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शनिवार, 31 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 176

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 21


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (3) 



हम देखते आ रहे हैं कि परमेश्वर के वचन के अनुसार, मसीही विश्वास का व्यावहारिक जीवन जीने के लिए मसीही विश्वासी को परमेश्वर की किन बातों का पालन करते रहने का ध्यान रखना चाहिए। हमने देखा है कि प्रेरितों 2 अध्याय में सात बातें दी गई हैं, जिन में से अन्तिम चार, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, जिन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चार “स्तम्भ” में से पहले, वचन का अध्ययन करना, को देखने के बाद अब हम दूसरे “स्तम्भ,” संगति रखना पर विचार कर रहे हैं। हमने देखा है कि संगति रखना आरम्भ से ही परमेश्वर की इच्छा रही है, और संगति के लिए ही उसने मनुष्य को अपने स्वरूप में सृजा। साथ ही, मनुष्य को भी परमेश्वर से तथा अन्य मनुष्यों से संगति रखनी थी। लेकिन संसार में पाप के प्रवेश ने इस संगति में परेशानियाँ खड़ी कर दीं; परमेश्वर के साथ मनुष्य की संगति टूट गई, और अन्य मनुष्यों के साथ उसकी संगति में अन्य बातों के आ जाने से उस संगति की मनोहरता एवं सामंजस्य समाप्त हो गया। पिछले लेख में हमने देखा था कि जहाँ पाप है वहाँ मनुष्य न तो परमेश्वर के साथ संगति रखने पाता है, और न ही अन्य मनुष्यों के साथ। किन्तु पाप का निवारण होते ही, मनुष्य की परमेश्वर तथा अन्य मनुष्यों के साथ संगति बहाल हो जाती है। संगति के बारे में हमारे सामने एक और बात भी आई है कि संगति का आधार और अभिव्यक्ति, चाहे संगति परमेश्वर के साथ हो, अथवा मनुष्यों के, परिवार और पारिवारिक सम्बन्ध हैं। आज हम इसी बात पर विचार करेंगे कि कैसे बाइबल के वचनों के आधार पर संगति में रहने से हम परमेश्वर के एक सार्वभौमिक, विश्वव्यापी परिवार के सदस्य बन जाते हैं; मानवीय विचारों और धारणाओं के आधार परस्पर विभाजन, असहमति, वर्चस्व, और शत्रुता की सारी दीवारें मिट जाती हैं।


हम देख चुके हैं कि पापों के लिए पश्चाताप करने, और प्रभु यीशु में विश्वास करने, उसे अपना जीवन समर्पित करने के द्वारा हमारा परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप हो जाता है, उसके साथ हमारी संगति बहाल हो जाती है (रोमियों 5:1, 11)। लेकिन बात केवल मेल-मिलाप की बहाली तक ही सीमित नहीं है, वरन परमेश्वर मनुष्य के साथ पुनःस्थापित हुए इस सम्बन्ध और संगति को और भी आगे, और भी घनिष्ठता में, एक अकल्पनीय स्तर तक लेकर जाता है। ऐसे बहु-आयामी स्तर तक जो मनुष्यों के सोचने, समझने, कल्पनाओं, और उसकी किसी भी क्षमता से बिल्कुल परे है; और संसार में कहीं पर भी, अन्य किसी भी धर्म, विश्वास, ईश-मान्यता में जिसके समान कोई भी बात देखने को नहीं मिलती है। 


मसीह यीशु पर विश्वास करने से पापों की क्षमा प्राप्त करने और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल हो जाने वालों को परमेश्वर अपनी सन्तान, अपने निज परिवार का एक सदस्य बना लेता है “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” (यूहन्ना 1:12-13)। वे अब मसीह के भाई-बँधु, उसके संगी वारिस बन जाते हैं “आत्मा आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं। और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं।” (रोमियों 8:16-17)। और हम पिछले लेख में, रोमियों 10:12; 1 कुरिन्थियों 12:13; कुलुस्सियों 3:10-11 से देख चुके हैं कि इस प्रकार परमेश्वर के साथ सम्बन्ध में बहाल होते ही, परमेश्वर के परिवार का सदस्य बनते ही, सांसारिक बातों के कारण विभाजन और मतभेदों के सारे आधार समाप्त हो जाते हैं; मसीही विश्वासी एक परिवार के एक समान स्तर के सदस्य बन जाते हैं। जिन बातों और धारणाओं के आधार पर आज संसार के विभिन्न धर्म, विश्वास, मत, मान्यताओं, आदि को मानने वाले एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं, दूसरों पर अधिकार रखने के लिए लड़-मर रहे हैं। किन्तु मसीही विश्वास में आते ही, उन सभी मतभेदों, विभाजनों, शत्रुता के अस्तित्व का आधार ही मिट जाता है; वे सभी जन एक ही संगति, और परमेश्वर की दृष्टि में एक ही समानता में आ जाते हैं।


प्रभु यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ उसके इस पारिवारिक सम्बन्ध के बारे में, और इस सम्बन्ध के उसके शारीरिक जन्म के परिवार के साथ सम्बन्ध से भी बढ़कर होने के बारे में, पृथ्वी पर उसकी सेवकाई के दिनों में ही संसार के लोगों को बताया दिया था “और उस की माता और उसके भाई आए, और बाहर खड़े हो कर उसे बुलवा भेजा। और भीड़ उसके आसपास बैठी थी, और उन्होंने उस से कहा; देख, तेरी माता और तेरे भाई बाहर तुझे ढूंढते हैं। उसने उन्हें उत्तर दिया, कि मेरी माता और मेरे भाई कौन हैं? और उन पर जो उसके आस पास बैठे थे, दृष्टि कर के कहा, देखो, मेरी माता और मेरे भाई यह हैं। क्योंकि जो कोई परमेश्वर की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और बहिन और माता है।” (मरकुस 3:31-35)। साथ ही प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को आश्वस्त किया था कि उसके पीछे हो लेने से यदि अपने जन्म के परिवार से दूर भी होना पड़े, तो भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि यहीं संसार में छोड़े हुए का सौ गुणा, और स्वर्ग में अनन्त जीवन उन्हें मिल जाएगा “पतरस उस से कहने लगा, कि देख, हम तो सब कुछ छोड़कर तेरे पीछे हो लिये हैं। यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन।” (मरकुस 10:28-30)। प्रभु की इन बातों को ध्यान में रखने पर, प्रभु के द्वारा मत्ती 10:37 और लूका 14:26 में जन्म के परिवार के साथ सम्बन्धों के विषय कही गई बात को भी समझना सहज हो जाता है।


ऊपर कहा गया है कि परमेश्वर के साथ संगति में बहाली, मसीही विश्वासियों को एक ऐसे बहु-आयामी स्तर तक पहुँचा देती है, जो मनुष्यों के सोचने, समझने, कल्पनाओं, और उसकी किसी भी क्षमता से कहीं बढ़कर है। यह ऐसा स्तर है जिसके समान कोई भी बात संसार में कहीं पर भी, अन्य किसी भी धर्म, विश्वास, ईश-मान्यता में देखने को नहीं मिलती है। अगले लेख में हम संगति की बहाली के साथ मिलने वाली अन्य अद्भुत, अभूतपूर्व और अनुपम बातों को देखेंगे, ताकि इस संगति के महत्व और मूल्य को समझ सकें, उसका आदर कर सकें। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 21


The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (3)



We have, from God's Word, been looking into the things a Christian Believer should keep in mind and follow, in order to live a practical life of Christian faith. We have seen that there are seven things given in Acts 2; the last four of which, given in Acts 2:42, are also known as the “Pillars of the Christian Living.” Having considered the first of these four “pillars,” i.e., studying the Word, we are now considering the second “pillar,” i.e., keeping fellowship. We have seen that having fellowship has been God's desire from the beginning, and it is for this fellowship that He has created man in His own image. But man, also had to maintain the fellowship with God and also with other human beings. But the entry of sin into the world caused problems in this fellowship; Man's fellowship with God was broken, and as other things entered into his having fellowship with other men, the beauty and harmony of that fellowship was lost. In the previous article we saw that when there is sin, man is unable to have fellowship either with God or with other men. But once sin is taken care of, man's fellowship with God and other humans is restored. Another thing we have come to see about fellowship is that the basis and expression of fellowship is family and family relationships, whether the fellowship is with God or with humans. Today we will consider how living in fellowship based on the teachings of the Bible, makes us members of the universal, worldwide family of God; and all the walls of mutual division, disagreement, domination, and hostility based on human thoughts and ideas are destroyed.


We have seen that by repenting of sins, and believing in the Lord Jesus, by surrendering our lives to Him, we are reconciled to God, restored to our fellowship with Him (Romans 5:1, 11). But it is not just about the restoration of fellowship, rather God takes this restored relationship and fellowship with man even further, to an even more intimate, to an unimaginable level. He elevates it to a multi-dimensional level that is completely beyond what humans can think, understand, imagine; and simply do not have the capacity for ever attaining to that level on their own. Nothing similar to this can be seen anywhere in the world, in any other religion, belief or any concept of divinity.


Those who have received forgiveness of sins and are restored to fellowship with God through faith in Christ Jesus, God makes them His children, members of His own family "But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God." (John 1:12-13). They now become Christ's brothers and sisters, His joint heirs "The Spirit Himself bears witness with our spirit that we are children of God, and if children, then heirs - heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together"  (Romans 8:16-17). And we have seen in the previous article, from Romans 10:12; 1 Corinthians 12:13; and Colossians 3:10-11 that once thus restored to relationship with God, having become a member of God's family, all grounds for divisions and differences due to worldly considerations get eliminated; all Born-Again Christians become co-equal members of one family. It is on the basis of these worldly considerations and notions, that people of different religions, beliefs, opinions, concepts, etc. in the world have become enemies of each other; they are fighting each other for dominion, they are killing and dying for those things. But as soon as they come into the Christian faith, the very basis of the existence of all these differences, divisions, enmities, etc. disappears; All the people become part of the same fellowship, all having an equal status before God.


The Lord Jesus, during the days of His ministry on earth, had told the people of the world about this family relationship that He has with His followers; and that this relationship was even greater than His relationship with His family of physical birth "Then His brothers and His mother came, and standing outside they sent to Him, calling Him. And a multitude was sitting around Him; and they said to Him, 'Look, Your mother and Your brothers are outside seeking You.’ But He answered them, saying, ‘Who is My mother, or My brothers?’ And He looked around in a circle at those who sat about Him, and said, ‘Here are My mother and My brothers! For whoever does the will of God is My brother and My sister and mother.’" (Mark 3:31-35). At the same time, Lord Jesus had assured his disciples that by following Him, even if they have to be away from their family of birth, they will not suffer any loss, because right here in this world, they will be rewarded a hundred times of whatever they have to leave behind, and they will get eternal life in heaven “Then Peter began to say to Him, ‘See, we have left all and followed You.’ So Jesus answered and said, ‘Assuredly, I say to you, there is no one who has left house or brothers or sisters or father or mother or wife or children or lands, for My sake and the gospel's, who shall not receive a hundredfold now in this time--houses and brothers and sisters and mothers and children and lands, with persecutions--and in the age to come, eternal life.’” (Mark 10:28-30). Keeping these things stated by the Lord in mind, it becomes easier to understand what the Lord meant when He said in Matthew 10:37 and Luke 14:26 about relationships with the family of birth.


As stated above, restoration into fellowship with God elevates Christians to a multi-dimensional level that is far beyond what man can think, understand, imagine, and be able to accomplish on his own. This is such a level that nothing like it can be seen anywhere in the world, in any other religion, belief or concept of divinity. In the next article we will look at other marvelous, unprecedented, and unique things that come with the restoration of fellowship, so that we can understand and respect the importance and value of this fellowship.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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