व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 21
व्यवस्था की क्षमताएँ और अक्षमताएँ (भाग 4)
व्यवस्था की चौथी सीमा, रोमियों 7:13 में लिखी है, किन्तु उसे उसके संदर्भ के पदों - पद 7-13 में देखना आवश्यक है। पद 7 में पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि व्यवस्था पाप नहीं है, वरन पाप की पहचान करवाती है - अर्थात एक ऐसा मानक है जिसके सामने रख कर परमेश्वर की दृष्टि में क्या सही और स्वीकार्य है, तथा क्या नहीं है, उसकी पहचान की जाती है। फिर पद 8-11 में पाप की पहचान के कारण उत्पन्न होने वाली अभिलाषाओं, और उनमें होकर पाप में गिर जाने की बात समझाई गए है, जिसे हम 7:5 के संदर्भ में पिछले लेख में देख चुके हैं। फिर पद 12 में पवित्र आत्मा व्यवस्था के तीन और गुण लिखवाता है, कि वह पवित्र, ठीक, और अच्छी है। तब वह पद 13 में लिखवाता है, “तो क्या वह जो अच्छी थी, मेरे लिये मृत्यु ठहरी? कदापि नहीं! परन्तु पाप उस अच्छी वस्तु के द्वारा मेरे लिये मृत्यु का उत्पन्न करने वाला हुआ कि उसका पाप होना प्रगट हो, और आज्ञा के द्वारा पाप बहुत ही पापमय ठहरे” (रोमियों 7:13)। अर्थात, कमी व्यवस्था में नहीं है; कमी व्यवस्था के प्रति हमारी समझ और व्यवहार, और शैतान द्वारा हमारे अंदर बसे हुए पाप के स्वभाव को उकसा कर व्यवस्था का उल्लंघन करवाते रहने में है। इससे प्रकट है कि इस संदर्भ में व्यवस्था की सीमा है कि वह पाप की पहचान तो करवा सकती है, लेकिन पाप पर जयवंत नहीं बना सकती है; हमें पाप करने से रोक नहीं सकती है, और पौलुस अपने जीवन और व्यवहार के उदाहरण से इस बात को पद 14-24 में समझाता है।
व्यवस्था की पाँचवीं सीमा पद 23 और 25 में दी गई है; “परन्तु मुझे अपने अंगों में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है” (रोमियों 7:23); “मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं: निदान मैं आप बुद्धि से तो परमेश्वर की व्यवस्था का, परन्तु शरीर से पाप की व्यवस्था का सेवन करता हूं” (रोमियों 7:25)। व्यवस्था मनुष्य की बुद्धि पर तो काम कर सकती है, उसे भले-बुरे की पहचान करवा सकती है; किन्तु शरीर पर काम करने और पाप करने से रोकने में असमर्थ है। परमेश्वर का सत्य जानना बुद्धि का कार्य है; उस सत्य का पालन करना और जीवन में दिखाना, शरीर का कार्य है। व्यवस्था शरीर को नियंत्रित कर के उस सत्य मार्ग पर चलवाने में असमर्थ है, जो बुद्धि जानती और समझती है। बहुत सामान्य और जानी-पहचानी बात है, लोग जानते हैं कि शराब, तम्बाकू, मादक-पदार्थों, और अन्य ऐसे व्यसन के प्रयोग का परिणाम शरीर की हानि ही होता है; किन्तु फिर भी शरीर की लालसा के आगे असमर्थ हैं, उनका नियमित प्रयोग करते रहते हैं। सभी जानते हैं कि चोरी, धोखा, लूट, मार-पीट आदि करने के कारण दण्ड के भागी बन जाते हैं; किन्तु फिर भी इन बातों को करते हैं, और दण्ड भी भुगतते हैं। किन्तु शरीर के आगे असमर्थ हैं, और सद्बुद्धि की बातों का पालन नहीं करने पाते हैं।
अगले लेखों में हम व्यवस्था के उद्देश्य, और फिर उसकी माँग, उसके बाद उसकी उपयोगिता के विषय देखेंगे। किन्तु अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपनी धार्मिकता को किसी “व्यवस्था” के पालन के द्वारा - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - प्रमाणित करने की, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो व्यवस्था की सीमाओं को पहचानते, समझते, और स्वीकार करते हुए, आपको इन व्यर्थ प्रयासों से निकलकर, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने की आवश्यकता है। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 21
Law’s Capabilities & Incapabilities (Part 4)
The fourth limit of the Law is written in Romans 7:13, but it is necessary to look at it in its context in verses 7-13. In verse 7 the Holy Spirit has written that the Law is not sin, rather it identifies sin — it is a standard to measure, to identify what is right and acceptable in the eyes of God, and what is not. Then verses 8–11 explain how desires arise from the recognition of sin, and by falling for wanting to fulfil those desires we fall into sin, which we saw in an earlier article in the context of 7:5. Then in verse 12 the Holy Spirit writes down three more qualities of the Law, that it is holy, just, and good. Then Paul writes in verse 13, "Has then what is good become death to me? Certainly not! But sin, that it might appear sin, was producing death in me through what is good, so that sin through the commandment might become exceedingly sinful” (Romans 7:13). That is to say that the deficiency is not in the Law; it is in our understanding and utilization of the Law. And Satan continually incites us to violate the Law and commit sin by provoking the sin nature that is ingrained in us. It is evident from this that the Law has a limitation in this context, that it can identify sin for us, but it cannot help us to overcome sin; it cannot keep us from sinning, and Paul illustrates this in verses 14–24 with the example of his life and behavior.
The fifth limit of the Law is given in verses 23 and 25; “But I see another law in my members, warring against the law of my mind, and bringing me into captivity to the law of sin which is in my members” (Romans 7:23); “I thank God--through Jesus Christ our Lord! So then, with the mind I myself serve the law of God, but with the flesh the law of sin” (Romans 7:25). The Law can work in the mind of man, it can make him identify good and bad. But it is incapable of working on the body, to keep it from committing things they know as sins, in their minds. To know and recognize God’s truth is a work of the mind; but to obey and live out that truth in life is the function of the body. The Law is unable to control the body and lead it on to the right path which the mind already knows and understands. It is a very common and well-known thing, people know that the use of alcohol, tobacco, drugs, and other such addictions results in harm to the body. But still, they are unable to control the craving of the body for these harmful things, and therefore keep using them regularly. Everyone knows that for committing theft, cheating, plundering, violence, etc., they will be punished; but they still do these things, and they also suffer punishment. But they are helpless before the desires of the body, and are unable to follow the truth their minds know.
In the coming articles, we'll look at the purpose of the Law, then its demands, and then its utility. But for now, if you're a Christian, and have trusted in your being righteous through observance of some "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination; or have been trying to prove yourself righteous and acceptable to God through this, i.e., through works of the flesh; then it is time you recognize, understand, and accept the limitations of the Law you are trusting. You need to step out of these vain efforts, and follow the path of repentance and submission given by God. Now, while you have the time and opportunity, make the right decision and leave the vain and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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