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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

The Solution For Sin - Lord Jesus - Divine Birth / पाप का समाधान - प्रभु यीशु - अलौकिक जन्म

 

पाप और उद्धार को समझना – 14

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पाप का समाधान - उद्धार - 11

प्रभु यीशु का अलौकिक जन्म

    कल से हमने उद्धार से संबंधित तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि “इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” पर विचार आरंभ किया था। पाप और उसके प्रभावों, तथा सभी मनुष्यों के लिए उद्धार की अनिवार्यता के संदर्भ में हमने देखा था कि पाप के कारण उत्पन्न परिस्थिति से यदि परमेश्वर निष्पक्ष, खरे, न्यायी के समान व्यवहार करता, तो मनुष्य नाश हो जाते; और यदि वह उनके प्रति अपने प्रेम में होकर उनके पाप को अनदेखा कर देता, तो उसका निष्पक्ष, खरा, न्यायी होने की प्रतिष्ठा जाती रहती। इस विडंबना के समाधान के लिए परमेश्वर को कोई ऐसा मनुष्य चाहिए था जो पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो, इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके, और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। केवल ऐसा मनुष्य ही पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था।

 

    साथ ही हमने देखा था यह मनुष्यों में से हो पाना संभव नहीं था, क्योंकि आदम और हव्वा के पाप के बाद से प्रत्येक मनुष्य पाप के स्वभाव के साथ ही अपनी माता के गर्भ में आता है और शिशु अवस्था से ही पाप की प्रवृत्ति को प्रकट करता रहता है। इसलिए मनुष्यों की प्रणाली के अनुसार माता के गर्भ में पड़ने और जन्म लेने वाला कोई भी मनुष्य पूर्णतः निष्पाप, पवित्र, और निष्कलंक नहीं ठहर सकता। अब समस्या थी कि पाप का निवारण करने वाले को मनुष्य भी होना था, और अपने अस्तित्व के बिल्कुल आरंभ से ही पाप से पूर्णतः विहीन भी होना था।

 

    परमेश्वर ने यह समाधान अदन की वाटिका में ही प्रदान कर दिया था। शैतान द्वारा सर्प के शरीर में होकर आदम और हव्वा को पाप में गिराने के कारण, परमेश्वर की ओर से पहला श्राप और दण्ड सर्प पर आया “तब यहोवा परमेश्वर ने सर्प से कहा, तू ने जो यह किया है इसलिये तू सब घरेलू पशुओं, और सब बनैले पशुओं से अधिक शापित है; तू पेट के बल चला करेगा, और जीवन भर मिट्टी चाटता रहेगा” (उत्पत्ति 3:14)। फिर अपनी इसी बात को आगे ज़ारी रखते हुए शैतान को संबोधित करते हुए, उसे उसका अंत बताया, “और मैं तेरे और इस स्त्री के बीच में, और तेरे वंश और इसके वंश के बीच में बैर उत्पन्न करूंगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एड़ी को डसेगा” (उत्पत्ति 3:15)। यहाँ पर परमेश्वर द्वारा कही गई बात में शैतान द्वारा उद्धारकर्ता को डसे जाने - मृत्यु चखने, और शैतान के सिर को कुचले जाने, अर्थात शैतान के अंत होने की बाइबल की पहली भविष्यवाणी दी गई है - शैतान जिस उद्धारकर्ता की एड़ी को डसेगा, अर्थात उसे मृत्यु चखाएगा, वही उद्धारकर्ता शैतान के सिर को कुचल डालेगा। हम इस बात को बाद में और विस्तार से देखेंगे। अभी ध्यान देने के लिए हमारे संदर्भ से संबंधित एक बहुत महत्वपूर्ण वाक्यांश यहाँ पर भविष्यवाणी के रूप में दिया गया है - “इसके वंश”, अर्थात स्त्री का वंश!


    सामान्यतः, संसार भर के सभी लोगों में वंश पिता से माना जाता है, इसीलिए लोग पुत्रों की इतनी लालसा रखते हैं - ताकि उनका वंश चलता रहे। किन्तु यहाँ पर परमेश्वर ने स्त्री के वंश की बात की; अर्थात वह उद्धारकर्ता संसार की सामान्य रीति के अनुसार जन्म नहीं लेगा, उसके स्त्री के गर्भ में आने और जन्म लेने में किसी पुरुष का कोई कार्य नहीं होगा। साथ ही, क्योंकि उस जगत के उद्धारकर्ता को एक सामान्य मनुष्य के समान ही होना था, मनुष्यों के अनुभवों में से होकर निकलना था, और उन परिस्थितियों में भी अपने निष्पाप, पवित्र, निष्कलंक होने को बनाए रखना था, इसलिए उसका जन्म भी मनुष्यों के समान ही होना था। मानवीय जीवन का कोई ऐसा अनुभव नहीं बचना था, जिससे होकर वह न निकले और फिर भी पूर्णतः निर्दोष और पवित्र रहे।

 

    प्रभु यीशु मसीह ही संसार के इतिहास में एकमात्र हैं जो मनुष्यों की रीति से तो गर्भ में नहीं आए, किन्तु फिर भी किसी भी अन्य मनुष्य के समान गर्भ में रहने, जन्म की पीड़ा और अनिश्चितता सहने, असहाय और माँ पर पूर्णतः निर्भर शिशु होने, फिर बाल्यावस्था से लेकर वयस्क होने के सभी अनुभवों में से होकर निकले।

 

    प्रभु यीशु मसीह का अपनी माँ के गर्भ में आना परमेश्वर का किया आश्चर्यकर्म था; उन के संसार में आने के लिए परमेश्वर की ओर से एक देह तैयार की गई “इसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया” (इब्रानियों 10:5), और फिर उस देह को मरियम के गर्भ में रखा गया, जहाँ वह किसी भी अन्य मनुष्य के भ्रूण के समान उन सभी परिस्थितियों से होते हुए विकसित हुई और फिर उन्होंने एक सामान्य मनुष्य के समान संसार में जन्म लिया “अब यीशु मसीह का जन्म इस प्रकार से हुआ, कि जब उस की माता मरियम की मंगनी यूसुफ के साथ हो गई, तो उन के इकट्ठे होने के पहिले से वह पवित्र आत्मा की ओर से गर्भवती पाई गई” (मत्ती 1:18)। उत्पत्ति 3:15 में कही गई परमेश्वर की बात और भविष्यवाणी, सारे जगत के उद्धारकर्ता का “स्त्री का वंश” होना पूरी हुई।

 

    परमेश्वर कभी झूठ या गलत नहीं बोलता है, उसका कहा कभी नहीं टलता है, वह असंभव लगने वाली स्थिति में से भी मार्ग बना देता है। जैसे उसने समस्त जगत के उद्धारकर्ता की भविष्यवाणी की, वैसे ही जगत के अंत और न्याय की भी भविष्यवाणी की है, और यह भी बात दिया कि जब ऐसा होना निकट होगा, उस समय संसार के क्या हाल होंगे, क्या परिस्थितियाँ होंगी (मत्ती 24 अध्याय) जिससे वह समय लोगों पर अनायास और अनपेक्षित न आ जाए, लोग सचेत हो जाएं, अपने आप को उसके पुनः आगमन, और न्याय के लिए उसके सामने खड़े होने के लिए तैयार कर लें। आज की संसार की परिस्थितियाँ और बातें स्पष्ट दिखा रहे हैं कि हम अंत और न्याय के समय के बहुत निकट हैं। क्या आपने अपने आप को परमेश्वर के सम्मुख खड़े होने के लिए तैयार कर लिया है? जैसा हम पीछे देख चुके हैं, केवल वे ही बचाए जाएंगे जिन्होंने नया जन्म, उद्धार पाया है; धर्म के निर्वाह, धार्मिकता के कामों, वचन का ज्ञान आदि पर भरोसा रखने वाले यहीं पीछे छूट जाएंगे।

 

    यदि आप ने अभी भी नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपको जगत के न्याय से बचाकर स्वर्ग की आशीषों का वारिस बना देगा। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे?

 

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 Understanding Sin and Salvation – 14

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 11

Divine Birth of Lord Jesus

    

    Since yesterday we have started to consider the third and the most important of the three questions related to salvation, “Why was it so necessary for this that Lord God Jesus Christ Himself had to leave heaven, and come down to earth to be sacrificed?” In context of sin and its deleterious effects, and the necessity of salvation for every person, we had seen that if God were to act as a just, impartial judge, then man would have been destroyed; and if He had overlooked their sin because of His love for them, then He would have contradicted His attribute of being honest, just, and impartial. For the solution to this dilemma, God needed a man who would be totally sinless and spotless, strong enough to overcome death, kind and benevolent enough to voluntarily take the sins of the whole of mankind upon himself and suffer their punishment, and then share out the benefits freely with everyone. Only such a person could pay the punishment of sins for everyone, free man from death, reconcile man with God, and restore back the status lost by man in the Garden of Eden through sin.


    We had also seen that this was not possible through any human being, since after the sin of Adam and Eve, every person is conceived with a sin nature and since his infancy starts manifesting this sin nature in his life. Therefore, any person conceived and born through the natural processes of mankind, will never be totally sinless, holy, and spotless. Now, the problem was that the one who was to provide the solution to sin, had to be a human being, yet also be totally sinless since the moment of his physically coming into existence.


    God had made the provision for this solution in the Garden of Eden itself. For allowing Satan to use it to beguile Adam and Eve into sin, the first punishment came upon the serpent, “So the Lord God said to the serpent: "Because you have done this, You are cursed more than all cattle, And more than every beast of the field; On your belly you shall go, And you shall eat dust All the days of your life” (Genesis 3:14). Then, continuing His statement, God addressed Satan and told him his end, “And I will put enmity Between you and the woman, And between your seed and her Seed; He shall bruise your head, And you shall bruise His heel” (Genesis 3:15). Here, in the statement made by God to Satan we see the mention of Satan bruising the Savior – tasting death, and then He will bruise the head of Satan. We will see this in greater detail later on. For now, in context of our current consideration, there is a very important phrase given here as a prophecy, “her Seed”!


    Generally speaking, all over the world, amongst all people, the “seed” is considered to be of the father, and that is why people generally desire male children – so that their family line may continue. But here God mentioned the woman’s seed; implying that the Savior will not be born according to the general process of conception and birth in mankind, i.e., there will be no role of any man in the Savior’s being conceived and born of a woman. But since the Savior had to be just like any other ordinary man, therefore he had to go through the same experiences as any other person would undergo; and yet, even in all these circumstances and experiences had to remain sinless and spotless, and had to be born as any other human. He had to undergo every experience that any other man undergoes, and yet remain completely sinless and holy.


    The Lord Jesus Christ is the only person in the entire history of all of mankind who was not conceived in His mother’s womb in the natural manner of mankind. Yet, He remained in the womb like any other person, was born like any other person – suffering the same birth pains and uncertainties, as an infant remained totally dependent upon His mother for everything, and then as He grew to be an adult, underwent the same experiences as any other person of the world does.


    The Lord’s coming into the womb of His mother was a miracle of God; for Him to come and live in the world, a body was prepared by God, “Therefore, when He came into the world, He said: "Sacrifice and offering You did not desire, But a body You have prepared for Me” (Hebrews 10:5), and then that body was placed in Mary’s womb, where He developed like any other human embryo, and was then born like any other human being is born. “Now the birth of Jesus Christ was as follows: After His mother Mary was betrothed to Joseph, before they came together, she was found with child of the Holy Spirit” (Matthew 1:18); and what God had said and prophesied in Genesis 3:15, that the Savior of the world would be “the seed of the woman” was thus fulfilled.


    God never lies, never speaks any wrong, and what He has said always stands true, never changes; He makes a way out even in seemingly impossible things and circumstances. Just as He had told and prophesied about the Savior of the world, similarly He has told and prophesied about the end of the world and the coming judgement of entire mankind. He has told us that when this end-time and the time for judgement approaches, what would be the conditions and circumstances in the world (Matthew 24), so that this time would not come upon the world suddenly and unexpectedly; that people may have time to be warned and prepare themselves for His second-coming and stand before Him for judgment. The circumstances and conditions prevailing in the world are clearly showing that we are very near the time of the end and of judgment. Have you prepared yourself to face the second coming of the Lord and your judgment? As we have seen in the previous articles, only those who are Born-Again, those who have received salvation from the Lord, will be saved whereas everyone who has been relying upon their religion, religious works and rituals, knowledge of the scriptures, good works etc. will all be left behind.


    If you have not received salvation from the Lord, have not been Born-Again, have not repented of your sins and asked forgiveness for them from the Lord Jesus, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 

 

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