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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 178 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 9

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पवित्र आत्मा के वरदान – 4

 

    पिछले लेखों  में हमने 1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए आत्मिक वरदानों को देखना आरंभ किया था। यहाँ दिए गए 9 विभिन्न वरदानों: “बुद्धि का बातें”; “ज्ञान की बातें”; “विश्वास”; “चंगा करने का वरदान”; “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”; “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना” में से हमने पहले सात के बारे में देख लिया है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि पवित्र आत्मा के सभी वरदान किसी के निज प्रयोग अथवा लाभ के लिए नहीं हैं, वरन, सभी के लिए और मसीही विश्वासियों की मण्डली की उन्नति और लाभ के लिए हैं। जिसे भी उसकी सेवकाई के लिए जो भी वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रदान किया है, उसे वह वरदान पवित्र आत्मा की अगुवाई में, सभी मसीही विश्वासियों के लाभ के लिए प्रयोग करना है, अपने लिए नहीं। आज हम शेष दो वरदानों के बारे में कुछ विवरण देखेंगे:   

  • “अनेक प्रकार की भाषा”: प्रेरितों 2:4-11 से यह प्रकट है कि जिन “अन्य भाषाओं” का उल्लेख किया गया है वे पृथ्वी की ही, और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं थीं, न कि अलौकिक या पृथ्वी के बाहर की भाषाएं, जैसा पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वाले दावा करते हैं। यह बात 1 कुरिन्थियों 14 अध्याय के अध्ययन से और अधिक स्पष्ट एवं दृढ़ हो जाती है। उस समय प्रभु के शिष्यों और प्रेरितों को तुरंत ही संसार भर में जाकर सुसमाचार बताने की आवश्यकता थी; किन्तु प्रभु के सभी अनुयायी इस्राएल से थे, यहूदी भाषा बोलने वाले थे, और अधिकांशतः तो बहुत कम शिक्षा पाए हुए या अनपढ़ भी थे। इस बात का सुसमाचार प्रचार में बाधा बनने के समाधान के लिए पवित्र आत्मा ने उन शिष्यों को बिना पहले स्थानीय भाषा को सीखे, अनेकों प्रकार की भाषाएं बोलने का वरदान भी दे दिया, जिससे वे जहाँ पर भी जाएँ, वहाँ की भाषा के अनुसार उन इलाकों में जाकर प्रचार कर सकें। यह उस समय की तात्कालिक आवश्यकता थी, जिसका समाधान परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रदान किया, और यह 1 कुरिन्थियों 14 अध्याय में और स्पष्ट भी हो जाता है। साथ ही पवित्र आत्मा ने यह भी लिखवा दिया कि यह वरदान स्थाई नहीं है, वरन एक समय पर समाप्त हो जाएगा क्योंकि तब इसकी आवश्यकता नहीं रहेगी (1 कुरिन्थियों 13:8), हर स्थान पर हर भाषा में सुसमाचार देने वाले लोग खड़े हो जाएंगे। किन्तु इस वरदान की गलत समझ, व्याख्या, और शिक्षाओं के द्वारा पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वालों ने बहुतेरों को बहका रखा है, भ्रम में डाल रखा है। साथ ही, बाइबल की शिक्षाओं और निर्देशों के विपरीत, जो लोग “अन्य-भाषा” के बारे में ये गलत शिक्षाएँ देते हैं, वे इस वरदान को व्यक्तिगत उपयोग तथा स्वयं की महिमा के लिए चाहते हैं, परमेश्वर के साथ “व्यक्तिगत वार्तालाप” करने के लिए, जबकि उनको यह पता भी नहीं होता है कि उन्होंने जो “परमेश्वर से वार्तालाप” किया, उसमें क्या कहा और सुना गया, वह किस बारे में था, क्या निर्देश मिले, क्या सुधारने के लिए कहा गया।

प्रत्येक अन्य आत्मिक वरदान के समान, अन्य भाषा बोलने का वरदान भी सभी की भलाई, सभी की उपयोगिता, और मण्डली की उन्नति के लिए है; किसी के द्वारा व्यक्तिगत प्रयोग या अपने आप को विशेष सामर्थ्य पाया हुआ दिखाने के लिए नहीं। इसलिए इस वरदान के आधार पर कोई भी अपने आप को विशिष्ट या असाधारण, परमेश्वर द्वारा विशेष रीति से आशीष पाया हुआ नहीं कह या दिखा सकता है। ऐसा कहना या जताना, इस वरदान का दुरुपयोग करना है, तथा परमेश्वर के वचन की अनुचित व्याख्या के द्वारा उसका भी दुरुपयोग करना है। इसे व्यक्तिगत उपयोग के लिए बताना या प्रयोग करना, वचन के अनुसार नहीं है, और वास्तविकता तो यह है कि आज जो इस वरदान को इतना महत्व देते हैं, वे कोई भाषा नहीं बोल रहे होते हैं, वे एक उन्माद की दशा में केवल मुँह से कुछ निरर्थक आवाज़ें निकाल और दोहरा रहे होते हैं। क्योंकि वे जो बोल रहे होते हैं उसे न तो वे स्वयं और न ही कोई अन्य समझने पाता है, और स्वयं को जायज़ ठहराने के लिए वे इसे “अलौकिक भाषा” में बात करना कह देते हैं। 

  • “भाषाओं का अर्थ बताना”: जिस प्रकार संसार के सभी स्थानों में जाकर वहाँ की भाषा में सुसमाचार प्रचार करने वालों की आवश्यकता थी, उसी प्रकार से मण्डलियों में ऐसे लोगों की भी आवश्यकता थी जो दु-भाषिये का कार्य कर सकें। अर्थात यदि बाहर से कोई भिन्न भाषा बोलने वाला प्रचारक किसी मण्डली में आए, तो उसकी बात को स्थानीय भाषा में अनुवाद कर के स्थानीय लोगों को लाभान्वित कर सकें। इसीलिए पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि प्रचारक को किसी नए स्थान पर जाने के बाद पहले यह पता कर लेना चाहिए कि उसकी बात का स्थानीय भाषा में अनुवाद करने वाला कोई है कि नहीं; यदि नहीं है तो फिर उसे शांत रहना चाहिए, नाहक प्रचार नहीं करना चाहिए (1 कुरिन्थियों 14:27-28)।

    1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए 9 आत्मिक वरदानों को देखने के बाद, अगले लेख से हम अपना ध्यान रोमियों 12 अध्याय पर केंद्रित करेंगे, और विश्वासी के पवित्र आत्मा के वरदानों को उपयोग करने का भण्डारी होने के बारे में सीखना आरम्भ करेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Gifts of the Holy Spirit – 4

 

    From the previous articles we have been seeing about the gifts of the Holy Spirit mentioned in 1 Corinthians 12:7-11. Of the 9 different gifts, i.e., “word of wisdom,” “word of knowledge,” “faith,” “healing,” “miracles,” “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongues”, we had seen about the first 7. We had also seen that none of the gifts of the Holy Spirit are for any person’s personal use or benefit; rather, all the gifts are meant for the help and benefit of everyone in the Church. Whichever gift anyone has received for their God assigned work and ministry, he has to use that gift under the guidance of God the Holy Spirit, for the benefit of the Christian Believers, not for himself alone. Today we will see about the remaining two gifts:

  • “Different kinds of tongues”: From Acts 2:4-11 it is apparent that the “tongues” or other languages that has been spoken of were known, recognized, named, and spoken earthly languages of different geographical regions. They were not any “out of the world” or “heavenly” languages, as those who preach and teach wrong things in the name of the Holy Spirit claim. This becomes all the more clear and established form 1 Corinthians 14. At that time, the disciples of the Lord Jesus had to spread out into the world and preach the gospel to all people; but the disciples were all from Israel, spoke their local language, and most of them were either poorly educated or uneducated. So that this does not become a limiting factor in the preaching and spread of the Gospel, therefore, the Holy Spirit gave the then disciples the remedy to the situation - the miraculous ability to speak in other languages without having to wait to learn them, so that they could immediately go to various geographical areas and preach the gospel unhindered by language, in the local language. This was an immediate need of the situation, and it was taken care of by the Holy Spirit, and this becomes clear in 1 Corinthians 14. Moreover, God the Holy Spirit also had it written down that this gift was not for all times, but after some time it will be taken away because by that time it will no longer be needed (1 Corinthians 13:8), at every place, in every language people would come up who can preach the gospel in the local language. But, by misinterpreting the teachings about this gift and misusing this gift itself, those who preach wrong doctrines and teach false teachings have created a lot of confusion and have beguiled and led astray many people. Moreover, contrary to Biblical instructions and teachings, those who give these wrong teachings about “tongues,” seek this gift for personal use and self-glorification, for their “personal communications” with God, without even knowing what they have “communicated with God” about, what was said and heard in that “conversation” what instructions were given to them and what were they asked to correct and improve upon.

Like every other spiritual gift, the gift of being able to speak in other languages is also for the growth and benefit of the Church and other Christian Believers, and not for the use and benefit of any person. Therefore, no one can claim to be someone extra-special or extra-ordinary, specially blessed by God because of having this gift. Doing so is a misuse of this gift and God’s Word; is misinterpreting and misusing God’s Word. Claiming that this gift is for personal use and is to be used it in that manner, is inconsistent with God’s Word. The reality is that those who do this, actually do not speak any language, but just repetitively utter a few unintelligible sounds in an ecstatic state. Since what they are saying is neither understood by them nor by anyone else, and to justify themselves they claim that they are speaking some “heavenly” language.

  • “Interpretation of tongues”: At that time, just as it was required that there be people who will be able to go to various places and preach the gospel in the local language, similarly it was required in the Church that there be bi-lingual or multi-lingual people, who would be able to translate for someone coming from outside, from another language speaking area, so that if an outside preacher comes, then the local people can benefit from what he has to say. It is for this reason that the Holy Spirit had it written down that if a preacher goes to a new area, he should first find out if there is someone who can translate for him into the local language; if there is nobody, then he should stay silent instead of unnecessarily preaching when no one can understand what he is saying (1 Corinthians 14:27-28).

    Having considered the 9 gifts mentioned in 1 Corinthians 12:7-11, from the next article we will shift our focus to Romans 12, and start learning about the Believer’s being stewards of utilizing their spiritual gifts.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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