 7:6). The disciples of the Lord Jesus, those who believe in Him and surrendered themselves to Him, i.e., Christian Believers, have been redeemed from observing the Law. Now the Law no longer applies to them, nor is it effective for them. They have now been set free from obeying the Law, from being righteous before God and being accepted by God through the Law. In Romans itself, Paul further writes, "For Christ is the end of the law for righteousness to everyone who believes" (Romans 10:4). On the same topic, under the guidance of God's Holy Spirit, the apostle Paul wrote to the Christian congregation in Colossae about the work done by the Lord Jesus Christ for our salvation, and said, "And you, being dead in your trespasses and the uncircumcision of your flesh, He has made alive together with Him, having forgiven you all trespasses, having wiped out the handwriting of requirements that was against us, which was contrary to us. And He has taken it out of the way, having nailed it to the cross. Having disarmed principalities and powers, He made a public spectacle of them, triumphing over them in it" (Colossians 2:13-15). So then, how can we be righteous and acceptable to God through obeying that, which God has fulfilled in the Lord Jesus Christ, and has taken away from us? Therefore, all efforts to be saved by obeying the Law are vain, and are doomed to failure.
Satan, from the time of the First Church itself, had begun his efforts to make obeying the Law as compulsory for the Christian Believers, to entangle them in his devious ploy of making them fall for being righteous by obeying the Law instead of by faith. On this topic, James, the brother of the Lord Jesus and an elder in the First Church, wrote in his letter, “For whoever shall keep the whole law, and yet stumble in one point, he is guilty of all” (James 2:10). In other words, the obeying of the Law can only be considered worthwhile if the person in his whole life, never even once, slips in obeying it, whether it be in his heart, mind, thoughts, or deeds, even inadvertently or unknowingly. If the person slips even once, then he becomes guilty of transgressing the whole Law, comes under condemnation, and his having obeyed the rest of the Law becomes vain. When this topic was discussed in the First Church, then on the demand that the Law has to be followed, the Apostle Peter said, “Now therefore, why do you test God by putting a yoke on the neck of the disciples which neither our fathers nor we were able to bear?” (Acts 15:10; please read the whole of chapter 15 of Acts). The Apostle Paul too, affirming this, had written to the Galatian Church, “For as many as are of the works of the law are under the curse; for it is written, "Cursed is everyone who does not continue in all things which are written in the book of the law, to do them."” (Galatians 3:10). That is to say, those who desire to be saved not by the grace of the Lord, but by their works through obeying the Law should always keep this in mind that, if the make even one mistake, slip up even once, then they will go back into being cursed and condemned to hell.
We have seen in the earlier articles that Satan and his demons, since their creation, are more powerful and wise than humans, and they can make anyone fall into sin by enticing or beguiling him to fall through their cunning words, tricks, and devious ploys. That is why it is impossible for man to remain sinless, holy and perfect throughout his life by obeying the Law. Satan and his demons will keep making him fall into sin, will keep him condemned and guilty, keep him caught up in the vain and fruitless effort of obeying the Law, and eventually will take him with them into hell.
We will continue with the limitations and incapabilities of the Law in the next article as well.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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