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प्रभु की मेज़ - परमेश्वर द्वारा दिए गए आदर और विशेष-अधिकारों की यादगारी
हम यूहन्ना 13 से प्रभु द्वारा फसह मनाते हुए, फसह की सामग्री से लेकर प्रभु भोज को स्थापित करने से ठीक पहले हुई बातों और घटनाओं को देख रहे हैं। पिछले लेख में हमने पद 18-19 से देखा था कि प्रभु यीशु के जीवन में परमेश्वर के वचन का पालन करने का क्या स्थान था; और इसी प्रकार से जो लोग प्रभु भोज में भाग लेते हैं उन्हें भी इस बात में प्रभु का अनुसरण करना है। साथ ही, यूहन्ना 13:19 में प्रभु वार्तालाप का ध्यान शिष्यों की भावी गतिविधि की ओर लेकर जाता है। अभी तक, यहाँ पर, यूहन्ना 13 में, प्रभु यीशु की शिष्यों के साथ फसह से संबंधित बातचीत में, शिष्यों की भावी सेवकाई का कोई उल्लेख नहीं हुआ था। किन्तु संभावित भावी घटनाओं के बारे में बात करते हुए, पद 19 में, प्रभु न केवल उन शिष्यों को आश्वस्त करता है कि वे घटनाएं भी उसके दावों की पुष्टि ही करेंगी; साथ ही प्रभु उन्हें उनके ओहदे और आशीषों के लिए भी आश्वस्त करता है। प्रभु जानता था कि उन्हें आने वाले दिनों में इन बातों का सदा ध्यान रखने की आवश्यकता पड़ेगी, जब वे सुसमाचार प्रचार के लिए संसार में निकलेंगे।
यहाँ, यूहन्ना 13:20 में, प्रभु शिष्यों से कोई नई बात नहीं कह रहा है। वह उन्हें यही बात तब भी कह चुका था जब उसने पहली बार उन्हें सेवकाई के लिए भेजा था (मत्ती 10:40-42)। इसके बाद भी अपनी सेवकाई के दौरान प्रभु ने शिष्यों को उनके ईश्वरीय अधिकार और सहारे की बात बताई थी (मरकुस 9:37; लूका 10:16; यूहन्ना 12:44-45)। अब, उसे पकड़ कर क्रूस पर मारे जाने के लिए ले जाए जाने से पहले, प्रभु फिर से उन्हें इस बात को याद दिला रहा है। इस अनुपम आदर और विशेषाधिकार के बारे में प्रभु द्वारा बारंबार शिष्यों को याद दिलाना, उनके लिए और उनके जीवनों में इन बातों के महत्व का सूचक है; और इस बात का भी कि प्रभु के लिए उनकी सेवकाई में भी इसे याद रखना बहुत आवश्यक तथा महत्वपूर्ण है। उन्हें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हें एक खतरनाक अभियान पर, बिना किसी अधिकार और सामर्थ्य के भेज दिया गया। वरन उनके पास तो सर्वाधिक सामर्थ्य और सृष्टि की सर्वोच्च सहायता और अधिकार है - स्वयं परमेश्वर से। इसलिए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य, परमेश्वर के लोग होकर जीने के लिए उन्हें कभी भी मनुष्यों से डरने और मनुष्यों के बनाए हुए नियमों के अधीन होने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु हमेशा ही कोई भी विशेषाधिकार और ओहदा, और सामर्थ्य बिना उससे जुड़ी हुई जिम्मेदारियों के नहीं मिलते हैं; साथ ही उन जिम्मेदारियों को भी लेना और निभाना पड़ता है। अपनी पृथ्वी की सेवकाई के आरंभिक समय में ही, अपने पहाड़ी उपदेश में, प्रभु ने अपने शिष्यों के सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनसे क्या आशा रखी गई है। उन बातों में से एक थी कि उन्हें “पृथ्वी के नमक” तथा “जगत की ज्योति” के समान जीना है जिससे लोग उनके स्वर्गीय पिता की महिमा करें (मत्ती 5:13-16)।
पौलुस प्रेरित ने, पवित्र आत्मा में होकर मसीही विश्वासियों को याद दिलाया कि वह तथा सभी विश्वासी “मसीह के राजदूत” हैं (2 कुरिन्थियों 5:20), और उन्हें प्रभु परमेश्वर की ओर से संसार के लोगों से प्रभु के लिए बोलना है। प्रेरित यूहन्ना ने लिखा “सो कोई यह कहता है, कि मैं उस में बना रहता हूं, उसे चाहिए कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था” (1 यूहन्ना 2:6)। प्रेरित पतरस ने अपने पाठकों को याद दिलाया कि परमेश्वर ने उन्हें कितना उच्च ओहदा और आदर प्रदान किया है “पर तुम एक चुना हुआ वंश, और राज-पदधारी याजकों का समाज, और पवित्र लोग, और परमेश्वर की निज प्रजा हो, इसलिये कि जिसने तुम्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करो” (1 पतरस 2:9); वे इसे हल्के में नहीं ले सकते थे, उनकी जिम्मेदारी थी कि “...जिसने तुम्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करो”। जैसा पतरस ने यहाँ पर कहा है और यूहन्ना ने प्रकाशितवाक्य 1:6 में कहा, प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, अर्थात प्रभु यीशु मसीह का प्रत्येक शिष्य, परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर के लिए याजक है। परमेश्वर के संदेशवाहक होने के नाते, उसके याजक की दो ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, “क्योंकि याजक को चाहिये कि वह अपने ओठों से ज्ञान की रक्षा करे, और लोग उसके मुंह से व्यवस्था पूछें, क्योंकि वह सेनाओं के यहोवा का दूत है” (मलाकी 2:7); पहली, उसे “ज्ञान की रक्षा” करनी है; और दूसरी, उसे लोगों को परमेश्वर की व्यवस्था, परमेश्वर के मार्ग सिखाने हैं।
इसलिए प्रभु की मेज़ में भाग लेने की तैयारी करते समय, उसमें सम्मिलित होने वाले प्रत्येक जन को अपनी तथा अपने मसीही जीवन की जाँच इन बातों के लिए कर लेनी चाहिए - प्रभु यीशु का शिष्य होने के नाते, क्या मैं उस ओहदे और विशेषाधिकार को याद रखता हूँ, उसका ध्यान रखता हूँ जो प्रभु परमेश्वर ने मुझे प्रदान किया है? उसके द्वारा प्रदान किए गए इस ओहदे और विशेषाधिकार के साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारियों का क्या मैं निर्वाह करता हूँ? क्या मैं मसीह के राजदूत, परमेश्वर के याजक, उच्च ओहदा पाए हुए लोग के समान कार्य कर रहा हूँ जिससे कि मेरे कारण लोग परमेश्वर की महिमा करें?
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
ज़कर्याह 13-14
प्रकाशितवाक्य 21
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The Lord’s Table - A Remembrance for Honoring God Given Status & Privileges
We are seeing the events immediately preceding the Lord’s establishing the Holy Communion from the Passover, using the elements of the Passover, from John 13. In the last article we saw from verses 18-19 the place in Lord Jesus’s life of going by the Word of God; and how the Lord’s Table should remind those partaking in it to emulate the Lord for this characteristic. In John 13:19, the Lord shifts the focus of conversation to something related to the future activities of the disciples. As yet, here in John 13, in the Lord’s conversation with the disciples related to the Passover there had been no allusion to the future ministry of the disciples. But talking of the possible future events, in verse 19, not only does the Lord reassure the disciples that those events will only reaffirm His claims about Himself, but also reassures them of their status and blessings. The Lord knew that they will need to keep them in mind in the days to come, when they step out into the world to preach the gospel.
Here, in John 13:20, the Lord is not saying anything new to the disciples. He had already said the same to them when He sent them out the first time for ministry (Matthew 10:40-42). He had reminded them of this divine authority and backing that they had as His disciples, during His earthly ministry as well (Mark 9:37; Luke 10:16; John 12:44-45). Now, just before His being caught and taken for death by crucifixion, He again reminds them of it. The Lord’s repeatedly reminding the disciples of this unique authority and privilege is an indicator of its importance in their lives, and the necessity of the disciples of the Lord always bearing it in mind, when working for the Lord. They should not think of themselves as being sent on a dangerous mission without any authority or backing; instead, they had the highest possible backing, and they had the authorization to fulfill their mission from the highest possible authority of the universe - God Himself. Therefore, they did not have to fear men or subject themselves to man-made regulations when living as the people of God, the disciples of the Lord Jesus. But privileges, status, and authority always come with responsibilities. Right in the initial stage of His earthly ministry, in His Sermon on the Mount, the Lord had made clear to His disciples, what was expected of them. One of the things they had to do was to serve as “salt of the earth” and “light of the world” so that through them the people of the world would glorify our Heavenly Father (Matthew 5:13-16).
The Apostle Paul, through the Holy Spirit reminds the Christian Believers that he and the Believers, all are “Ambassadors for Christ” (2 Corinthians 5:20), to speak on behalf of the Lord God to the people of the world. The Apostle John wrote “He who says he abides in Him ought himself also to walk just as He walked” (1 John 2:6). The Apostle Peter reminded his readers that God had given them a highly exalted status, “But you are a chosen generation, a royal priesthood, a holy nation, His own special people, that you may proclaim the praises of Him who called you out of darkness into His marvelous light” (1Peter 2:9); they could not take it lightly, but in accordance with that status and authority, they had to “...proclaim the praises of Him who called you out of darkness into His marvelous light.” As Peter has said here, and John says in Revelation 1:6, every Born-Again Christian Believer, i.e., every disciple of the Lord Jesus, in God’s eyes, is a priest for God. A priest, as the messenger of God, has two functions to fulfill “For the lips of a priest should keep knowledge, And people should seek the law from his mouth; For he is the messenger of the Lord of hosts” (Malachi 2:7); firstly he has to “keep knowledge”, i.e., guard or protect knowledge of God and His Word; and secondly, he should teach God’s law, God’s ways to the people.
Therefore, when preparing to partake of the Lord’s Table, every participant should examine himself, his Christian life and living for these things - as a disciple of the Lord Jesus, do I bear in mind the unique privilege and authority given to me by the Lord God? Do I fulfill God’s expectations from me in response to the privilege and authority He has bestowed upon me? Am I serving as God’s ambassador, as His priest, as people to whom He has accorded an exalted status so that they may glorify Him?
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Zechariah 13-14
Revelation 21
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