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बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 183 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 14

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पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 4

 

    पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी होने के नाते, हमने पिछले लेख में देखा था कि मसीही विश्वासियों को हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि वास्तव में नया-जन्म पाए हुए सभी मसीही विश्वासी परमेश्वर की सन्तान भी हैं और परमेश्वर के परिवार के सदस्य हैं। किन्तु शैतान भी अपने लोगों को कलीसियाओं और मण्डलियों में घुसा देता है। वे अपने आप को झूठे प्रेरितों और धार्मिकता के प्रचारकों के समान प्रस्तुत करते हैं, परमेश्वर के वचन से प्रचार करने में सक्रिय भाग लेते हैं, किन्तु बड़ी चालाकी से वे कलीसिया में गलत शिक्षाएँ और झूठे सिद्धान्त भी घुसा देते हैं और परमेश्वर के लोगों को सही मार्ग से भरमा-भटका देते हैं। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि किसी को भी वचन की सेवकाई की ज़िम्मेदारी देने से पहले बहुत सावधानी से उस के बारे में बारीकी से जाँच-परख कर ली जाए, और तब ही कलीसिया में प्रचार करने और शिक्षा देने का अवसर दिया जाए। आज हम रोमियों 12:4-5 से सीखना ज़ारी रखेंगे।

    जो वास्तव में प्रभु परमेश्वर के परिवार का सदस्य है, वह अपने परिवार के लोगों के साथ मेल-मिलाप बनाए रखेगा, उनकी भलाई की सोचेगा (गलातियों 6:10; 1 तिमुथियुस 5:8), उनके हित में होकर कार्य करेगा; तथा परमेश्वर के वचन के निर्देश के अनुसार (1 कुरिन्थियों 12:7), अपने आत्मिक वरदानों को अपनी व्यक्तिगत प्रशंसा और भलाई के लिए नहीं, वरन सभी की भलाई के लिए उपयोग करेगा। वह इस एहसास के साथ जीता और कार्य करता है कि परमेश्वर के परिवार में, प्रभु की मण्डली - उसकी देह (इफिसियों 5:25-30) में, जिस मण्डली के साथ प्रभु ने उसे रखा और जोड़ा है, वहाँ पर वह एक आवश्यक, उपयोगी, और अभिन्न अंग है; प्रभु के लिए उसकी उपयोगिता, उसकी आशीष और उन्नति वहीं से है। इसलिए किसी भी मसीही विश्वासी का कैसा भी अनुचित जीवन, व्यवहार, और कार्य, न केवल उसके व्यक्तिगत जीवन और गवाही पर दुष्प्रभाव लाता है, वरन परमेश्वर के पूरे परिवार, प्रभु की पूरी मण्डली पर दुष्प्रभाव लाता है, उन सभी के लिए दुःख का कारण होता है और उनकी सेवकाई के कार्यों को सुचारु रीति से करने में बाधा बनता है।

    रोमियों 12:4 यह बिल्कुल स्पष्ट बता रहा है कि जैसे देह के सभी अंगों का एक ही, या समान ही कार्य नहीं होता है, वैसे ही प्रत्येक मसीही विश्वासी की भी मण्डली में अपनी-अपनी, औरों से भिन्न सेवकाई है, भिन्न दायित्व हैं, जो उनके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए गए हैं। इसलिए सभी को अपनी-अपनी सेवकाई, अपने-अपने दायित्वों का सही रीति से निर्वाह करना है। किसी दूसरे की सेवकाई या दायित्वों को लेकर ईर्ष्या नहीं करनी है, उसकी सेवकाई को अपने लिए लेने और करने के प्रयास नहीं करने हैं, और न ही अपनी सेवकाई के कारण अपने आप को उच्च या महान समझने, घमण्ड करने की प्रवृत्ति रखनी है; क्योंकि, जैसा हम पहले देख चुके हैं, परमेश्वर की दृष्टि में सभी सेवकाइयाँ और वरदान समान स्तर और महत्व के हैं। देह के सभी अंग अपने-अपने स्थान और कार्य के लिए महत्वपूर्ण हैं; कोई भी अंग अथवा उसका कार्य देह के लिए कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, सभी का समान महत्व और उपयोग है। जैसे किसी एक अंग के न होने के कारण, या सुचारु रीति से कार्य न करने के कारण सारी देह अपनी रचना में अपूर्ण हो जाती है, या कार्य में अधूरी या अथवा कार्य के लिए अक्षम हो जाती है, वैसे ही किसी भी मसीही विश्वासी के मण्डली से अनुपस्थित होने, मण्डली में अपना काम न करने, या मण्डली में ठीक से कार्य न करने के कारण कलीसिया या मण्डली की बढ़ोतरी और काम में, तथा उसके अपने जीवन में आत्मिक उन्नति नहीं होने पाती है। इसीलिए रोमियों 12:5 मसीही विश्वासियों को न केवल प्रभु की देह का अंग, वरन एक-दूसरे का अंग भी बताता है, जो मण्डली के लिए भी तथा एक-दूसरे के लिए भी सहायक और उपयोगी हों। उनकी आवश्यकता न केवल कलीसिया के कामों के लिए बल्कि एक दूसरे की बढ़ोतरी के लिए भी आवश्यक है। क्योंकि किसी भी कलीसिया में एक गलत वातावरण उसके सभी सदस्यों के कार्य, रवैये, और व्यवहार पर बुरा प्रभाव डालेगा, इसलिए सभी सदस्यों को एक-दूसरे के सहायक और सह-कर्मी होना चाहिए।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो अपनी सेवकाई को ठीक से, प्रभु की इच्छानुसार, तथा अपने आत्मिक वरदानों का उपयुक्त उपयोग मण्डली की भलाई और उन्नति के लिए कर पाने के लिए, आपके लिए यह आवश्यक है कि अपने आप को, औरों के समान ही, परमेश्वर के परिवार का तथा प्रभु की देह, उसकी मण्डली का एक अभिन्न एवं उपयोगी अंग समझ कर कार्य करें। न अपने आप को, अपनी सेवकाई को, अपने वरदान को किसी से गौण या छोटा अथवा कम उपयोगी समझें, और न ही किसी प्रकार से विशिष्ट और उच्च होने की भावना अपने में उत्पन्न होने दें। अन्यथा शैतान आपको हीन भावना अथवा घमण्ड से ग्रसित करके, अपने या मण्डली के, या मण्डली के किसी सदस्य के विरुद्ध किसी-न-किसी पाप में उलझा और फंसा देगा, प्रभु के लिए आपके कार्य और उपयोगिता की हानि करवा देगा। प्रभु परमेश्वर ने जो सेवकाई और वरदान आपको दिया है, उसे ही प्रभु की महिमा के लिए योग्य रीति से प्रयोग करें। शैतान व्यक्ति को किसी अन्य आकर्षक या प्रतिष्ठित सेवकाई और वरदान के लालच में फँसाकर उसे प्रभु द्वारा उसके लिए तय की हुई मण्डली तथा उस मण्डली में निर्धारित की हुई उसकी सेवकाई और आशीष से दूर ले जा सकता है; कुछ समय तक वह प्रतिष्ठा और सेवकाई अच्छे से चल भी सकती है, किन्तु अन्ततः उसके दुष्प्रभाव उस विश्वासी के अपने तथा उसके पारिवारिक जीवन में हानि ही लेकर आएँगे। जबकि प्रभु द्वारा निर्धारित स्थान, स्तर, और सेवकाई में बने रहने, अपनी इच्छा के अनुसार नहीं बल्कि प्रभु द्वारा उसके लिए तय की गई ज़िम्मेदारी का ही सुचारु रीति से निर्वाह करने द्वारा ही विश्वासी आशीषों और उन्नति के पात्र होंगे। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 5

 

    As stewards of the gifts of the Holy Spirit, we have seen in the previous article that Christian Believers should also always bear in mind that the truly Born-Again Believers are all children of God, and members of God’s family. But Satan also infiltrates his people into the Church and Assemblies. They present themselves as false apostles and ministers of righteousness, take active part in preaching God’s Word, but very subtly, also introduce false teachings and wrong doctrines into the Church to mislead God’s people away from the right way. Therefore, it is very necessary to be very circumspect in giving people the ministry of God’s Word, the opportunity to preach and teach in the Church. Today we will carry on learning from Romans 12:4-5.

    He who truly is a member of God’s family, will stay in fellowship and unity with the other members of his spiritual family, will think about their good (Galatians 6:10; 1 Timothy 5:8), and will do things for their benefit; he, in accordance with the instructions of God’s Word (1 Corinthians 12:7), will use his Spiritual gifts and ministry not for himself and his being glorified, but for the benefit and edification of others. Such a person lives and works with the realization that in the family of God, in the Church of the Lord i.e., the body of Christ (Ephesians 5:25-30), in the Church or Assembly where God has placed him, joined him, there he is a necessary, useful, and integral part; he is useful for the Lord there, his blessings and growth are from there. Therefore, any kind of inappropriate living, behavior, and work of any Christian Believer, brings a harmful effect not only on his own life and witness but on the whole family of God, the Church, and becomes a cause for pain and problem for everybody else, and adversely affects the proper work and ministry of the others.

    Romans 12:4 is very clearly saying that just as in a body every part and organ has its own place and work, similarly in the Christian Assembly or Church, every member has his own role and ministry, which is different from the work, ministry and role of others, that have been assigned to them by God. Therefore, everyone should carry out his God assigned role and ministry properly and worthily. No one should covet another’s ministry or feel envious or jealous because of another’s ministry. Neither should anyone feel proud or superior because of the ministry given by God to him; since as we have seen earlier, all Spiritual gifts and ministries are of same importance in God’s eyes. All parts of the body are important and essential in the place they are placed, and the work they have to do; no part of the body or its function is of any lesser importance for the body, all are equally necessary and important. Just as due to the absence, non-functioning, or improper functioning of any one part, the functioning of the whole body is adversely affected, similarly due to the absence, non-functioning, or improperly functioning of any Christian Believer, adversely affects the work and growth of the local Church or Assembly, and his own spiritual growth is adversely affected. For this reason, Romans 12:5 not only calls the Christian Believers as members of the body of the Lord, but also members of each other, who are required not only for the functioning of the Church, but also of each other. Since a wrong atmosphere in any Church will hamper the proper functioning and attitude of its members, therefore the members should be helpers and of service for each other.

    If you are a Christian Believer, then for you to carry out your ministry properly and worthily, according to the will of God, and to be able to use your ministry and gifts for the benefit and edification of the Church, it is necessary for you to consider yourself a similar member of God’s family, a necessary and integral part of the Assembly or the Church, just as the others are. You should neither consider yourself, your ministry, and your Spiritual gift as small or of lesser importance than any other’s; nor should you think of yourself, your ministry, and your Spiritual gift as superior and of more importance than any other. If you allow any of these feelings to settle in you, then Satan will soon make you fall in either a feeling of inferiority or in pride of superiority, entrap you in some sin or the other, obstruct your work and ministry for the Lord. Use whatever ministry and Spiritual gift God has given to you for the glory of God, the propagation of the gospel, and edification of the Church. Then you too will be blessed and benefitted, as will the others be through your ministry and gifts. Satan may entice a Believer away from his God assigned status and ministry through some attractive and seemingly prestigious status and ministry somewhere else, and deprive him of his blessings; it may be that for some time that in that other location that status and ministry might seem to be working well for him, but eventually the harmful effects that come upon his own and his family life will bring a great loss for him. But by staying on in the place, status, and ministry God has assigned for him and serving well in the ministry that God wants him to do, instead of what he himself wants, the Believer will receive rich blessings and growth.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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