पाप और उद्धार को समझना – 12
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पाप का समाधान - उद्धार - 9 - पुनःअवलोकन
पिछले कुछ लेखों में हम पाप और उस के समाधान, उद्धार, के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं को देखते आए हैं। उद्धार के बारे में हम बाइबल की शिक्षाओं को तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों के अंतर्गत देखते आ रहे हैं। ये प्रश्न हैं:
*यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?
*व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?
*इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?
अभी तक हम इनमें से पहले दो प्रश्नों के उत्तरों तथा उनके निष्कर्षों को बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार को देख चुके हैं। साथ ही हमने तीन धर्मी, परमेश्वर के वचन के ज्ञाता और विद्वान, और समाज में उच्च ओहदा रखने वाले लोगों के जीवनों को भी देखा था, और उनसे सीखा था कि उनके ज्ञान और धार्मिकता के बावजूद वे परमेश्वर को स्वीकार्य होने की स्थिति में नहीं थे, और स्वयं उनका विवेक उन्हें इसके लिए बेचैन करता था। अब तीसरा प्रश्न - समाधान के लिए प्रभु यीशु के आने के बारे में देखना बाकी है; किन्तु इस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न को देखने से पहले, जो बातें हम अभी तक पिछले लेखों में देख और सीख चुके हैं, उन्हें ध्यान कर लेना, उनका पुनः अवलोकन कर लेना अच्छा रहेगा, जिससे परमेश्वर के मनुष्य बनकर, सभी मनुष्यों के पापों के लिए अपने आप को बलिदान कर देने को समझने में हमें कोई असमंजस न हो।
पाप क्या है
* बाइबल के अनुसार, पाप की परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। उसने जो कहा और निर्धारित किया है, अन्ततः वही माना जाएगा, और उसी के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों 3:11-13)।
* परमेश्वर ने बताया है कि पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)। किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो।
* बाइबल सिखाती है कि पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरंभ मन में होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15; मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28)।
* इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति, कार्य, व्यवहार, इत्यादि पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं। ये बातें चाहे अभी मन ही में हों, किसी शारीरिक क्रिया में प्रकट नहीं भी हुई हों; किन्तु उनकी मन में उपस्थिति और बना हुआ स्थान ही मनुष्य को परमेश्वर की दृष्टि में “पापी” ठहराने के लिए पर्याप्त है।
पाप के परिणाम
* पवित्र, निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति नहीं कर सकता है।
* पाप परमेश्वर और मनुष्य में दीवार ले आता है, परस्पर संगति को तोड़ देता है।
* पाप मनुष्यों में मृत्यु, अर्थात, मानवीय क्षमताओं और संदर्भ में, एक अपरिवर्तनीय बिछड़ जाना ले आता है। आत्मिक रीति से, मनुष्य परमेश्वर से पाप करते ही बिछड़ गया; और शारीरिक रीति से उसी दिन से उसका शरीर क्षय होना आरंभ हो गया, और अन्ततः मर गया। मृत्यु की यही दशा प्रथम मनुष्यों से उनकी संतानों में भी आई, और आज भी विद्यमान है। इसी समस्या का निवारण परमेश्वर ने प्रभु यीशु में होकर समस्त मानव जाति को उपलब्ध करवाया है।
उद्धार और संबंधित बातें
* ‘उद्धार’ या ‘बचाव’ का अर्थ होता है “किसी खतरे अथवा हानि से सुरक्षा मिलना”; अर्थात उद्धार दिए जाने का अर्थ है बचाया जाना, सुरक्षित कर दिया जाना।
* उद्धार हमेशा परमेश्वर की ओर से दिया जाता है; कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी रीति से परमेश्वर के उद्धार को कमा नहीं सकता है; अपने किसी भी प्रयास से अपने आप को उद्धार प्राप्त करने का अधिकारी अथवा योग्य नहीं कर सकता है; अर्थात, अपने आप को स्वर्ग में प्रवेश और निवास के योग्य शुद्ध और पवित्र नहीं कर सकता है।
* परमेश्वर का समाधान, मनुष्य के स्वेच्छा तथा सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति संपूर्ण विश्वास रखने, और अपने इस विश्वास पर आधारित परमेश्वर की सम्पूर्ण आज्ञाकारिता एवं समर्पण के साथ उसकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने के निर्णय कर लेने पर निर्भर है।
* इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य को केवल परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए समाधान को अपने जीवन में कार्यान्वित करना है; उसमें अपनी कोई बात, योजना, विधि आदि नहीं सम्मिलित करनी है, और न ही किसी अन्य मनुष्य की मध्यस्थता अथवा योगदान को सम्मिलित करना है।
* यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?
** किस से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं। प्रभु यीशु मसीह हमें पाप के प्रभावों से मुक्त कर के “पवित्र, निष्कलंक, निर्दोष, बेदाग और बेझुर्री” बनाकर अपने साथ, अपनी कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों के कुल समुदाय को, अपनी दुल्हन बनाकर खड़ा करना चाहता है (इफिसियों 5:25-27)।
** क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हम सभी मनुष्यों से अभी भी, हमारी पाप में पतित दशा में भी प्रेम करता है, हमारे साथ संगति में रखना चाहता है, चाहता है कि हम उस से मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13) और स्वर्ग के वारिस बन जाएं। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है।
* व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?
** पाप और उद्धार से संबंधित चर्चा के इस महत्वपूर्ण दूसरे प्रश्न का निष्कर्ष है कि पाप का समाधान और उद्धार किसी धर्म के कार्य अथवा धर्म के निर्वाह के द्वारा नहीं है; न ही यह किसी धर्म विशेष की बात है; और न ही पैतृक अथवा वंशागत है।
** यह केवल और केवल हर व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से पापों के लिए पश्चाताप करने तथा प्रभु यीशु मसीह में विश्वास और समर्पण के द्वारा है। प्रत्येक व्यक्ति को, वह चाहे किसी भी धर्म को मानता और निभाता हो, अपने पापों के लिए स्वयं पश्चाताप करना होगा, उनके लिए स्वयं प्रभु यीशु से क्षमा माँगनी होगी, स्वयं ही अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करना होगा, उसका आज्ञाकारी शिष्य बनने का स्वयं ही निर्णय लेना होगा।
* तीन व्यक्तियों, नीकुदेमुस, धनी जवान धर्मी अधिकारी, और पौलुस के जीवन दिखाते हैं कि धर्म का निर्वाह, परमेश्वर के वचन का मनुष्यों एवं अपनी समझ से प्राप्त किया गया ज्ञान, धार्मिक कार्य, धार्मिक उन्माद, धार्मिकता के द्वारा समाज में उच्च और प्रतिष्ठित होना, आदि, कुछ भी मनुष्य को परमेश्वर के सामने धर्मी और स्वीकार्य, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए योग्य नहीं बनाता है। यह केवल नया जन्म पा लेने, अर्थात, प्रत्येक मनुष्य के स्वेच्छा और सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करके अपना जीवन उसे समर्पित करने, उसकी आज्ञाकारिता में, उसकी शिष्यता में आ जाने के द्वारा ही है; उद्धार का यही एक मात्र मार्ग है।
यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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Understanding Sin and Salvation – 12
The Solution For Sin - Salvation - 9 - A Review
In the past few articles, we have been looking about sin and its solution - salvation, from God’s Word the Bible. We have been considering the teachings related to salvation from the Bible, under three important questions. These questions are:
* This salvation, or being saved, or made secure, is from what and why?
* How can a person obtain this salvation?
* Why was it so necessary that to provide this, the Lord Jesus had to leave heaven and come down to earth to be sacrificed?
So far, we have considered the first two questions according to the teachings of the Bible and seen their conclusions. We have also seen the examples of three people, who were religious, very knowledgeable about the Word of God, and scholars; had a high position in the society, and had learnt from their own lives that despite all their religiosity and knowledge, they did not qualify to be acceptable to God; their own conscience used to trouble them about this state of their lives. Now, we will be considering the third question - the Lord Jesus's coming as the solution; but before we start considering this most important of the three important questions, it would be helpful to review and remind ourselves of the things we have seen so far. This recollection of Biblical facts from the preceding articles will help us to avoid confusion, and understand better, why God had to come down to earth as a common man, and sacrifice Himself for the sins of the entire mankind.
What is Sin
* According to the Bible, the definition and explanation of what sin is, is not by the concepts of any person; but God Himself has stated this for us. What God has said and established, eventually, only that will be followed, everything and everyone will be examined and evaluated only according to that, and every decision will be taken based upon that. (John 12:48; 1 Corinthians 3:11-13).
* God has said that sin is not just some physical deeds; rather, basically it is the disobedience of God’s Law and His instructions (1 John 3:4). Any unrighteousness is sin (1 John 5:17), whatever be the purpose or circumstances of having committed it.
* The Bible teaches that being in sin is a state of the mind. Every kind of sin begins and grows in the mind, and at an appropriate time, in opportune circumstances, it manifests as physical deeds (James 1:14-15; Mark 7:20-23). Therefore, in the eyes of God, the sins committed in thoughts, in the mind, are just as punishable, as those done physically (Matthew 5:22, 28).
* Therefore, in the eyes of God, all those thoughts, emotions, attitudes, tendencies, deeds, view-points etc. are sin, which are not correct or acceptable according to the standards and instructions of righteousness given by God. Even though these things might still be in the mind, may have not been practically committed or physically manifested; but their residing in and occupying the mind of a person is sufficient in the eyes of God to treat it as sin having a place in that person’s life.
Effects of Sin
* The pure and Holy God cannot fellowship with sin.
* Sin creates a barrier between God and man, and breaks their fellowship.
* Sin brings death, i.e., a humanly irreversible separation. Man was separated from God spiritually, the moment he first sinned; and physically, from that moment he gradually started to wear away and come to an end, i.e., eventually end up in physical death as well. This condition of death came into the first humans, and since then is being passed on to every generation. The Lord Jesus has provided the solution to this very problem for the whole of mankind.
Salvation and Related Things
* The term “salvation” or being “saved” means to be delivered from and made secure from some harm; i.e., to be saved or receiving salvation means to be delivered and made secure.
* Salvation is always given by God; no person can ever, through any means, earn salvation from God. No one can make himself qualified by any of his efforts to earn his salvation, i.e., qualify himself and make himself sufficiently pure and holy to be able to enter heaven, the abode of God.
* God’s solution for this problem is that man voluntarily and sincerely come to fully believe in God, and based on this belief subject himself to complete obedience to God and submit himself into God’s hands, to live in obedience to Him.
* In this whole process, man only has to personally implement in his life the God-given solution; he is not to add any of his own thoughts, plans, works etc. into the God-given solution; and neither is he to involve any other person in fulfilling the way given by God.
* From what and why, is this salvation, or being saved or made secure to be done?
** From What - Salvation or being saved is from the harmful and destructive effects of sin, because of which man has come into the state of spiritual and physical death; and of living in fear, pride, guilt, shame, separation from God, the tendency to hide own faults and accuse others or hold others responsible for his errors; the attitude of disregarding God, His Laws, and His grace, etc., have all come into man. The Lord Jesus delivers us from the effects of sin, to make us, His Bride, His Church i.e., the universal group of Believers, and makes us “holy, blameless, without any blemish, spot, or wrinkle” to stand by His side (Ephesians 5:25-27).
** Why - Because our creator God loves us all, even now, when we are in our fallen condition of sin. He still wants to have fellowship with us, He desires that we be reconciled with Him, and accept the status of being His children (John 1:12-13) and the inheritors of heaven.
* How can a person receive this salvation from God?
** The conclusion of the second important question about sin and salvation is that the problem of sin cannot be solved and salvation cannot be attained or obtained through any religion, religious works, or fulfilling religious rites and rituals. Neither do salvation and solution to sin belong to any particular religion, nor is it inherited by the followers of any religion or faith.
** This is only and only possible by a personal repentance for sins and coming into faith in the Lord Jesus, submitting one’s life in to His hands. Every person, no matter what religion he believes in and lives by, will have to voluntarily repent of his sins, ask the Lord Jesus to forgive his sins, voluntarily submit his life to the Lord Jesus, and decide to become His obedient disciple.
* We have seen from the examples of the lives of three people, Nicodemus, the Rich Young Ruler, and Paul how knowledge, religion, fulfilling of religious rites and rituals, religious works, attaining a high position in society by virtue of religion etc., could not make them acceptable to God even in their own eyes. On the other hand, their understanding of God’s Word through the teachings of men and their own knowledge about God and His Word, had made them proud, vain, fanatics, even persecutors of others, and blind to the truths of God’s Word. All of this in their lives was reversed only after they accepted being Born Again, i.e., voluntarily repenting of their sins, accepting the Lord Jesus as their personal savior, submitting themselves into His discipleship and striving to live in obedience to Him. This is the one and only way to salvation.
Please examine and evaluate your own life. Have you also, in the name of religion and righteousness through religious works, become opponents and persecutors of men, and blasphemers of the Lord God? By coming into the true understanding of the Lord Jesus, by accepting Him as your Lord, your attitude and behavior will be totally transformed. You will get a new and true understanding of God’s Word, you will become a cause of praising and glorifying God, instead of dishonoring Him; you will become His witness for the world. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
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