पाप और उद्धार को समझना – 16
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पाप का समाधान - उद्धार - 13
प्रभु यीशु पूर्णतः मनुष्य थे
हमने उद्धार से संबंधित तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि “इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” पर विचार करते हुए पिछले लेख में देखा है कि परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए समाधान के लिए जिस पवित्र और सिद्ध मनुष्य की आवश्यकता थी, वह मनुष्यों के जन्म और जीवन की प्रणाली के अनुसार पाया जाना असंभव था। उसका पृथ्वी पर आना और अस्तित्व अलौकिक विधि से ही संभव हो सकता था, और परमेश्वर ने ही यह प्रावधान करके दिया; उस प्रावधान के लिए आवश्यक सिद्ध मनुष्य के जन्म और जीवन से संबंधित सभी अनिवार्य गुण प्रभु यीशु मसीह में हैं। परमेश्वर का पुत्र, प्रभु यीशु मसीह, मनुष्यों के पापों के लिए बलिदान होने के लिए, अपने परमेश्वरत्व की सामर्थ्य, वैभव और महिमा को छोड़कर, एक साधारण और सामान्य मनुष्य बनकर इस संसार में आ गया “जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो। जिसने परमेश्वर के स्वरूप में हो कर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। वरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के रूप में प्रगट हो कर अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली” (फिलिप्पियों 2:5-8)।
यद्यपि प्रभु यीशु मसीह त्रिएक परमेश्वर का दूसरा व्यक्तित्व, परमेश्वर पुत्र है, किन्तु, जैसा उपरोक्त बाइबल खंड से प्रकट है, पृथ्वी पर मनुष्य बनकर जन्म लेने में उन्होंने अपने आप को ईश्वरीय नहीं वरन मानवीय स्वरूप एवं व्यवहार के अंतर्गत कर लिया, और एक साधारण मनुष्य समान ही जीवन व्यतीत किया:
* उन्होंने एक सामान्य शिशु के समान जन्म लिया, और अन्य बच्चों के समान ही उनका पालन पोषण हुआ, वे बड़े हुए (लूका 2:6-7)।
* वे अपने सांसारिक माता-पिता की अधीनता में और उन के आज्ञाकारी रहे (लूका 2:51)।
* उनके इलाके के लोग उन्हें एक सामान्य मनुष्य, अपने सांसारिक पिता के समान एक बढ़ई का काम करने वाले के रूप में जानते थे (मरकुस 6:3)।
* लोगों के अविश्वास से उन्हें अचंभा हुआ (मरकुस 6:6)
* सभी मनुष्यों के समान, पैदल यात्रा से उन्हें भी थकान होती थी, भूख और प्यास लगती थी (यूहन्ना 4:6-8), वे भी भोजन करते थे (यूहन्ना 13:4; लूका 24:42-43)।
* सभी मनुष्यों के समान उनमें भी भावनाएं थीं:
** वे बच्चों से प्रेम करते थे (मत्ती 19:14)
** दुखियों और समाज के तिरस्कृत लोगों पर उन्हें तरस आता था (लूका 7:12-13; मत्ती 20:34)
** वे प्रिय जनों के देहांत और उनके परिवार के दुख से दुखी होकर स्वयं भी रोए (यूहन्ना 11:35-36)
** वे धार्मिकता और परमेश्वर के वचन के प्रति दोगलेपन के व्यवहार को सहन नहीं कर सकते थे (मत्ती 15:1-9; 23 अध्याय)
** धार्मिकता के प्रति अनुचित ढिठाई के व्यवहार से उन्हें क्रोध आया (मरकुस 3:5)
** अधर्मियों और अविश्वासियों पर आने वाले प्रकोप और विनाश से भी वे दुखी हुए और रोए (लूका 19:41-44; मत्ती 23:37)
** वो धैर्यवान एवं सहनशील थे - यह जानते हुए भी कि उनका शिष्य यहूदा इस्करियोती उन्हें मार डाले जाने के लिए पकड़वाने वाला है, प्रभु ने यहूदा के विरुद्ध एक भी बात नहीं की, कोई कटाक्ष नहीं किया, उसे औरों के सामने उजागर और अपमानित नहीं किया, वरन उसके प्रभु को छोड़ कर चले जाने तक प्रभु उससे प्रेम का ही व्यवहार करता रहा (यूहन्ना 13:21-30)।
** वो भलाई करने वाले थे - पकड़वाए जाने के समय भी प्रभु ने उन्हें पकड़ने आए हुए लोगों के विरुद्ध कुछ नहीं किया, जबकि उन्हें नाश कर देना उसकी सामर्थ्य में था; वरन वहाँ पर भी प्रभु ने अपना बुरा चाहने वाले को चंगाई दी (मत्ती 26:51-53; लूका 22:51)।
** वो क्षमाशील थे - पकड़वाए जाने के बाद से लेकर क्रूस पर उनकी मृत्यु तक, प्रभु को लगातार उपहास, अपमान, लांछन, यातनाओं और मिथ्या आरोपों का सामना करना पड़ा; किन्तु वे चुपचाप सब सहते रहे, किसी के विरुद्ध कुछ नहीं कहा, किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा, कोई श्राप नहीं दिया। वरन उन्हें क्रूस पर चढ़ाने वालों के लिए भी उन्होंने क्षमा की प्रार्थना की, और उनकी निन्दा करने वाले डाकू ने जब पश्चाताप किया, तो उसे भी उन्होंने तुरंत क्षमा कर दिया, स्वर्ग में होने का आश्वासन दे दिया।
* सभी मनुष्यों के समान उन्हें भी नींद की आवश्यकता होती थी (लूका 8:23)
* उन्हें भी लोगों के विरोध, बैर, और मार डाले जाने की बातों का सामना करना पड़ा (यूहन्ना 5:18, 41; 8:40-41,50, 59)
इन सभी बातों में से होकर निकलने पर भी, जो एक सामान्य मनुष्य से यदि शब्दों और कार्यों में नहीं, तो कम से कम मन या विचारों में पाप करवा सकती हैं, प्रभु यीशु ने कभी कोई पाप नहीं किया। इसीलिए इब्रानियों की पत्री का लेखक उनके लिए लिखता है, “सो जब हमारा ऐसा बड़ा महायाजक है, जो स्वर्गों से हो कर गया है, अर्थात परमेश्वर का पुत्र यीशु; तो आओ, हम अपने अंगीकार को दृढ़ता से थामें रहे। क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला” (इब्रानियों 4:14-15)। उनके शिष्य यूहन्ना ने, जो लगभग साढ़े तीन वर्ष उनके साथ रहा था, जिसने उन्हें और उनके कार्यों को निकटता से देखा था, उनकी बातों और शिक्षाओं को सुना था, और जो प्रभु से बहुत घनिष्ठ था (यूहन्ना 13:23; 21:7) अपनी पत्री में उनके लिए लिखा, “और तुम जानते हो, कि वह इसलिये प्रगट हुआ, कि पापों को हर ले जाए; और उसके स्वभाव में पाप नहीं” (1 यूहन्ना 3:5)।
प्रभु यीशु मसीह, हर बात में, हर रीति से पूर्णतः मनुष्य थे; साथ ही वे पूर्णतः परमेश्वर भी थे, जिन्होंने अपने परमेश्वरत्व को, अपनी सामर्थ्य को, पृथ्वी की उनकी सेवकाई के दिनों में केवल औरों की भलाई के लिए ही प्रयोग किया, कभी अपने लिए नहीं (प्रेरितों 10:38; मत्ती 4:1-11)। केवल वो ही वह एकमात्र ऐसे उपयुक्त व्यक्ति थे जो औरों के पापों को अपने ऊपर लेकर उनके लिए दण्ड सह सकते थे, क्योंकि उनमें कभी किसी प्रकार का कोई पाप नहीं था इसलिए उन्हें अपने पाप के विषय कुछ नहीं करना था, जो भी करना था औरों के पापों के लिए ही करना था। इस प्रेमी, अनुग्रहकारी, धीरजवंत प्रभु ने मेरे और आपके पापों के निवारण और पाप की समस्या का समाधान तैयार कर के सेंत-मेंत उपलब्ध करवा दिया है। क्या आप उसके इस समाधान को स्वीकार नहीं करेंगे? आपके प्रति उसके प्रेम और कृपा में ऐसी क्या कमी, क्या बात है जो आपको उसके प्रेम भरे आमंत्रण को स्वीकार करने से रोकती है? उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए आपको सच्चे और समर्पित मन से एक प्रार्थना ही तो करनी है, जो आपके मन और जीवन को बदल कर नया कर दे, परमेश्वर के साथ आपका मेल-मिलाप करवा दे।
यदि आप ने अभी भी नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपको जगत के न्याय से बचाकर स्वर्ग की आशीषों का वारिस बना देगा। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे?
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Understanding Sin and Salvation – 16
The Solution For Sin - Salvation - 13
The Lord Jesus was Fully Human
While considering the third and most important question about salvation, “Why was it so necessary for this that Lord God Jesus Christ Himself had to leave heaven, and come down to earth to be sacrificed?” We saw that the holy and perfect man required for the God given solution was impossible to find among men born through the natural manner of human birth. The coming and living on earth of such a man could only have been possible by supernatural method, and again, it was God who made this provision too. All the qualities essential for the birth and life of the perfect man necessary for God’s provision are found in the Lord Jesus Christ. The Son of God, the Lord Jesus Christ, came into this world as an ordinary and normal man, leaving the power, splendor, and glory of His divinity; to be sacrificed for the sins of man. “Let this mind be in you which was also in Christ Jesus, who, being in the form of God, did not consider it robbery to be equal with God, but made Himself of no reputation, taking the form of a bondservant, and coming in the likeness of men. And being found in appearance as a man, He humbled Himself and became obedient to the point of death, even the death of the cross.” (Philippians 2:5-8).
Although the Lord Jesus Christ is the Son of God, the second personality of the Triune God, but, as is apparent from the above Bible quote, in being born as a man on earth, He kept himself not in the Godly nature, but in human nature and behavior, and lived like an ordinary man:
* He was born like a normal infant, and was brought up just like any other child (Luke 2:6-7).
* He was subject to and obedient to His earthly parents (Luke 2:51).
* The people of his locality knew him as a normal man, a carpenter like his earthly father (Mark 6:3).
* He was surprised by the unbelief of the people in Him (Mark 6:6).
* Like all men, traveling by walking made Him feel tired, hungry, and thirsty (John 4:6-8); He also required and ate food (John 13:4); Luke 24:42-43).
* Like all humans, He also had feelings, and emotions:
** He loved the children (Matthew 19:14)
** He felt pity for the afflicted and the despised people of the society (Luke 7:12-13; Matthew 20:34)
** He also wept, grieving at the death of His loved ones and the suffering of the families (John 11:35-36).
** He could not tolerate misuse of, and hypocrisy toward God's Word (Matthew 15:1-9; & chapter 23).
** He was angry by the stubborn, hard-hearted, unrighteous behavior of the religious leaders (Mark 3:5).
** He was grieved about the impending doom of the unrighteous and non-believers, and wept because of it (Luke 19:41-44; Matthew 23:37).
** He was patient and tolerant - Though knowing that His disciple Judas Iscariot was about to have Him caught to be killed, still, the Lord did not do or say anything against Judas, did not mock or ridicule him, did not expose and humiliate him before others. Instead, till the time he left Him, the Lord continued to treat him with love (John 13:21-30).
** He did good to others - Even at the time of being captured, the Lord did nothing against those who had come to capture Him, though it was in His power to destroy them; and even there, the Lord came forward to heal the one who had come to harm Him (Matthew 26:51-53; Luke 22:51).
** He was forgiving - From being captured until his death on the cross, the Lord had to face constant ridicule, humiliation, many false accusations were hurled at Him, He was unjustly abused and tortured. But He suffered them all silently, said nothing against anyone, did not use any intemperate language, did not curse anyone. He even prayed for the forgiveness of those who crucified Him, and when the robber who initially blasphemed Him repented, He immediately forgave him, assuring him of being in heaven.
* Like all humans, He needed sleep (Luke 8:23).
* He too faced people's opposition, hatred, and even attempts of eliminating Him (John 5:18, 41; 8:40-41, 50, 59).
Even after going through all these things, which can provoke any normal man to sin, if not in words and deeds, then at least in mind or thoughts; yet the Lord Jesus never sinned. That is why the author of the Epistle of the Hebrews writes for Him, “Seeing then that we have a great High Priest who has passed through the heavens, Jesus the Son of God, let us hold fast our confession. For we do not have a High Priest who cannot sympathize with our weaknesses, but was in all points tempted as we are, yet without sin.” (Hebrews 4:14-15). His disciple John, who had been with Him for about three and a half years, and had closely observed Him in various situations, had witnessed His works, had heard His messages and teachings, and who himself was very close to the Lord (John 13:23; 21:7) wrote about Him in his letter that, “And you know that He was manifested to take away our sins, and in Him there is no sin.” (1 John 3:5).
The Lord Jesus Christ was, in every way, fully human; At the same time, He was fully God, who used His divinity, His power, in the days of His ministry on the earth only for the good of others, never for Himself (Acts 10:38; Matthew 4:1-11). He was the only suitable person who could bear the punishment for others by taking their sins upon Himself, because He had never sinned, so there was nothing He had to do about His own sin; whatever He had to do was for the sins of others. This loving, gracious, merciful, longsuffering Lord has prepared and freely made available the remedy of sins, the solution to the problem of sin, for you and me. Will you not accept this solution? Is there anything lacking in His love and grace towards you that is keeping you from accepting his loving invitation? In order to accept His loving invitation, all you have to do is pray with a sincere and submissive heart, and that will change your mind and life, make you a new person, and will reconcile you with God for eternity.
If you have still not been Born Again, not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
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