पाप और उद्धार को समझना – 13
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पाप का समाधान - उद्धार - 10
आज से हम अपने तीसरे प्रश्न “इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” को देखना आरंभ करते हैं। पहले के लेख “पाप का परिणाम” में हम ने देखा था कि मनुष्य के पाप ने परमेश्वर के सामने एक विडंबना लाकर रख दी - उसका न्यायी, निष्पक्ष और खरा होना माँग करता था कि पाप करने वाले मनुष्य को उसके किए का दण्ड भुगतना होगा; किन्तु मनुष्य के प्रति उसका प्रेम मनुष्य को “मृत्यु” अर्थात उससे अनन्त विछोह में, नरक में देखना नहीं चाहता था। अब उसे कोई ऐसा मार्ग चाहिए था जिससे उसका न्याय की माँग भी पूरी हो जाए, और मनुष्य को नाश में भी न जाना पड़े।
इस समाधान के लिए उसे कोई ऐसा मनुष्य चाहिए था हो जो पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो, इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके, और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। ऐसा मनुष्य पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था।
मनुष्यों के पाप का समाधान प्रदान करने वाले में इन बातों का होना अनिवार्य था:
* वह एक मनुष्य हो
* वह पूर्णतः परमेश्वर का आज्ञाकारी हो; अर्थात, अपना जीवन और सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और आज्ञाकारिता में होकर, उसे समर्पित रहकर करे
* वह अपने जीवन भर मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, और पवित्र रहा हो
* वह स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने और उनके दण्ड - मृत्यु को सहने के लिए तैयार हो
* वह मृत्यु से वापस लौटने की सामर्थ्य रखता हो; मृत्यु उस पर जयवंत नहीं होने पाए
* वह अपने इस महान बलिदान के प्रतिफलों को सभी मनुष्यों को सेंत-मेंत देने के लिए तैयार हो
इन सभी बातों की पूर्ति किसी मनुष्य के लिए कर पाना असंभव था। आदम और हव्वा के पाप ने उनमें और फिर उनकी संतान में पाप करने के प्रवृत्ति डाल दी थी। हर मनुष्य पाप करने के स्वभाव के साथ ही जन्म लेता है, जैसा दाऊद ने अपने एक भजन में कहा “देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा” (भजन 51:5); दाऊद ने यह नहीं कहा कि मैं पाप के द्वारा या पाप के कारण अपनी माता के गर्भ में पड़ा, वरन माता के गर्भ में पड़ने के समय से ही उस में पाप विद्यमान था। यह केवल कहने की बात नहीं है, एक व्यावहारिक तथ्य है; बच्चे पाप के स्वभाव के साथ ही जन्म लेते हैं। एक शिशु जो अभी बोलना भी नहीं जानता है, वह क्रोध करता है, लालच करता है - अपनी पसंद की चीज़ को छोड़ना या किसी और देना नहीं चाहता है, अपने किए किसी अनुचित कार्य के लिए इनकार करना, उसे अस्वीकार करना जानता है, आदि। किसी ने भी उसे ऐसा करना नहीं सिखाया है, वह स्वतः ही ऐसा करने की समझ और क्षमता रखता है। हम अकसर इन बातों को “बाल-व्यवहार” कह और समझ कर, हंस कर टाल देते हैं। किन्तु जब यही “बाल व्यवहार” की बातें कोई थोड़ा बड़ा बच्चा या वयस्क करता है तो इसी को हम ही बुरा, आपत्तिजनक, अस्वीकार्य कहते हैं; और जो बारंबार ऐसा करता रहता है उसे बुरा या पापी मानते हैं। व्यवहार, मनसा, और वही है, केवल आयु का अंतर है। इसलिए हम उस मनसा और व्यवहार को संज्ञा चाहे कोई भी दे लें, वास्तविकता तो अपरिवर्तनीय है, बनी ही रहेगी - प्रत्येक मनुष्य पाप की प्रवृत्ति, पाप के दोष के साथ जन्म लेता है। यह प्रवृत्ति और मनसा सभी के मन में बनी रहती है, और समय तथा अवसर के अनुसार प्रकट होकर व्यवहार में दिखने लगती है। तब हम व्यक्ति को पापी कहना आरंभ कर देते हैं।
मनुष्य अपने प्रयासों से अपनी इस प्रवृत्ति को दबा सकता है, नियंत्रित कर सकता है, बाहर प्रकट होने से रोक सकता है; किन्तु मन-ध्यान-विचारों में इस प्रकार का पाप आने को नहीं रोक सकता है। हम देख चुके हैं कि परमेश्वर की दृष्टि में मन के अप्रत्यक्ष पाप भी, व्यवहार में किए गए प्रत्यक्ष पापों के समान ही दण्डनीय हैं। इसीलिए बाइबल में अय्यूब की पुस्तक में लिखा गया है:
* “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4)
* “मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक हो? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि निर्दोष हो सके? देख, वह अपने पवित्रों पर भी विश्वास नहीं करता, और स्वर्ग भी उसकी दृष्टि में निर्मल नहीं है। फिर मनुष्य अधिक घिनौना और मलीन है जो कुटिलता को पानी के समान पीता है” (अय्यूब 15:14-16)
* “फिर मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में धमीं क्योंकर ठहर सकता है? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ है वह क्योंकर निर्मल हो सकता है? देख, उसकी दृष्टि में चन्द्रमा भी अन्धेरा ठहरता, और तारे भी निर्मल नहीं ठहरते। फिर मनुष्य की क्या गिनती जो कीड़ा है, और आदमी कहां रहा जो केंचुआ है!” (अय्यूब 25:4-6)
और यशायाह नबी ने लिखा, “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6)।
तो अब परमेश्वर को एक ऐसा मनुष्य चाहिए था जो गर्भ में पड़ने के समय से लेकर जीवन पर्यंत मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में निष्पाप, पवित्र, और निष्कलंक रहा हो। मनुष्य की स्वाभाविक जन्म-प्रणाली के अनुसार यह असंभव था।
इसीलिए बाइबल और मसीही विश्वास (मसीही या इसाई धर्म नहीं) की यह शिक्षा है कि प्रत्येक मनुष्य पापी है; प्रत्येक मनुष्य को पापों की क्षमा और उद्धार की आवश्यकता है। यदि आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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Understanding Sin and Salvation – 13
The Solution For Sin - Salvation - 10
From today we will start considering our third question, “Why was it so necessary for this that Lord God Jesus Christ Himself had to leave heaven, and come down to earth to be sacrificed?” In our earlier article, “The Consequences of Sin” we had seen that man’s sin created a dilemma for God - His being a just and non-partisan judge demanded that the man who sinned should suffer the punishment of his sin; whereas, His love for man was unwilling to accept “death”, i.e., an eternal separation from man, his being cast into hell. Therefore, He now required a solution through which the demands of His justice would also be met and man would not have to go into eternal destruction.
For this solution, He required a man with certain characteristics: one who was completely sinless and without any blemish; one who was powerful enough so that death would not be able to prevail over him; one who would be so benevolent that he would voluntarily take the sins of mankind upon himself, suffer their punishment - death, for mankind, and then be so generous so as to freely distribute the rewards of overcoming sin and death amongst mankind. Only such a person could pay for the sins of mankind, free man from death, reconcile men with God, and restore back the status that was lost in the Garden of Eden.
For the person who was to provide the solution to sin, it was mandatory for him to possess the following characteristics:
* He should be a human being.
* He should be fully obedient to God, i.e., one who lives a life of complete obedience to God and always does everything in complete submission to and as per the will of God.
* Throughout his life, in everything pertaining to his mind-thoughts-attitude-behavior, he should always be absolutely sinless and blameless.
* He should be voluntarily be willing to take upon himself all the sins of the entire mankind, and suffer their punishment – death, for everyone.
* He should be capable of returning back from the dead; death should not be able to prevail upon him.
* He would be willing to freely share the rewards of his great sacrifice with everyone.
It was impossible for any human being to fulfil all the above characteristics. The sin of Adam and Eve, had put in them and in their children, their posterity the tendency to sin. Every man is born with the tendency to sin, as David said in one of his Psalms, “Behold, I was brought forth in iniquity, And in sin my mother conceived me” (Psalm 51:5); take note, here David is not saying that I was conceived by or because of sin, rather, that from the moment of his being conceived in his mother’s womb, the sin nature was already present in him. This is not a vain statement; it is a practical reality; babies are born with a sin nature. A baby who does not even know how to talk, exhibits anger, exhibits selfish nature – is unwilling to leave, or give up, or share a thing of his liking, naturally knows to refuse to accept the blame for anything wrong done by him, etc. No one has taught that baby any of these things; he has a natural, inherent tendency to think and behave in this manner. Often we laugh away these things, labelling them as “childish behavior”; but if these very things are done by a somewhat grownup child, or an adult, we no longer consider it as “childish behavior”, but as bad, objectionable, unacceptable behavior. If a person continued to do so repeatedly, then we call him to be a sinner, a bad person. The behavior, deed, and attitude is the same, the only thing different is the age. Therefore, whatever be the name we may give to this behavior and attitude, the basic fact is the same and unchanging, and will remain so – every person is born with a sin nature and with a tendency to sin. This nature and tendency resides within everyone since birth, and at an opportune time is manifested in the behavior; and that is when we start calling the person a “sinner”.
Man through his efforts, can suppress this tendency; can control it to varying extents; can prevent it from being manifested externally; but cannot eliminate it from his mind, thoughts, and desires. We have already seen that in God’s eyes, sins hidden in the heart, not yet committed physically, are just as bad and punishable as those manifested externally and committed physically. That is why in the book of Job, in the Bible, it is written that:
* “Who can bring a clean thing out of an unclean? No one!” (Job 14:4).
* “What is man, that he could be pure? And he who is born of a woman, that he could be righteous? If God puts no trust in His saints, And the heavens are not pure in His sight, How much less man, who is abominable and filthy, Who drinks iniquity like water!” (Job 15:14-16).
* “How then can man be righteous before God? Or how can he be pure who is born of a woman? If even the moon does not shine, And the stars are not pure in His sight, How much less man, who is a maggot, And a son of man, who is a worm?” (Job 25:4-6).
And, the prophet Isaiah wrote, “But we are all like an unclean thing, And all our righteousnesses are like filthy rags; We all fade as a leaf, And our iniquities, like the wind, Have taken us away” (Isaiah 64:6).
Therefore, now God required a man who from the moment of his being conceived in his mother’s womb, till the last breath of his life, should always have remained sinless and spotless in his mind-thoughts-attitude-behavior. In man’s natural process of conception and birth, this was an impossibility.
That is why, it is the teaching of the Bible and of the Christian Faith (not Christian Religion), that every person is a born sinner; and every person needs forgiveness of sins and salvation. If you have not received salvation, have not yet asked the Lord Jesus to forgive your sins, then you now have the opportunity to do so. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
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