परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 6
हम पौलुस के जीवन और उदाहरणों से सीख रहे हैं कि परमेश्वर के वचन के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए। हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 से पौलुस की सेवकाई से संबंधित तीन बातों को देखा था, जिनका प्रभाव उसके द्वारा वचन की उचित सेवकाई पर भी आता है। पहली बात, पौलुस जानता था कि उसे क्या नहीं करने के लिए नियुक्त किया गया है; दूसरी, उसे पता था कि उसे क्या करना है; और तीसरा, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए कार्य को करने के लिए वह परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए वचन में अपनी बुद्धि और चतुराई की बातें नहीं मिलाता था, जिस से कि मसीह के क्रूस का सन्देश व्यर्थ न ठहरे। आज से हम 1 कुरिन्थियों 2:4-5 से पौलुस के द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग के एक और पक्ष को देखना आरंभ करेंगे।
ये पद, वास्तव में पूरा अध्याय 2, पहले अध्याय के 17 पद की तीसरी बात, जिसे हमने पिछले लेख में देखा था – परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार में मानवीय बुद्धि के उपयोग की कोई भूमिका न होना को आगे बढ़ाता है। अध्याय 2 यह स्पष्ट कर देता है कि परमेश्वर, अपने लोगों को, जो उसके आज्ञाकारी हैं, और खराई तथा समर्पण के साथ उसकी सेवकाई करने के इच्छुक हैं, उन्हें वह अपनी आत्मा के द्वारा आवश्यक सामर्थ्य और योग्यता प्रदान करता है। पवित्र आत्मा उन्हें सेवकाई के लिए उपयुक्त और आवश्यक वचन को सिखाता है (2:12-13)। लेकिन जो वास्तव में प्रभु के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं, जो अभी भी अपनी स्वाभाविक उद्धार न पाई हुई दशा में हैं, वे पवित्र आत्मा जो कहता है उसे न तो स्वीकार कर पाते हैं और न ही उसकी बात को समझ पाते हैं (2:16)। इस अध्याय की शिक्षा, हमारे सन्दर्भ के अनुसार, यही है कि जो प्रभु के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हैं, खराई से परमेश्वर की सेवकाई उसी तरह से करने के इच्छुक हैं जिस तरह से परमेश्वर चाहता है कि सेवकाई की जाए, उन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा उस सेवकाई के लिए उपयुक्त वचन दिया भी जाएगा, और सिखाया भी जाएगा। इसलिए, परमेश्वर के वचन के साथ उपयुक्त रीति से व्यवहार की प्रारम्भिक आवश्यकता है कि व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हो, और खराई से उस रीति से परमेश्वर की सेवकाई करने के लिए तैयार हो जैसा परमेश्वर चाहता है। इस बात का ध्यान रखते हुए, हम 1 कुरिन्थियों 2:4-5 के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।
पौलुस पद 4 का आरम्भ दो दावों के साथ करता है; उसका पहला दावा ऐसा है, जो वर्तमान में परमेश्वर के वचन के प्रचारकों तथा शिक्षकों में से बहुत ही कम, यदि कोई करे भी तो, अपने लिए करेंगे। सामान्यतः, आज की प्रचलित प्रवृत्ति यही है कि वर्तमान के बाइबल के प्रचारक और शिक्षक पहले अपने श्रोताओं या जिन को सन्देश पहुँचाना है, उन्हें, अपनी शिक्षा, योग्यताओं, ज्ञान, और उनकी सेवकाई की लोकप्रियता, आदि के आधार पर प्रभावित करना चाहते हैं। ये सभी परमेश्वर को मिलने वाली महिमा का पूरा या अधिकांश भाग नहीं तो कम से एक अंश तो अवश्य ही अपने लिए लेना चाहते हैं, जो कि परमेश्वर के सेवकाई करने वाले के लिए अनुचित व्यवहार है (यशायाह 42:8; 48:11)। लेकिन पौलुस उसके द्वारा परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार में ऐसी किसी भी संभावना के उत्पन्न होने से पहले ही उसे पूर्णतः समाप्त कर देता है। पौलुस अपने श्रोताओं से अपनी शिक्षा, फरीसी होने के लिए उसके कठोर प्रशिक्षण, पवित्र शास्त्र की उसकी समझ, इन सब बातों के कारण वह जिस स्तर तक पहुँचा था, आदि बातों का कोई उल्लेख नहीं करता है। उस ने केवल एक स्थान पर इनका उल्लेख किया, फिलिप्पियों 3:5 में; और यहाँ पर भी वह बहुत सरसरी रीति से इनका उल्लेख करता है, और वह भी उसकी सेवकाई में उन बातों का व्यर्थ होना दिखाने के लिए (फिलिप्पियों 3:7-8)। उसका दूसरा दावा है किस प्रकार से उसकी सेवकाई और परमेश्वर के वचन के साथ उसका व्यवहार परमेश्वर को महिमा देने पर ही केन्द्रित था, यह दिखाने के द्वारा कि सेवकाई के लिए जो भी उसे पूर्णतः सामर्थ्य उसके पास थी वह परमेश्वर की आत्मा से मिली थी, न कि उसकी अपनी किसी योग्यता से।
हम पौलुस की सेवकाई और परमेश्वर के वचन के साथ उसके व्यवहार से सम्बन्धित उसके इन दोनों दावों को आगे के लेखों में भी देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 6
We are learning from Paul’s life and examples of how to handle God’s Word. We have seen from 1 Corinthians 1:17, three things about Paul’s ministry that had a bearing on his using God’s Word in an appropriate manner. Firstly, Paul knew what he had not been sent to do; secondly, he knew what he had been sent to do; and thirdly, in fulfilling his God assigned task, he did not add his own wisdom of words into God’s Word given to him, lest the message of the Cross of Christ be made of no effect. Today we will begin to see another aspect of Paul’s use of God’s Word from 1 Corinthians 2:4-5.
These verses, actually, the whole of chapter 2, builds upon the third point of verse 17 of chapter 1, that we saw in the last article – negating the role of human wisdom in handling God’s Word. Chapter 2 makes it clear that God, to His people, those obedient to Him and desirous of sincerely serving Him, has given the required power and ability, through His Holy Spirit. The Holy Spirit teaches them the appropriate part of God’s Word for their ministry (2:12-13). But those who are not actually committed to the Lord, those who are still in their natural unsaved state, are unable to receive or understand what God the Holy Spirit has to say (2:14-15). Paul concludes the chapter with a statement implying that only those who have the mind of Christ can know and learn what God wants to say (2:16). The lesson of this chapter, from our context, is that those committed and surrendered to the Lord, sincerely desirous of serving God the way He wants them to serve Him, will also be given the appropriate Word and taught how to use it, by God the Holy Spirit. Therefore, to appropriately handle God’s Word, the preliminary condition is being committed and surrendered to God, and be willing to sincerely serve Him the way He wants them to do it. With this in mind, we will consider 1 Corinthians 2:4-5.
Paul begins verse 4 by making two claims; his first claim is one that very few, if any, of the present-day preachers and teachers of God’s Word would like to make today. Usually, the prevalent tendency of the current preachers and teachers of God’s Word is to first try to impress the audience, or the recipients of their message, by their education, qualifications, their knowledge, and the popularity of their ministry, etc. They like to take at least a slice of the glory that should be given to God, if not a good part, or all of it; which is contrary to the teachings of God’s Word and improper for a minister of God (Isaiah 42:8; 48:11). But Paul, straightaway cuts off any possibility of this happening in his handling of God’s Word. Paul does not mention to his audience his education, his rigorous training as a Pharisee, his understanding of the Scriptures, and the stature he had gained because of all this. The only place he refers to this is in Philippians 3:5; there too he mentions it very briefly, and only to discount it, to show how vain these things were for his ministry (Philippians 3:7-8). His second claim is about how his ministry and handling God’s Word was centred around giving glory to God, through demonstrating that the power he had for his ministry, was entirely from the Spirit of God, and not because of anything from his side.
We will continue studying further both these claims of Paul about his ministry and handling God’s Word in the subsequent articles.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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