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आरम्भिक बातें – 81
अन्तिम न्याय – 2
पिछले लेख से हम ने इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय” के बारे में विचार करना आरम्भ किया है। हम ने देखा है कि यद्यपि परमेश्वर प्रेमी, धीरजवन्त, विलम्ब से क्रोध करने वाला है, लेकिन वह ‘सदा-धीरज रखने और सदा सहते रहने वाला’ नहीं है। उसकी सहनशीलता की भी एक सीमा है (उत्पत्ति 6:3); और उस ने सारे सँसार के सभी लोगों के न्याय किए जाने का एक समय निर्धारित भी कर दिया है, तथा प्रभु यीशु को न्यायी भी नियुक्त कर दिया है। हम ने यह भी देखा था कि ईसाइयों या मसीहियों में एक आम गलत धारणा है कि वे सभी परमेश्वर के लोग हैं, और उन्होंने चाहे जैसा जीवन जिया हो, अन्ततः परमेश्वर उन्हें क्षमा कर के अपने साथ स्वर्ग में रहने के लिए ले लेगा; लेकिन इस धारणा का बाइबल में कोई समर्थन नहीं है, कोई पुष्टि नहीं है। जैसा कि प्रेरितों 17:30 में लिखा है “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” यह परमेश्वर की आज्ञा है कि हर स्थान पर, सभी लोग अपने पापों से मन फिराएँ। बाइबल इस बात के लिए बिल्कुल स्पष्ट है कि पापों से मन फिराए बिना, प्रभु से पापों की क्षमा प्राप्त किए बिना, प्रभु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किए बिना, प्रभु को अपना जीवन समर्पित किए बिना, और प्रभु तथा उस के वचन की आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिए बिना उद्धार नहीं है। फिर हम ने मसीहियत के एक दुखद और दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य पर विचार आरम्भ किया था कि विभिन्न डिनॉमिनेशनों, समुदायों, और कलीसियाओं के धार्मिक अगुवे, सामान्यतः अपनी मण्डलियों में बाइबल के पाप और उद्धार से सम्बन्धित इस तथ्य पर कोई प्रचार और शिक्षा नहीं देते हैं, इन बातों पर कोई बल नहीं देते हैं, जब कि ये ही वे बातें हैं जो व्यक्ति की मृत्यु के बाद उस के अनन्तकाल के लिए स्वर्ग अथवा नरक जाने को निर्धारित करती हैं। आज हम यहीं से आगे देखेंगे।
अपनी मण्डलियों में, परमेश्वर द्वारा बाइबल में दिए गए लोगों के द्वारा अपने पापों को स्वीकार करने और निवारण करने के तरीके के उदाहरणों पर प्रचार करने, उन्हें सिखाने, और उन पर बल देने के स्थान पर; अर्थात उसे बताने की बजाए जिस के लिए प्रभु यीशु पृथ्वी पर आया और कलवरी के क्रूस पर अपना बलिदान दिया, अधिकाँश धार्मिक अगुवे, सामान्यतः, एक गलत शिक्षा, बाइबल के अनुसार एक सर्वथा गलत धारणा “कर्मों के द्वारा धर्मी बनना” को बताते और प्रोत्साहित करते हैं। वे इस बात का प्रचार करते, उसे सिखाते, और बल देते हैं कि अपने डिनॉमिनेशन या समुदाय के नियमों, धार्मिक प्रथाओं, रीति-रिवाज़ों, उत्सवों, और अनुष्ठानों का पालन करने के द्वारा, अर्थात, मनुष्यों द्वारा बनाए गए और लागू किए गए नियमों और रीति-रिवाज़ों का पालन करने से, परमेश्वर उन्हें धर्मी और उस को स्वीकार्य मान लेगा। वे बड़ी सरलता से परमेश्वर के वचन की उन शिक्षाओं एवं उदाहरणों को भूल जाते हैं जो उन की इस धारणा का खण्डन करती हैं, कि नियमों और रीति-रिवाज़ों के निर्वाह के द्वारा परमेश्वर लोगों को धर्मी और स्वीकार्य मान लेता है। धार्मिक अगुवे जैसे कि निकुदेमुस और पौलुस जो बहुत कड़ाई से व्यवस्था का पालन करते थे (यूहन्ना 3:1, 3, 5; फिलिप्पियों 3:4-9); वह धनी युवा सरदार जो अपने लड़कपन से आज्ञाओं का पालन करता आ रहा था (मत्ती 19:16-21); वे ‘धर्मी’ यहूदी जो पर्व मनाने और व्यवस्था का पालन करने के लिए यरूशलेम में एकत्रित हुए थे (प्रेरितों 2:5, 37-38), इन में से कोई भी व्यवस्था और उस के रीति-रिवाज़ों का पालन करने के द्वारा उद्धार नहीं पा सके थे, यद्यपि वे मनुष्यों द्वारा नहीं बल्कि परमेश्वर द्वारा दिए गए नियमों और रीतियों का निर्वाह कर रहे थे। जब कि आज के धार्मिक अगुवे परमेश्वर द्वारा दिए हुए नहीं, मनुष्यों द्वारा बनाए गए नियमों को लोगों पर लागू करवाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कभी बाइबल के इन पदों “क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है” (रोमियों 3:20), “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8-9), “तो उसने हमारा उद्धार किया: और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार, नए जन्म के स्नान, और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ” (तीतुस 3:5) को या तो कभी पढ़ा नहीं है, अथवा इन पर कभी विचार नहीं किया है।
लगभग सभी समुदाय और डिनॉमिनेशन अपनी मण्डली के सदस्यों के लिए यह अनिवार्य करते हैं कि वे डिनॉमिनेशन या समुदाय के द्वारा निर्धारित किये गए नियमों और रीतियों का पालन करें, चाहे वे परमेश्वर के वचन से भिन्न ही क्यों न हों, या, उन में कोई गलती ही क्यों न हो; अर्थात वे मनुष्य के वचन को परमेश्वर के वचन के ऊपर रखते हैं। इस गलत धारणा का पालन करने को बढ़ावा देते समय वे लोगों को आश्वस्त करते हैं कि ऐसा करने से वे लोग परमेश्वर द्वारा धर्मी और उसे स्वीकार्य हो जाएँगे; मानो, परमेश्वर मनुष्यों द्वारा बनाए गए नियमों और रीतियों से बन्धा हुआ और उन के अधीन है, और मनुष्यों ने जो कह दिया परमेश्वर वह मानने और करने के लिए बाध्य है। यह कितना मूर्खता पूर्ण है, और फिर भी, वे चाहे धार्मिक अगुवे हों अथवा सामान्य लोग हों, सभी इसे मानते और इस पर विश्वास करते हैं, और ऐसे व्यवहार करते हैं मानो यही सच है।
इस धारणा, कि डिनॉमिनेशनों के नियमों और रीतियों का पालन करने के द्वारा लोग परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाते हैं, का खोखलापन और व्यर्थता प्रकट हो जाते हैं, यदि कोई किसी कारण वश एक से दूसरी डिनॉमिनेशन या समुदाय का सदस्य बनना चाहे। वह व्यक्ति अपनी पहले की डिनॉमिनेशन के नियमों और रीतियों का कितनी भी निष्ठा तथा प्रतिबद्धता से पालन करता आया हो, और वहाँ पर वह चाहे जितना भी योग्य और ‘धर्मी’ क्यों न माना जाता हो, किन्तु फिर भी वह नए डिनॉमिनेशन में तब तक धर्मी और स्वीकार्य नहीं माना जाएगा, जब तक कि वह उस नए डिनॉमिनेशन के नियमों, उस की विधियों और रीतियों को पूरा नहीं कर लेगा। ज़रा विचार कीजिए, पिछली डिनॉमिनेशन में वह वहाँ के नियमों और रीतियों के पालन के कारण परमेश्वर को स्वीकार्य और धर्मी माना जाता था; तो फिर अब वहाँ से इस दूसरी डिनॉमिनेशन में आने के बाद, उस नई डिनॉमिनेशन के धार्मिक अगुवों की दृष्टि में, जब तक कि वह उन के नियमों और रीतियों को नहीं मान लेता है, वह परमेश्वर और मनुष्यों दोनों को अस्वीकार्य और अधर्मी कैसे हो गया? क्या यह लोगों का मूर्ख बनाना और परमेश्वर का ठट्ठा उड़ाना नहीं है? क्या इन धार्मिक अगुवों ने कभी इस बात के बारे में सोच है कि वे न्याय के समय परमेश्वर के सामने अपने आप को सही कैसे ठहराएंगे? क्या वे सोचते हैं कि उन के द्वारा मनुष्य के वचनों को परमेश्वर के वचन से ऊपर रखने को परमेश्वर हल्के में लेकर यूँ ही नजरन्दाज कर देगा, जब कि उसने अपने वचन को अपने बड़े नाम से भी अधिक महत्व दिया है (भजन 138:2), और उन्हें कोई दण्ड नहीं देगा? ये लोग उन असंख्य आत्माओं के लिए क्या उत्तर देंगे जो इन के द्वारा प्रभु के नाम में प्रचार किए गए शैतानी झूठ और भ्रामक बातों पर विश्वास करने, और मनुष्यों की बनाई हुई बातों के लागू किए और पालन करवाए जाने के द्वारा, नरक में चले गए?
अगले लेख में हम “अन्तिम न्याय” के इस विषय पर यहाँ से आगे विचार करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 81
Eternal Judgment – 2
Since the last article we have begun considering the sixth elementary principle given in Hebrew 6:1-2, i.e., “Eternal Judgment.” We have seen that though God is a loving, patient, longsuffering God, but He is not a ‘forever-suffering and forever-patient’ God. There is an end to His patience (Genesis 6:3); and He already has ordained a time for the judgment of the whole world, of all people; and has appointed the Lord Jesus as the Judge. We had also seen that a common notion amongst the “christians” that they are all the people of God, and no matter how they have lived their lives, eventually God will forgive them all and take them to be in heaven with them, has no Biblical basis or support. As it says in Acts 17:30, God has commanded everyone, everywhere to repent of their sins “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent.” The Bible is very clear that there is no salvation without repentance of sins, seeking forgiveness of sins from the Lord, accepting Him as savior, submitting life to the Lord, and deciding to henceforth live in obedience to the Lord and His Word. Then we also began pondering over a very sad and unfortunate fact of Christendom, that most of the clergy, i.e., the religious leaders of the various denominations and churches, do not preach, teach, and emphasize to their congregations about this Biblical facts related to sin and salvation, that makes all the difference between a person getting eternal life or eternal hell after their death. Today we will see further from where we left off on this in the previous article.
Instead of preaching, teaching, and emphasizing to their congregations about the Biblical God given way and examples of accepting and dealing with their sins, i.e., about what the Lord Jesus had come to do and sacrificed His life on the Cross of Calvary for, most often the clergy and religious leaders, generally speaking, promote a wrong and unBiblical notion of “being righteous through works.” They preach, teach, and emphasize that by fulfilling the denominational religious practices, traditions, feasts, and festivals, i.e., the man-made and man-imposed denominational rules and regulations, people will be seen and accepted as righteous by God. They very conveniently forget the teachings and examples from God’s Word that negate this notion of fulfilling laws to be righteous and acceptable to God. The religious leaders like Nicodemus and Paul who were very strict in their adherence to the Law (John 3:1, 3, 5; Philippians 3:4-9); the Rich Young Ruler who claimed to have fulfilled the Commandments since his youth (Matthew 19:16-21); the ‘devout’ Jews who had gathered in Jerusalem to fulfill the Law (Acts 2:5, 37-38) – none of them were saved by following the Law and its rules and regulations – although it was man-made, but the God given Law that they were adhering to and following. Whereas the present-day religious leaders try to impose not the God given, but the man-made laws upon the people. It seems that they have never read, or, never pondered over Biblical verses like “Therefore by the deeds of the law no flesh will be justified in His sight, for by the law is the knowledge of sin” (Romans 3:20), “For by grace you have been saved through faith, and that not of yourselves; it is the gift of God, not of works, lest anyone should boast” (Ephesians 2:8-9), “not by works of righteousness which we have done, but according to His mercy He saved us, through the washing of regeneration and renewing of the Holy Spirit” (Titus 3:5).
Practically all the sects and denominations make it necessary for their congregations to obey their denominationally ordained rules and regulations, even if they are at variance from God’s Word, or even there is something incorrect in them; i.e., they keep man’s word over and above God’s Word. While promoting this wrong notion they assure people of being righteous and acceptable to God by doing so; as if God was subject to man-made regulations and was under compulsion to obey and act according to what men have commanded. How foolish this is, and yet whether religious leaders or the general people, they all accept and believe it, behave as if it was true.
The hollowness and vanity of their notion of people being acceptable to God by following their denominational rules and regulations becomes apparent if someone from some other sect or denomination wants to join a different sect or denomination. No matter how sincerely and with however great commitment he may have been following the rules and regulations of his previous denomination, and however worthy and ‘religious’ he may have been, yet he will not be seen as acceptable and righteous in this new denomination, till he fulfills the rules, regulations, and requirements of this new denomination. Give it a thought, in the previous denomination, he was seen as righteous and acceptable to God because of fulfilling and following the rules and regulations of that denomination. So now, on shifting from there to another, how and why, in the eyes of the religious leaders of this new denomination, does he become unacceptable and unrighteous – both to God and man, till he fulfills the requirements of this denomination? Is this not fooling people and mocking God? Have these religious leaders ever thought how would they justify themselves before God at judgment time? Do they think that Go will take their putting man’s word over and above God’s Word lightly, since He has magnified His Word above even His great name (Psalm 138:2), and not take them to task for it? What answer will they give to the Lord for the countless souls that have gone to hell because of the satanic lies and deceptions they have preached, taught and imposed through their man-made rules and regulation, and that too done in the name of the Lord?
We will carry on from here in the next article about this topic of “Eternal Judgment.”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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