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पवित्र आत्मा के वरदान – 3
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए आत्मिक वरदानों को देखना आरंभ किया था। यहाँ दिए गए 9 विभिन्न वरदानों: “बुद्धि का बातें”; “ज्ञान की बातें”; “विश्वास”; “चंगा करने का वरदान”; “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”; “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना” में से हमने पहले पाँच के बारे में देखा था। साथ ही हमने यह भी देखा था कि पवित्र आत्मा के सभी वरदान किसी के निज प्रयोग अथवा लाभ के लिए नहीं हैं, वरन, सभी के लिए और मसीही विश्वासियों की मण्डली की उन्नति और लाभ के लिए हैं। जिसे भी उसकी सेवकाई के लिए जो भी वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रदान किया है, उसे वह वरदान पवित्र आत्मा की अगुवाई में, सभी मसीही विश्वासियों के लाभ के लिए प्रयोग करना है, अपने लिए नहीं। आज हम शेष चार में से दो वरदानों के बारे में कुछ विवरण देखेंगे:
“भविष्यवाणी करने की शक्ति”: मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “भविष्यवाणी” किया गया है, उसका शब्दार्थ न केवल भविष्य की बातें बताना होता है, वरन प्रेरणा पाकर औरों के सामने, या औरों की उपस्थिति में बोलना या बताना भी होता है। 1 कुरिन्थियों 14:3 में इसी शब्द को, केवल भविष्य की बातें ही नहीं, वरन “”... मनुष्यों से उन्नति, और उपदेश, और शान्ति की बातें” कहने के लिए भी प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार से लूका 22:64 में, जब पकड़वाए जाने के बाद सैनिकों द्वारा प्रभु का उपहास किया जा रहा था, तब इसी शब्द का उपयोग वर्तमान में जारी घटना में “बूझने” या “पता लगाकर बताने” के लिए भी हुआ है, “और उस की आंखें ढांपकर उस से पूछा, कि भविष्यद्वाणी कर के बता कि तुझे किसने मारा”। इसी प्रकार से इस शब्द को बाइबल में विभिन्न स्थानों में उसके भिन्न अर्थों के साथ उपयोग किया गया है। पवित्र आत्मा न केवल कुछ लोगों को भविष्य की बातें बताने की सामर्थ्य देता है (प्रेरितों 21:9-11), वरन कुछ लोगों को परमेश्वर की बातें औरों के सामने या औरों की उपस्थिति में बोलने की भी सामर्थ्य देता है (1 कुरिन्थियों 11:4,5; 13:9; 14:3-5, 24, 31, 39; प्रकाशितवाक्य 11:3), और इन सभी स्थानों पर, यही शब्द उपयोग किया गया है। इसलिए “भविष्यवाणी करने की शक्ति” केवल भविष्य में होने वाली घटनाओं को बताने का वरदान नहीं है, वरन परमेश्वर का प्रतिनिधि बनकर परमेश्वर के वचन को औरों के सामने बोलने और प्रचार करने का वरदान भी है।
“आत्माओं की परख”: पहली कलीसिया की स्थापना, और प्रभु के शिष्यों द्वारा सुसमाचार प्रचार के आरंभ होने के साथ ही शैतान की ओर से झूठे प्रचारकों ने भी अपना काम करना आरंभ कर दिया (1 यूहन्ना 2:18; 4:1)। प्रभु यीशु के नाम से प्रचार को कमाई का साधन बना कर प्रयोग करने वाले (रोमियों 16:18; फिलिप्पियों 3:18, 19), और गलत शिक्षाओं के देने वाले (2 कुरिन्थियों 4:2; 2 पतरस 2:1; 2 यूहन्ना 1:7) भी मण्डलियों और लोगों में फैलने लगे, और इन बातों तथा अपने ऐसे ही अन्य कार्यों के द्वारा लोगों को बहकाने लगे, गलत शिक्षाओं और अनुचित बातों में पाठ-भ्रष्ट करने लगे थे। उस समय में, जब आज के समान लिखित वचन लोगों के हाथ में नहीं था, अधिकांशतः मसीही जीवन की शिक्षाएं, सुसमाचार प्रचार, और प्रभु की बातों का प्रसार, मौखिक प्रचार और संबोधनों के द्वारा होता था। ऐसे में, इन शैतान के लोगों के झूठ और गलत शिक्षाओं को तुरंत ही परखने, पहचानने, और प्रकट करने के लिए, वचन को जानने, जाँचने, और सच को उजागर करने की शक्ति पवित्र आत्मा लोगों को देता था, जिससे वे झूठ को प्रकट कर के लोगों को गलत शिक्षाओं से बचा सकें (1 कुरिन्थियों 14:29)। यह कार्य आज भी पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से कुछ लोग विभिन्न तरीकों से करते रहते हैं, अन्यथा गलत शिक्षाओं की भरमार में मसीही विश्वासियों के लिए सत्य की पहचान करना बहुत कठिन हो जाएगा।
हम 2 कुरिन्थियों 12:7-11 में उल्लेखित वरदानों में से शेष दो, जो “अन्य-भाषा” से सम्बन्धित हैं – अन्य-भाषा बोलना और अन्य-भाषा का अर्थ बताना को अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Gifts of the Holy Spirit – 3
From the previous article we had started to see about the gifts of the Holy Spirit mentioned in 1 Corinthians 12:7-11. Of the 9 different gifts, “word of wisdom,” “word of knowledge,” “faith,” “healing,” “miracles,” “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongues” mentioned in these 5 verses, we had seen about the first 5. We had also seen that none of the gifts of the Holy Spirit are for any person’s personal use or benefit; rather, all the gifts are meant for the help and benefit of everyone in the Church. Whichever gift anyone has received for their God assigned work and ministry, he has to use that gift under the guidance of God the Holy Spirit, for the benefit of the Christian Believers, not for himself alone. Today we will see about two from the remaining four gifts:
“Prophecy”: The word used in the original Greek language, that has been has translated as “prophecy” means “to speak forth” - not only in time, i.e., tell about future events or things, but also to be inspired to speak before, or in the presence of others, or tell others. The same word has been used in 1 Corinthians 14:3 “But he who prophesies speaks edification and exhortation and comfort to men” to convey that to prophecy also means to edify, exhort, and comfort others; and not only to tell about future things. Similarly, in Luke 22:64, when the soldiers were mocking the Lord Jesus caught for crucifixion, the same word has been used "Prophesy! Who is the one who struck You?" with the meaning of telling about an ongoing event. At other places too, in the Bible, this word has been used in its various meanings. The Holy Spirit not only gives the power to tell about the future events to some people (Acts 21:9-11), but also gives the power and ability to speak the things of God before, i.e., while in presence of others (1 Corinthians 11:4,5; 13:9; 14:3-5, 24, 31, 39; Revelation 11:3), and for all these, the same word has been used. So, the gift of “prophecy” is not just the gift of foretelling events, but also the gift of speaking and preaching God’s Word as the spokesman of God, before others.
“Discerning of spirits”: Along with the establishing of the first Church, and the beginning of the preaching of the gospel by the Lord’s disciples at various places, false preachers and teachers from Satan too started their work (1 John 2:18; 4:1), those who preach wrong doctrines and false teachings started to grow and spread (2 Corinthians 4:2; 2 Peter 2:1; 2 John 1:7), and people started to use the name of the Lord Jesus and preaching in His name as a means of earning money (Romans 16:18; Philippians 3:18, 19), and through all these and other similar things started to mislead and beguile people into wrong ways. At that time, when, unlike today, the people did not have the written Word in their hands, and usually all preaching about Christian Living, preaching the Gospel, and spreading the teachings of the Lord was done through oral preaching and addressing people. In such a situation, the Holy Spirit gave the ability to some people to immediately recognize the lies and false teachings of Satan and expose them to others. The Holy Spirit also gave the power and ability to know, examine, and teach God’s Word and to expose the false teachings, so that they could expose the lies and save others from wrong teachings and false doctrines (1 Corinthians 14:29). This work is done even today by some people under the guidance and power of the Holy Spirit; else in the rampant spread of the wrong doctrines and false teachings amongst Christian Believers today, it would become very difficult to discern the truth.
In the next article we will consider the remaining two gifts mentioned in 1 Corinthians 12:7-11, related to “tongues” – speaking in tongues and interpreting tongues.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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