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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 16
सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के दूसरे अनिवार्य भाग, अर्थात सुसमाचार पर विश्वास करने के बारे में विचार करते हुए हमने देखा है कि प्रभु यीशु के क्रूस पर मारे जाने और उनके पुनरुत्थान से पहले, यहूदियों के लिए शब्द “सुसमाचार” का अर्थ था रोमी राज्य से छुड़ाया जाना। यद्यपि यहूदियों में प्रतिज्ञा किये हुए मसीहा, छुटकारा देने वाले के आगमन की प्रत्याशा थी किन्तु उनकी अपेक्षा एक ऐसे व्यक्ति के लिए थी जो उन्हें रोमियों के शासन से मुक्त करे और राज्य को फिर से उनके हाथों में कर दे। वे किसी ऐसे मसीहा या छुड़ाने वाले की प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे जो उन्हें उनके पापों के व्यक्तिगत बन्धनों से मुक्त कर दे और उन्हें परमेश्वर के स्वर्गीय राज्य के सदस्य बना दे। जैसा कि आज सँसार भर के मसीहियों या ईसाइयों के लिए है, उसी प्रकार से उस समय के यहूदियों के लिए भी, पापों से मुक्ति पाना कोई बड़ी बात नहीं थी। उन यहूदियों की समझ यही थी कि यह उनके द्वारा मनाए जाने वाले धार्मिक परम्पराओं, पर्वों, त्यौहारों, और रीतियों आदि के द्वारा, जिन्हें या तो पवित्र शास्त्र में दिया गया है या जिन्हें उनके धार्मिक अगुवों ने निर्धारित किया है, बहुत सहज रीति से हो सकता है। किन्तु जैसा कि हमने पिछले लेख के उदाहरणों से देखा है, यह उनकी एक बहुत बड़ी गलतफहमी थी, और न तो पुराने नियम में, और न ही उनके मध्य में प्रभु यीशु की सेवकाई के दौरान, कभी भी यह कहा गया था कि पापों से छुटकारा किन्हीं धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह या रीतियों को पूरा करने के द्वारा संभव है।
यही आज मसीहियों के लिए भी ऐसे ही सच है; उन में बहुत व्यापक रीति से प्रचलित गलत धारणा के विपरीत, जिसे अक्सर उनके धार्मिक अगुवों द्वारा पोषित और प्रोत्साहित किया जाता है, बाइबल यह स्पष्ट शिक्षा देती है कि पापों से छुटकारा उनके द्वारा धार्मिक परम्पराओं, पर्वों, त्यौहारों, और रीतियों आदि के मनाने से नहीं है। सभी के लिए इसे समझना और इस गलत धारणा से बाहर निकलना बहुत अनिवार्य है, केवल तब ही वे सुसमाचार में विश्वास करने के अर्थ को समझने पाएँगे। इसलिए, सुसमाचार में विश्वास करने पर विचार करने से पहले, जैसा कि पिछले लेख के अन्त में कहा था, हम पहले यह देखेंगे कि मसीही होने का क्या अर्थ है, फिर हम देखेंगे कि क्यों धार्मिक परम्पराओं, पर्वों, त्यौहारों, और रीतियों आदि के निर्वाह के द्वारा कोई पापों से नहीं बच सकता है और न ही स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य हो सकता है, और फिर उसके आधार पर समझेंगे कि सुसमाचार पर विश्वास करने का क्या अर्थ होता है।
मसीहियों में एक और बहुत सामान्य रीति से देखी जाने वाली और उनमें फैली हुई गलत धारणा है, उनके स्वतः ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर पाने के लिए प्रभु को स्वीकार्य होने के बारे में। यह सामान्यतः, बस यूँ ही मान लिया जाता है कि एक “ईसाई” या “मसीही” परिवार में जन्म लेने के नाते और जिस परिवार में जन्म हुआ है उस से सम्बन्धित डिनॉमिनेशन या मत की धार्मिक विधियों और रीतियों का पालन करने के द्वारा, वे स्वतः ही उन लोगों का एक भाग बन गए हैं जो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने के लिए स्वीकार्य हैं, और पृथ्वी से जाने के बाद वे अवश्य ही प्रवेश पा भी जाएँगे। यह उसी के समान है जो यहूदी अपने बारे में सोचते थे – पित्रों, अब्राहम, इसहाक, और याकूब के वंशज होने के नाते, वे सभी परमेश्वर के लोग और उसके राज्य में प्रवेश करने के लिए स्वीकार्य हैं, वे चाहे जैसा भी जीवन जीएँ या जो भी करें। किन्तु प्रशिक्षित फरीसी और पुराने नियम के विद्वान, पौलुस ने इस गलतफहमी का निवारण किया और सही बात को बताया, जब उसने पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखा:
- क्योंकि वह यहूदी नहीं, जो प्रगट में यहूदी है और न वह खतना है जो प्रगट में है, और देह में है। पर यहूदी वही है, जो मन में है; और खतना वही है, जो हृदय का और आत्मा में है; न कि लेख का: ऐसे की प्रशंसा मनुष्यों की ओर से नहीं, परन्तु परमेश्वर की ओर से होती है। (रोमियों 2:28-29)
- तो वह क्योंकर गिना गया खतने की दशा में या बिना खतने की दशा में? खतने की दशा में नहीं परन्तु बिना खतने की दशा में। और उसने खतने का चिन्ह पाया, कि उस विश्वास की धामिर्कता पर छाप हो जाए, जो उसने बिना खतने की दशा में रखा था: जिस से वह उन सब का पिता ठहरे, जो बिना खतने की दशा में विश्वास करते हैं, और कि वे भी धर्मी ठहरें। और उन खतना किए हुओं का पिता हो, जो न केवल खतना किए हुए हैं, परन्तु हमारे पिता इब्राहीम के उस विश्वास की लीक पर भी चलते हैं, जो उसने बिन खतने की दशा में किया था। (रोमियों 4:10-12)
- परन्तु यह नहीं, कि परमेश्वर का वचन टल गया, इसलिये कि जो इस्राएल के वंश हैं, वे सब इस्राएली नहीं। और न इब्राहीम के वंश होने के कारण सब उस की सन्तान ठहरे, परन्तु लिखा है कि इसहाक ही से तेरा वंश कहलाएगा। अर्थात शरीर की सन्तान परमेश्वर की सन्तान नहीं, परन्तु प्रतिज्ञा के सन्तान वंश गिने जाते हैं। (रोमियों 9:6-8)
- क्योंकि न खतना, और न खतनारहित कुछ है, परन्तु नई सृष्टि। (गलतियों 6:15)
दूसरे शब्दों में, यहूदियों में पूर्वधारणा के अन्तर्गत यह गलतफहमी थी कि पित्रों के शारीरिक वंशज होने के कारण वे स्वतः ही परमेश्वर के लोग हो जाते हैं, और यह पवित्र शास्त्र के अनुसार सही नहीं थी। परमेश्वर के लोग होने के लिए उन्हें अपने पूर्वजों, अपने पित्रों के समान जीना, विश्वास करना, और व्यवहार भी करना था। पौलुस उनसे कोई नई बात नहीं कह रहा था; वह उनके सामने उसे ही दोहरा था जो परमेश्वर ने इस्राएलियों से पुराने नियम में कई बार कही थी, जैसे कि व्यवस्थाविवरण 10:16; 30:6; यशायाह 1:9-15; 48:1-2; यिर्मयाह 9:25-26; यहेजकेल 44:6-9; आदि में; जो इस बात के कुछ उदाहरण हैं कि परमेश्वर की दृष्टि में यहूदियों की वास्तविक स्थिति क्या थी। प्रभु यीशु मसीह ने भी यही बात बड़ी स्पष्टता से यहूदियों से कही थी, “उन्होंने उन को उत्तर दिया, कि हमारा पिता तो इब्राहीम है: यीशु ने उन से कहा; यदि तुम इब्राहीम के सन्तान होते, तो इब्राहीम के समान काम करते” (यूहन्ना 8:39; यहाँ पद 37-40, 44 भी देखिए)।
आज अधिकाँश मसीही भी इसी गलतफहमी में जीवन जीते हैं; वे अपने परिवार और वंशावली, और कुछ रीतियों का निर्वाह कर लेने के कारण अपने आप को स्वतः ही परमेश्वर के राज्य और आशीषों के वारिस मान लेते हैं। जैसे यहूदियों के धार्मिक अगुवों ने उनकी गलत धारणा को सही नहीं किया था, वरन उसे और बिगाड़ ही दिया था, वैसे ही आज मसीहियों के धार्मिक अगुवे भी उनकी इस गलतफहमी को ठीक करने की बजाए, उसे और अधिक प्रोत्साहित और पोषित करते रहते हैं; और इस कारण वे असंख्य लोगों के नरक में जाने के लिए ज़िम्मेदार और प्रभु को जवाबदेह होंगे। अगले लेख में हम देखेंगे कि परमेश्वर का वचन मसीही होने के बारे में क्या कहता है – जो कि एक ऐसी बहुत ही आधारभूत बात है जिसे सभी को जानना और समझना चाहिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 16
In considering the second integral component of teachings related to the gospel, i.e., believing in the gospel, we have seen that to the Jews before the crucifixion, death, and resurrection of the Lord Jesus, the word “gospel” essentially meant being delivered from the Roman rule. Though the Jews were anticipating the arrival of the promised Messiah, the deliverer, but they expected him to be one who would liberate them from the Romans and turn the kingdom over to them. They were not waiting for the Messiah, the deliverer who would deliver them from their personal bondage of sin and make them members of God’s heavenly Kingdom. As it now is true for most of the “Christians” all over the world, so also for the Jews of that time, deliverance from sins was no big deal. The Jews thought it could very conveniently be done through their fulfilling religious obligations, feasts, festivals, and rituals, as prescribed in the Scriptures, or prescribed by their religious leaders. But as we have seen from the Biblical examples in the last article, this was a gross misunderstanding on their part, and neither in the Old Testament, nor at the time of the Lord Jesus’s ministry amongst them, was deliverance from sins possible through any religious observances and rituals.
The same holds equally true today for Christians; unlike their popular and widespread misconception; often fostered and promoted by their religious leaders, the Bible clearly teaches and shows that deliverance from sins is not through their fulfilling any religious observations, feasts, festivals, and rituals. It is absolutely essential for everyone to understand this, and come out of this misconception, before they can understand what believing in the gospel actually means. Therefore, before taking up considering believing in the gospel, as stated at the end of the previous article, we will first consider what it means to be a Christian, and then we will see why fulfilling the religious observances, feasts, festivals, and rituals etc. cannot deliver anyone from their sins and qualify them for entering God’s Kingdom, and then apply it to see what believing in the gospel means.
There is another very common and rampant misconception amongst the Christians about their being accepted by the Lord for entering His Kingdom; the usual, taken for granted thinking is that by virtue of being born in a “Christian” family and because of having fulfilled the religious rites and rituals practised in the denomination or sect of Christianity they were born in, they have automatically become part of those who are entitled to enter God’s Kingdom, and will surely do so once they depart from earth. This is much the same, as the Jews thought about themselves – being the descendants of the Patriarchs Abraham, Issac, and Jacob, they were all the people of God and entitled to being in His kingdom, no matter what they did and how they lived. But the learned Pharisee, and a scholar of the Old Testament, Paul, settles this misconception and sets the record straight, when he under the inspiration of the Holy Spirit writes:
- For he is not a Jew who is one outwardly, nor is circumcision that which is outward in the flesh; but he is a Jew who is one inwardly; and circumcision is that of the heart, in the Spirit, not in the letter; whose praise is not from men but from God. (Romans 2:28-29)
- How then was it accounted? While he was circumcised, or uncircumcised? Not while circumcised, but while uncircumcised. And he received the sign of circumcision, a seal of the righteousness of the faith which he had while still uncircumcised, that he might be the father of all those who believe, though they are uncircumcised, that righteousness might be imputed to them also, and the father of circumcision to those who not only are of the circumcision, but who also walk in the steps of the faith which our father Abraham had while still uncircumcised. (Romans 4:10-12)
- But it is not that the word of God has taken no effect. For they are not all Israel who are of Israel, nor are they all children because they are the seed of Abraham; but, "In Isaac your seed shall be called." That is, those who are the children of the flesh, these are not the children of God; but the children of the promise are counted as the seed. (Romans 9:6-8)
- For in Christ Jesus neither circumcision nor uncircumcision avails anything, but a new creation. (Galatians 6:15)
In other words, merely being the physical descendants of the Patriarchs, quite unlike the presumed misconception of the Jews, did not automatically qualify them to be the people of God. To be the people of God, they had to live, believe, and behave as the people of God, as their forefathers, the Patriarchs did. Paul was not stating anything new; he was only reiterating what God had already told the Israelites in the Old Testament, as in Deuteronomy 10:16; 30:6; Isaiah 1:9-15; 48:1-2; Jeremiah 9:25-26; Ezekiel 44:6-9; which are a few examples of God telling the Jews in the Old Testament what they actually were in His sight. The Lord Jesus also made it clear to the Jews very bluntly, “They answered and said to Him, "Abraham is our father." Jesus said to them, "If you were Abraham's children, you would do the works of Abraham” (John 8:39; see verses 37-40, 44).
Most of the Christians today live under the same misconception, considering themselves to automatically be entitled to God’s Kingdom and blessings, because of their family and their fulfilling certain rituals. Just as the religious leaders of the Jews did not correct their misconception, but only compounded it, similarly, the religious leaders of the Christians instead of correcting their misconception, only promote, and nurture it; and therefore, will be responsible and accountable to God for the countless people going to hell. In the next article, we will see what God’s Word says about being a Christian – something very fundamental and which everyone needs to know and understand.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Your post was brilliant! I appreciate your perspective. Looking forward to your future writings. Connect with fellow Aviator gamers on our blog.
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