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आरम्भिक बातें – 82
अन्तिम न्याय – 3
हम वर्तमान में इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय” पर अध्ययन कर रहे हैं। पिछले दो लेखों में हम ने परमेश्वर के वचन बाइबल से देखा है कि सँसार का – सारे सँसार के समस्त लोगों का, न्याय अवश्यंभावी है; यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और इस न्याय को करने वाला न्यायी प्रभु यीशु मसीह होगा। उन अधिकाँश लोगों में, जो अपने आप को ईसाई या मसीही कहते हैं, यह एक आम किन्तु बाइबल से पूर्णतः असंगत धारणा पाई जाती है कि क्योंकि उन का जन्म एक परिवार विशेष में हुआ है, इसलिए वे सभी परमेश्वर के लोग हैं। और यह भी कि क्योंकि वे अपने मत या डिनॉमिनेशन के नियमों और तौर-तरीकों का पालन करते हैं, उन बातों को मानते हैं जो उन की डिनॉमिनेशन के धार्मिक अगुवे उन्हें प्रचार करते और सिखाते हैं, इस लिए वे परमेश्वर के द्वारा स्वीकार कर लिए जाएँगे कि स्वर्ग में प्रवेश करें और उस के साथ रहें। उनकी सोच है कि यह इस के बावजूद होगा कि वे परमेश्वर और उस के वचन के आज्ञाकारी रहे हैं कि नहीं; उन्होंने अपने पापों से पश्चाताप कर के अपना जीवन प्रभु को समर्पित किया है कि नहीं; और अपने आप को ईसाई या मसीही कहने के बाद भी उन्होंने अपना जीवन किस को समर्पित कर के, किस की इच्छा के अनुसार जिया है। हम देख चुके हैं कि ऐसी सभी धारणाएं झूठी हैं, ये सभी बाइबल से बिल्कुल असंगत कल्पनाएं हैं, और हमने यह भी देखा था कि अधिकाँश धार्मिक अगुवे इन गलत और बाइबल से असंगत धारणाओं और विचारों के, उन की मण्डली में, जड़ पकड़ लेने के लिए दोषी हैं।
इस का मुख्य कारण है कि धार्मिक अगुवे, अपने मत या डिनॉमिनेशन के नियमों और सिद्धांतों तथा प्रथाओं का प्रचार करने और सिखाने की चिन्ता अधिक करते हैं, न कि परमेश्वर और उस के वचन को प्राथमिक स्थान दे कर, मनुष्य के वचन की बजाए, परमेश्वर के वचन का प्रचार करें और सिखाएं। दूसरी बात है कि अधिकाँश धार्मिक अगुवे, लोगों को ठेस पहुँचाने के डर से, अपनी मण्डली के लोगों से उन के पापों के बारे में, पापों से पश्चाताप के बारे में – जो कि परमेश्वर की दृष्टि में पापों की क्षमा प्राप्त करने और धर्मी होने का एकमात्र तरीका है, कोई बात नहीं करते हैं। इस की बजाए वे परमेश्वर को स्वीकार्य और उसकी दृष्टि में धर्मी होने के लिए “भले बनो, भला करो, डिनॉमिनेशन के नियमों और सिद्धान्तों का पालन करो” की शिक्षा देते हैं, प्रचार करते हैं – जो कि एक बिल्कुल झूठी धारणा है, जिस की बाइबल से कोई समर्थन अथवा पुष्टि नहीं है। क्योंकि ये धार्मिक अगुवे मनुष्य के वचन को परमेश्वर के वचन से बढ़कर महत्व देते हैं, और मनुष्य के वचन के अनुसार प्रचार करते, शिक्षा देते हैं, इस लिए ईसाई या मसीही कहलाने वाले असंख्य लोग हमेशा के लिए नरक जा चुके हैं और अनेकों नरक जाने के रास्ते पर चल रहे हैं। आज हम इस आने वाले न्याय से सम्बन्धित बाइबल की कुछ अन्य शिक्षाओं को देखेंगे।
जैसा कि परमेश्वर ने प्रेरितों 17:31 में लिखवाया है, प्रभु यीशु को मनुष्यों का न्यायी नियुक्त किया गया है। प्रभु यीशु मसीह का मृतकों में से पुनरुत्थान, परमेश्वर की ओर से मानवजाति के लिए प्रमाण है कि प्रभु यीशु परमेश्वर है (रोमियों 1:4 + यूहन्ना 5:18), और वही समस्त मानवजाति का न्यायी होगा (प्रेरितों 10:42)। प्रेरितों 17:31 यह भी स्पष्ट कहता है कि प्रभु धर्म से न्याय करेगा, न कि चंचलता या अविश्वसनीयता से। दूसरे शब्दों में, उस के द्वारा न्याय करने के मानक या मापदण्ड बिल्कुल खरे, अपरिवर्तनीय, और अनन्तकाल के लिए स्थिर और स्थापित होंगे। यदि न्याय करने के उस के मानक या मापदण्ड परिवर्तनशील होते, अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग, तथा समय और स्थान के साथ बदलते रहते, तो फिर उस का न्याय कभी भी धर्म के साथ किया हुआ नहीं माना जा सकता था। परमेश्वर का वचन ही है जो इन गुणों को पूरा करता है; वह सत्य है “तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है” (भजन 119:160); वह सदा काल के लिए स्थिर है “घास तो सूख जाती, और फूल मुर्झा जाता है; परन्तु हमारे परमेश्वर का वचन सदैव अटल रहेगा” (यशायाह 40:8; साथ ही भजन 119:89, 152 भी देखें); और वह अपरिवर्तनीय है “मैं अपनी वाचा न तोडूंगा, और जो मेरे मुंह से निकल चुका है, उसे न बदलूंगा” (भजन 89:34; साथ ही गिनती 23:19 और मत्ती 24:35 भी देखें)। प्रकट निहितार्थ है कि प्रभु का न्याय उस के वचन के अनुसार ही होगा, अर्थात उस के अनुसार जो बाइबल में लिखा हुआ है, क्योंकि वही एकमात्र मानक या मापदण्ड है जो धर्म से न्याय करने के गुणों को पूरा करता है। मनुष्य का हर वचन परिवर्तनशील है, और बदलता रहता है, प्रत्येक डिनॉमिनेशन के नियम और सिद्धान्त समय और आवश्यकता के अनुसार बदले गए हैं, वे कभी स्थिर और अटल नहीं थे और न रहेंगे; इस लिए वे कभी भी परमेश्वर के वचन बाइबल का स्थान नहीं ले सकते हैं।
यह कोरी अटकलें लगाना नहीं है, और न ही यह किसी मानवीय बुद्धि की उपज है। स्वयं प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के दौरान यह बात कही है, कि न्याय उस के वचन के अनुसार होगा “जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहराने वाला तो एक है: अर्थात जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा” (यूहन्ना 12:48), न कि प्रभु की कही बात की किसी मानवीय व्याख्या के अनुसार। इसी प्रकार से प्रेरित पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखते हुए, कहा है “जिस दिन परमेश्वर मेरे सुसमाचार के अनुसार यीशु मसीह के द्वारा मनुष्यों की गुप्त बातों का न्याय करेगा” (रोमियों 2:16); प्रभु द्वारा न्याय प्रचार किए गए सुसमाचार के अनुसार होगा, और पौलुस ने लिखा है कि जो सुसमाचार वह प्रचार करता है, वह उसे दिया गया है (1 कुरिन्थियों 15:3; गलतियों 1:11-12), और वह पवित्र शास्त्र के अनुसार है (1 कुरिन्थियों 15:3-4)। हमारी सहायता और लाभ के लिए, परमेश्वर ने बहुत पहले से ही हमें बता दिया है कि उस का न्याय अनिवार्य है, हो कर रहेगा, उस ने उस के लिए एक दिन भी निर्धारित कर रखा है, उस ने हमें यह भी बता दिया है कि न्यायी कौन होगा, और यह भी बता दिया है कि न्याय किन मानकों या मापदण्ड के आधार पर होगा। इसलिए यह सामान्य समझ की बात है कि हमें परमेश्वर के कहे हुए पर ध्यान देना चाहिए, और मनुष्य तथा मनुष्यों के वचन का नहीं बल्कि परमेश्वर के वचन का पालन करना चाहिए।
न्याय के बारे में हमारे अध्ययन को हम अगले लेख में यहाँ से आगे जारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 82
Eternal Judgment – 3
We are presently studying about the sixth elementary principle, “Eternal Judgment” given in Hebrews 6:1-2. In the previous two articles we have seen from God’s Word the Bible that the judgment of the world – of all people of the world is inevitable; has been ordained by God, and The Lord Jesus will be the Judge to carry out the judgment. There is an unBiblical notion amongst the majority of the so called “christians” that because of their being born in a particular family, they are all the people of God. And that because of their fulfilling their denominational rules and practices, following what their denominational leaders preach and teach to them, they will be accepted by God to enter heaven and be with Him. They think that this will be irrespective of whether or not they have been obedient to God and His Word; whether or not they have repented of their sins and submitted their lives to the Lord Jesus; and despite calling themselves Christians, no matter how and under whose submission they have lived their lives. We have seen that these are all false, unBiblical assumptions, and also saw that most of the religious leaders are guilty of allowing this wrong and unBiblical thinking to take root in their congregations.
This is primarily because the religious leaders are more concerned about preaching and practicing their denominational rules and practices, than they are about giving the primary place to God and His Word and preaching and teaching the Word of God instead of the word of man. Secondly, most of the religious leaders, because of the fear of offending people, do not preach, teach, and talk to their congregation members about their sins, about the necessity of repentance for sins, which is the only way to obtain God’s forgiveness for sins and be righteous in God’s eyes. Instead, they preach and teach about “being good, doing good, obeying denominational rules and practices” to be righteous and acceptable to God – a totally false notion that has no support or affirmation from the Bible at all. Because these religious leaders place the word of man over and above the Word of God, preach man’s word, therefore, countless numbers of so called “christians" have gone to hell for eternity, and very many others are headed there. Today we will see some other Biblical teachings and facts about this coming judgment.
As God has written in Acts 17:31 – the Lord Jesus has been appointed the Judge of mankind. The Lord Jesus’s resurrection from the dead is God’s proof for mankind that he is God (Romans 1:4 + John 5:18), and will be the Judge of mankind (Acts 10:42). Acts 17:31 also clearly says that the Lord will judge in righteousness; not fickleness. In other words, the standard of His judgment will be absolutely true, unchanging and unchangeable, and eternally established. If the standards of His judgment were to be variable, or changeable, being different for different people, varying across different times and places, then the judgement could never be considered as done in righteousness. It is the Word of God that fulfills these criteria; it is true “The entirety of Your word is truth, And every one of Your righteous judgments endures forever” (Psalm 119:160); it is established forever “The grass withers, the flower fades, But the word of our God stands forever” (Isaiah 40:8; see also Psalm 119:89, 152); and it is unchanging and unchangeable “My covenant I will not break, Nor alter the word that has gone out of My lips” (Psalm 89:34; See also Numbers 23:19; Matthew 24:35). The obvious implication is that the Lord’s judgment will be according to His Word, i.e., according to what is written in the Bible, since that is the only standard that fulfills the criteria for providing a righteous standard. Every word of man is fickle and keeps changing, the rules, regulations, and practices of every denomination have changed with time and necessity, they have never been unchanging or absolute, nor will they ever be; therefore, they can never replace God’s word the Bible.
This not mere conjecture, nor is it a derivation of a human mind. The Lord Jesus Himself had said during His earthly ministry that the judgement will be according to the Word He has spoken “He who rejects Me, and does not receive My words, has that which judges him--the word that I have spoken will judge him in the last day” (John 12:48), and not by men’s interpretation of what He has said. Similarly, the Apostle Paul, writing under the guidance of the Holy Spirit, says in Romans 2:16 “in the day when God will judge the secrets of men by Jesus Christ, according to my gospel” – and as Paul has said about the gospel, he preached what he had received (1 Corinthians 15:3; Galatian 1:11-12), and it was according to the Scriptures (1 Corinthians 15:3-4). For our help and benefit, God has told us much beforehand that His judgment is inevitable, He has already fixed a day for it, He has also told us who the Judge will be, and He has also made known to us the standard, the criteria that will be used for the judgment. Therefore, common sense says that we should pay attention to all God has said and follow God and His Word, instead of man and man’s word.
We will carry on our study about judgment from here, in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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