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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 20
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (2)
परमेश्वर के वचन के द्वारा मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं की बढ़ोतरी पर ज़ारी इस अध्ययन में, हम अब व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित प्रेरितों 2 तथा 15 अध्याय में दी गई शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं; और इसके कारण को हम देख चुके हैं। पिछले कुछ लेखों में हम प्रेरितों 2 अध्याय में इस विषय पर दी गई सात शिक्षाओं को क्रमवार देखते चले आ रहे हैं। इन सात में से अन्तिम चार शिक्षाएँ प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं; और इन चारों को “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। हम इन सात में से पाँच शिक्षाओं को देख चुके हैं, और अब, पिछले लेख से हमने छठी शिक्षा, मसीही जीवन के दूसरे स्तम्भ, “संगति रखना” पर विचार आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने देखा था कि संगति रखना, नए नियम में दी गई कोई नई शिक्षा नहीं है; वरन सृष्टि के आरम्भ से ही परमेश्वर की मंशा रही है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में, उससे संगति रखने के लिए ही सृजा; और मनुष्य को भी, परमेश्वर के साथ, तथा अन्य मनुष्यों के साथ संगति रखनी थी। किन्तु पाप ने इस संगति रखने में बाधा डाल दी, मनुष्य की परमेश्वर के साथ संगति टूट गई, तथा अन्य मनुष्यों के साथ उसकी संगति में कुछ और बातें भी आ गईं (उत्पत्ति 3:8-20), तथा औरों के साथ मनुष्य के सम्बन्ध पहले के समान मनोहर और सामंजस्य पूर्ण नहीं रहे। साथ ही हमने यह भी देखा था कि संगति चाहे परमेश्वर के साथ हो, या अन्य मनुष्यों के साथ, संगति आधार पारिवारिक सम्बन्ध हैं। आज हम संगति के बारे में यहाँ से आगे देखना आरम्भ करेंगे।
पाप ने मनुष्य की दोनों स्तर की संगति - परमेश्वर के साथ, तथा अन्य मनुष्यों के साथ, में बाधा डाली। जहाँ पाप है, वहाँ संगति नहीं है - न परमेश्वर के साथ:
“जब तुम मेरी ओर हाथ फैलाओ, तब मैं तुम से मुंह फेर लूंगा; तुम कितनी ही प्रार्थना क्यों न करो, तौभी मैं तुम्हारी न सुनूंगा; क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से भरे हैं।” (यशायाह 1:15)
“परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)।
- और न मनुष्यों के साथ:
“इसलिये कि जहां डाह और विरोध होता है, वहां बखेड़ा और हर प्रकार का दुष्कर्म भी होता है।” (याकूब 3:16)
“तुम में लड़ाइयां और झगड़े कहां से आ गए? क्या उन सुख-विलासों से नहीं जो तुम्हारे अंगों में लड़ते-भिड़ते हैं? तुम लालसा रखते हो, और तुम्हें मिलता नहीं; तुम हत्या और डाह करते हो, ओर कुछ प्राप्त नहीं कर सकते; तुम झगड़ते और लड़ते हो; तुम्हें इसलिये नहीं मिलता, कि मांगते नहीं। तुम मांगते हो और पाते नहीं, इसलिये कि बुरी इच्छा से मांगते हो, ताकि अपने भोग विलास में उड़ा दो।” (याकूब 4:1-3)।
जैसे ही पापों की क्षमा मिल जाती है, समस्या का भी निवारण हो जाता है, और संगति तथा सहभागिता भी बहाल हो जाती है - परमेश्वर के साथ भी:
“सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें।” (रोमियों 5:1)
“क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे? और केवल यही नहीं, परन्तु हम अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा जिस के द्वारा हमारा मेल हुआ है, परमेश्वर के विषय में घमण्ड भी करते हैं” (रोमियों 5:10-11)।
- और मनुष्यों के साथ भी:
“यहूदियों और यूनानियों में कुछ भेद नहीं, इसलिये कि वह सब का प्रभु है; और अपने सब नाम लेने वालों के लिये उदार है।” (रोमियों 10:12);
“क्योंकि हम सब ने क्या यहूदी हो, क्या युनानी, क्या दास, क्या स्वतंत्र एक ही आत्मा के द्वारा एक देह होने के लिये बपतिस्मा लिया, और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया।” (1 कुरिन्थियों 12:13);
“और नए मनुष्यत्व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है। उस में न तो यूनानी रहा, न यहूदी, न खतना, न खतनारहित, न जंगली, न स्कूती, न दास और न स्वतंत्र: केवल मसीह सब कुछ और सब में है।” (कुलुस्सियों 3:10-11)।
पिछले लेख में हमने देखा था कि संगति का आधार पारिवारिक सम्बन्ध हैं - परमेश्वर के साथ भी, और मनुष्यों के साथ भी। अगले लेख में हम देखेंगे कि जब हमारे पाप क्षमा हो जाते हैं, परमेश्वर के साथ हमारा मेल-मिलाप हो जाता है, तो किस प्रकार से हम उसके साथ एक पारिवारिक सम्बन्ध में आ जाते हैं। साथ ही सच्चा पश्चाताप करने और पापों की क्षमा प्राप्त करने के द्वारा वास्तव में नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, किस प्रकार से परमेश्वर के एक ही विश्वव्यापी सार्वभौमिक परिवार के सदस्य बन जाते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 20
The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (2)
In our continuing study on the growth of Christian Believers and the Churches through God's Word, we are now considering the teachings given in Acts chapters 2 and 15 regarding practical Christian living; And earlier we have seen the reasons for this. Over the past few articles, we have serially been looking at the seven teachings on this topic given in Acts 2. The last four of these seven teachings are given in Acts 2:42; And these four are also called the “Pillars of the Christian Living.” We have looked at five of these seven teachings, and now, from the last article, we have begun to consider the sixth teaching, i.e., the second pillar of the Christian life, “Fellowship.” In the previous article we saw that being in fellowship is not a new teaching given in the New Testament; Rather, this has been God's intention since the beginning of creation. God created man in His image to have fellowship with Him; And man, too, was to have fellowship with God and with other men. But sin created problems in this fellowship, consequently, not only was man's fellowship with God broken, but other things also came into his fellowship with other men (Genesis 3:8-20), and therefore, man's relationships with others did not remain as pleasing and harmonious as before. We also saw that whether fellowship is with God or with other men, the basis of fellowship is family relationships. Today, we will continue our study on fellowship from here.
Sin hindered man's fellowship - both with God and with other men. Where there is sin, there cannot be any fellowship – neither with God:
“When you spread out your hands, I will hide My eyes from you; Even though you make many prayers, I will not hear. Your hands are full of blood.” (Isaiah 1:15)
“But your iniquities have separated you from your God; And your sins have hidden His face from you, So that He will not hear.” (Isaiah 59:2)
- Nor with men:
“For where envy and self-seeking exist, confusion and every evil thing are there.” (James 3:16)
“Where do wars and fights come from among you? Do they not come from your desires for pleasure that war in your members? You lust and do not have. You murder and covet and cannot obtain. You fight and war. Yet you do not have, because you do not ask. You ask and do not receive, because you ask amiss, that you may spend it on your pleasures.” (James 4:1-3)
As soon as sins are forgiven, the problem is resolved, fellowship and companionship are restored – With God:
“Therefore, having been justified by faith, we have peace with God through our Lord Jesus Christ” (Romans 5:1)
“For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life. And not only that, but we also rejoice in God through our Lord Jesus Christ, through whom we have now received the reconciliation.” (Romans 5:10-11)
- As well as with men:
“For there is no distinction between Jew and Greek, for the same Lord over all is rich to all who call upon Him.” (Romans 10:12)
“For by one Spirit we were all baptized into one body--whether Jews or Greeks, whether slaves or free--and have all been made to drink into one Spirit.” (1 Corinthians 12:13)
“and have put on the new man who is renewed in knowledge according to the image of Him who created him, where there is neither Greek nor Jew, circumcised nor uncircumcised, barbarian, Scythian, slave nor free, but Christ is all and in all.” (Colossians 3:10-11)
In the previous article we saw that the basis of fellowship are the family relationships – both with God and with men. In the next article we will see how when our sins are forgiven and we are reconciled to God, we then come into a family relationship with Him. Also, how by truly repenting and receiving the forgiveness of sins i.e., being Born-Again, the true Christian Believers become members of the one worldwide universal family of God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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