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प्रभु की मेज़ - परमेश्वर के वचन को सही समय और स्थान देने की यादगारी
पिछले लेख में हमने यूहन्ना 13 से देखा था कि प्रभु यीशु ने पहले करके दिखाया और उसके बाद शिष्यों को दीनता और सेवा - यदि आवश्यक हो तो औरों के पाँव भी धोने का पाठ पढ़ाया; अर्थात पहले अपने जीवन में उसे करना उसके बाद किसी से कहना और सिखाना। प्रभु ने इस बात के अंत में कहा, “तुम तो ये बातें जानते हो, और यदि उन पर चलो, तो धन्य हो” (यूहन्ना 13:17)। दूसरे शब्दों में, शिष्य का धन्य होना उसकी परमेश्वर के वचन तथा प्रभु की शिक्षाओं की जानकारी पर निर्भर नहीं है, परंतु प्रभु के उदाहरणों और निर्देशों का पालन करने के द्वारा है। इस बात को बाद में प्रभु के भाई याकूब ने भी अपनी पत्री में कहा तथा इसकी पुष्टि की (याकूब 1:22-25)। जब हम यूहन्ना 13 को पढ़ते हैं, तब यह प्रकट है कि जब प्रभु ने शिष्यों के पाँव धोए, तब उसने यहूदा इस्करियोती के पाँव भी धोए। क्योंकि प्रभु यीशु यहूदा की वास्तविकता को जानते थे, कुछ ही समय के बाद उसे “विनाश का पुत्र” कहकर संबोधित करने वाले थे (यूहन्ना 17:12), इसलिए स्वाभाविक है कि यूहन्ना 13:17 की प्रतिज्ञा यहूदा के लिए नहीं थी। इसीलिए, प्रभु ने उसे तुरन्त ही स्पष्ट भी कर दिया (यूहन्ना 13:18-19)। प्रभु को अंदेशा था कि बाद में जब शिष्य जो कुछ हुआ उस पर विचार और मनन करेंगे, तब अवश्य ही इस बात पर सोचेंगे कि क्या प्रभु को यहूदा की वास्तविकता का पता था अथवा नहीं? और यदि पता था, तो फिर प्रभु ने उसे क्यों चुना और उसे उनके साथ प्रेरित ठहराया (देखिए मरकुस 3:13-19 तथा लूका 6:13)? शैतान इस बात को शिष्यों के मनों में संदेह उत्पन्न करने के लिए प्रयोग कर सकता था कि क्या यीशु वास्तव में प्रभु और परमेश्वर है? यह न केवल उन तत्कालीन शिष्यों के लिए था, वरन उनके लिए भी जो आने वाले दिनों और समयों में उसके शिष्य बनेंगे।
प्रभु यीशु ने इस बात को चार बातों को कहने के द्वारा स्पष्ट किया (तीन पद 18 में और एक पद 19 में): पहली, वह सभी शिष्यों के आशीषित होने की बात नहीं कह रहा था। दूसरी, जिन्हें उसने चुना था, वह उन्हें जानता था और उनमें यहूदा का सम्मिलित होना किसी धोखे में आकर या अनजाने में किया गया कार्य नहीं था, किन्तु एक उद्देश्य के साथ किया गया था। तीसरी, यहूदा को पवित्र शास्त्र की बात को पूरा करने के लिए चुना गया था, भजन 41:9 की भविष्यवाणी को पूरा करने के लिए। चौथी, बाद में जब वे शिष्य इन बातों पर विचार और मनन करेंगे, तो ये सभी बातें प्रभु के दावों की पुष्टि करेंगे, कि वो कौन है; उन शिष्यों को आश्वस्त करेंगी कि प्रभु के पीछे चलने का निर्णय करके उन्होंने कुछ गलत नहीं किया। इस प्रकार से प्रभु ने पहले से ही शैतान द्वारा इन बातों और घटनाओं के दुरुपयोग करने और तत्कालीन तथा भावी शिष्यों को बहकाने की संभावना को समाप्त कर दिया।
पवित्र शास्त्र की बातों तथा उसके विषय की गई भविष्यवाणियों को पूरा करना प्रभु यीशु के पृथ्वी के जीवन और सेवकाई का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग थे। पृथ्वी पर आते समय प्रभु ने परमेश्वर पिता से कहा था कि वह पवित्र शास्त्र की बातों और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए आया है (इब्रानियों 10:5-7)। अपने शिष्यों से उसने कहा था कि उसके लिए परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना भोजन के समान है (यूहन्ना 4:34)। क्योंकि उसने सबत के दिन चंगा किया था, इसलिए उसका विरोध कर रहे और उसे जान से मार डालना चाह रहे यहूदियों से प्रभु ने कहा कि वह पृथ्वी पर केवल परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए ही आया है (यूहन्ना 5:30; पूरा खंड यूहन्ना 5:17-47 पढ़िए)। उसने क्रूस पर अपने प्राण तब ही त्यागे जब उसने यह सुनिश्चित कर लिया कि जो कुछ उसके बारे में लिखा गया था, वह सभी पूरा हो चुका है (यूहन्ना 19:28-30)। इसीलिए, पौलुस, पवित्र आत्मा के द्वारा, “सुसमाचार” की परिभाषा देते हुए 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में, दो बार, बल देकर वाक्यांश “पवित्र शास्त्र के अनुसार” का प्रयोग करता है। प्रभु यीशु के लिए परमेश्वर के वचन के अनुसार जीना और उसे पूरा करना सर्वोच्च प्राथमिकता की बात थी। यही उसके जीवन और सेवकाई का आधार था।
यह हम नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों, प्रभु यीशु के शिष्यों, के समक्ष अपने जीवनों को जाँचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात को रखता है - हमारे अपने जीवन में परमेश्वर के वचन का क्या स्थान है? हम परमेश्वर के वचन के साथ कितना समय और प्रयास लगाते हैं? हम परमेश्वर के वचन को औरों तक कितना पहुँचाते हैं? लेकिन साथ ही हमें प्रभु द्वारा यूहन्ना 13:7 में कही गई, तथा बाद में याकूब द्वारा दोहराई गई बात का भी ध्यान रखना है - वे नहीं जो परमेश्वर के वचन को जानते हैं, परंतु जो उसका पालन करते, उसका अनुसरण करते हैं, वे ही धन्य हैं। प्रभु की मेज़, प्रभु के जीवन को, तथा विशेषकर क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले उनके जीवन की इन अंतिम घटनाओं, निर्देशों, और वार्तालापों को याद करने के दृष्टिकोण से, मसीही जीवन और सेवकाई के बारे में हमें इस बहुत महत्वपूर्ण बात को याद दिलाती है; और परमेश्वर के वचन के हमारे जीवनों में वास्तविक स्थान से संबंधित सभी गलतियों और कमियों को समझने तथा सुधारने का अवसर हमारे सामने रखती है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
ज़कर्याह 9-12
प्रकाशितवाक्य 20
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The Lord’s Table - A Remembrance for Giving Proper Time & Place to God’s Word
In the previous article we had seen from John 13 that the Lord Jesus first demonstrated and then taught His disciples humility and serving others, even washing other’s feet if necessary, i.e., first practiced or demonstrated in His life, and then taught it. The Lord concluded by saying that “If you know these things, blessed are you if you do them” (John 13:17). In other words, it is not the disciple’s knowledge about the Word of God and Lord’s teachings, but obeying the Lord’s examples and instructions that makes him blessed. This was later affirmed by the Lord’s brother James in his Epistle, in James 1:22-25. As we read John 13, it is apparent that when the Lord washed the disciple’s feet, He washed the feet of Judas Iscariot as well. Since the Lord Jesus knew the reality of Judas, whom He addresses as “son of perdition” sometime later (John 17:12), it is obvious that the Lord’s promise of John 13:17 would not be applicable to Judas. Therefore, the Lord immediately clarifies about it (John 13:18-19). He had anticipated that later on as the disciples would think over all that happened, they would wonder whether or not the Lord knew about Judas; and if He did, then why did He allow him to be with them as an Apostle, giving him all the powers and abilities as He did to the others (see Mark 3:13-19 and Luke 6:13). Satan could use this to create doubts in the disciple’s hearts, about Jesus being Lord and God. This would be true not only for those disciples, but also for those who would believe on Him and become His disciples in the days and times to come.
The Lord Jesus clarifies by saying four things (three in verse 18 and one in verse 19): firstly, He was not speaking about all the disciples being blessed. Secondly, He knew the ones He had chosen and Judas’s inclusion with them was not inadvertent or accidental, it was deliberate, it was with a purpose. Thirdly, Judas was chosen to fulfill the Scriptures, the prophecy of Psalm 41:9. Fourthly, later on, as they ponder over these things, the happenings will serve to affirm His claim of being who He said He is; will assure them that they have not made any mistake in following Him. Thereby He nullified the possibilities of Satan misusing these events against Him, to misguide the disciples, those and the future ones.
Fulfilling the Scriptures and the prophecies about Him was an integral and very important part of the Lord’s earthly ministry. At the time of His coming to earth, the Lord had said to God the Father that He had come to earth to fulfill the Scriptures and do the will of God (Hebrews 10:5-7). To His disciples, He had likened His doing God’s will as His food (John 4:34). He said to the Jews opposing Him and wanting to kill Him for healing on a sabbath, that He was on earth to do God’s will (John 5:30; read 5:17-47). He only gave up His Spirit, after making sure that all things written about Him had been fulfilled (John 19:28-30). Therefore, Paul, through the Holy Spirit, in defining what the “Gospel” is, in 1 Corinthians 15:1-4, twice, pointedly, uses the term “according to the Scriptures.” Living by and fulfilling the Word of God was of paramount importance for the Lord Jesus. It was the very basis of His life and ministry.
This places before us, the Born-Again Christian Believers, the disciples of the Lord Jesus, a very important point to examine our lives - what place does God’s Word have in our lives? How much time and effort do we spend with God’s Word? How much do we spread the Word of God? But we should also remember what the Lord said in John 13:17, and James affirmed later - not those who hear and know God’s Word, but those who do it, those who obey and follow it - they are blessed. The Lord’s Table, as a remembrance of the life of the Lord and especially the remembrance of the last events and instructions and conversation of the Lord, before His being caught and taken for crucifixion, should make us ponder over this very important aspect of Christian living and ministry, and we should seriously endeavor to correct our deficiencies about the place of the Word of God in our lives.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Zechariah 9-12
Revelation 20
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