व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (12)
पुनःअवलोकन एवं निष्कर्ष
हम पिछले दो सप्ताह से भी अधिक समय से इस शृंखला “परमेश्वर की व्यवस्था हमें क्यों उद्धार नहीं दे सकती है”, से संबंधित विभिन्न बातों को देखते और उनका विश्लेषण करते हुए आ रहे हैं। इस आम धारणा की सच्चाई परखने के लिए कि भला मनुष्य ही परमेश्वर को स्वीकार्य हो सकता है, इसलिए मनुष्य को भला बनना चाहिए, हमने शृंखला का आरंभ यह देखने के साथ किया था कि भला क्या है, भला कौन है? हमने देखा कि भला होने और भलाई की परिभाषा, मनुष्य और संसार नहीं, केवल परमेश्वर ही निर्धारित करता है; और जो उसके अनुसार भला है, केवल वही उसे स्वीकार्य भी है। और उसने इससे संबंधित अपनी मनसा अपने वचन बाइबल में बता दी है। साथ ही हमने देखा था कि वास्तव में भला केवल परमेश्वर है; और मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से भला और परमेश्वर को स्वीकार्य हो ही नहीं सकता है। किन्तु हमने यह भी देखा है कि परमेश्वर मनुष्य को उसकी स्वाभाविक पापी दशा में ही, जैसा भी वो है, चाहे उसके पाप कितने भी अधिक हों कितने भी घोर और जघन्य क्यों न हों, स्वीकार करने, और उसे स्वयं पापों से शुद्ध करने, अपने राज्य में प्रवेश देने, अपनी संगति में बहाल करने के लिए सर्वदा तैयार है।
हमने यह भी देखा था कि व्यवस्था का पालन करने का अर्थ रीतियों, त्यौहारों, भेंट-बलिदानों आदि का परमेश्वर को चढ़ाना नहीं है। वरन व्यवस्था का पालन करने का अर्थ है परमेश्वर से सच्चा प्रेम करना, उसके प्रति पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी रहना, और अन्य मनुष्यों से भी अपने समान ही प्रेम करना (Matthew 22:35-40)। हमने संसार के इतिहास का एक बहुत संक्षिप्त अवलोकन करने के द्वारा समझा था कि चाहे स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाया हुआ मनुष्य हो, जो अपनी ही बनाई हुई नैतिकता और धार्मिकता की बातों का पालन करता है; या परमेश्वर की व्यवस्था और नैतिकता एवं धार्मिकता के जानकारी रखने वाले, और परमेश्वर के नबियों की अगुवाई प्राप्त करने वाले परमेश्वर के चुने हुए लोग हों; दोनों में से कोई भी परमेश्वर को स्वीकार्य नैतिकता और धार्मिकता के स्तर तक नहीं पहुँच सका है। जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था थी, वो भी उसका पालन करने में असमर्थ रहे हैं, और अन्ततः उन लोगों के समान ही परमेश्वर को अस्वीकार्य रहे हैं, जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था नहीं थी।
फिर हमने व्यवस्था पालन के लिए मनुष्य की इस दुर्बलता को देखना आरंभ किया, और समझा था कि मनुष्य अपनी सृष्टि से ही शैतान और उसके दूतों से कम स्तर का है। साथ ही, पाप में गिरने और स्वर्ग से निकाले जाने से पहले शैतान सर्वोच्च स्वर्गदूत था। क्योंकि परमेश्वर अपने दिए हुए अधिकार और वरदान किसी से वापस नहीं लेता है, इसलिए आज भी शैतान और उसके दूत, मनुष्य से अधिक सामर्थी और बुद्धिमान हैं। इसीलिए वे मनुष्यों को अपनी कुटिलता में फँसा कर पाप में गिरा देते हैं। किन्तु जो मनुष्य परमेश्वर को समर्पित होकर, परमेश्वर की आज्ञाकारिता में, उसके वचन और उसकी विधि के अनुसार शैतान का सामना करता है, वह शैतान पर और उसकी युक्तियों पर जयवन्त भी होता है। और क्योंकि शैतान ने कुटिलता से, अनैतिक रीति से मनुष्यों को पाप में गिराया है, इसीलिए परमेश्वर ने, जो खरा और सच्चा न्यायी है, पक्षपात नहीं करता है, सभी मनुष्यों को पापों से पश्चाताप करने की आज्ञा दी है जिससे परमेश्वर के साथ उनके संबंध बहाल हो जाएं। क्योंकि वह जानता है कि मनुष्य किसी भी “व्यवस्था” के पालन से, वह “व्यवस्था” चाहे परमेश्वर की दी हुई हो, या मनुष्यों की बनाई हुई हो, पापों से छुटकारा नहीं पा सकता है। यह छुटकारा केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा दिए गए बलिदान, उसके काम से ही संभव है। इसीलिए वह सभी को समान अवसर और आज्ञा देकर पापों के दण्ड से बचने का पूरा अवसर दे रहा है।
फिर हमने व्यवस्था के उद्देश्य, उसकी सीमाओं को भी देखा था, और समझा था कि व्यवस्था मनुष्य को पाप की पहचान करवा सकती है; उसे पाप करने का दोषी ठहरा सकती है; किन्तु पाप से बचने का मार्ग नहीं दे सकती है, और न ही पाप करने से रोक सकती है। हमने यह भी देखा था कि व्यवस्था परमेश्वर द्वारा दिया गया उसकी धार्मिकता को समझने का एक पैमाना है, जिसके समक्ष हर बात को लाकर मनुष्य देख और समझ सकता है कि उस बात में वह परमेश्वर की धार्मिकता के स्तर के अनुसार कहाँ खड़ा है, उसकी अपनी धार्मिकता का स्तर क्या है। व्यवस्था पाप और धार्मिकता की पहचान करने के लिए है, पाप का समाधान करने और धर्मी बनाने के लिए नहीं। हमारे पापों का समाधान और हमें धर्मी बनाना तो पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास और उसे उद्धारकर्ता स्वीकार करने से है, अन्य किसी प्रकार से नहीं।
आज हम व्यवस्था के इस उद्देश्य को थोड़ा और गहराई से समझेंगे। संसार का पहला पाप परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता था; केवल एक बहुत साधारण सी आज्ञा - सारी वाटिका में से केवल एक वृक्ष के फल को मत खाना। और शैतान ने अपनी बातों के द्वारा मनुष्य को उस एक आज्ञा का पालन भी नहीं करने दिया, उससे भी गिरा दिया। और वह भी तब, जब अदन की वाटिका में मनुष्य निर्दोष और निष्पाप अवस्था में, अपनी पूरी आत्मिकता की दशा में था, परमेश्वर के साथ संगति रखता था, निःसंकोच बातचीत करता था।
प्रभु द्वारा कही गई दोनों सबसे महान आज्ञाओं के सामने, जो सारी व्यवस्था का आधार हैं (मत्ती 22:36-40), और निर्गमन में दी गई दस आज्ञाओं के सामने जो व्यवस्था का एक संक्षिप्त प्ररूप हैं, आदम और हव्वा को दी गई परमेश्वर की यह एक आज्ञा कुछ भी नहीं है। किन्तु मनुष्य शैतान की युक्तियों के सामने इस एक छोटी सी आज्ञा में भी टिक नहीं पाया, गिर गया, अनाज्ञाकारिता कर दी। तो फिर मनुष्य, जो अपनी सृष्टि और स्वाभाविक रचना में स्वर्गदूतों से कम है, जिन में से शैतान और उसके दूत निकल कर आए हैं, शैतान और उसके दूतों की कुटिलताओं का सामना कैसे करेगा? कैसे उनके सामने खड़ा रह सकेगा? अपनी सामर्थ्य और बुद्धि से परमेश्वर की संपूर्ण व्यवस्था का पूर्ण पालन कैसे करने पाएगा? और यह केवल कहने की बात नहीं है, सभी के प्रतिदिन के अनुभव की बात है कि शैतान और उसके दूत, सभी मनुष्यों को अपनी युक्तियों और धूर्तता में फँसा कर, प्रतिदिन अनेकों बार, मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पाप में गिराते रहते हैं। और जैसा हम देख चुके हैं, उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी भी पाप में गिरने से बचे हुए नहीं है; उन्हें भी बारंबार 1 यूहन्ना 1:9 का सहारा लेकर अपने पापों से निकलना पड़ता है। इसलिए यह कभी संभव ही नहीं हो सकता है कि मनुष्य व्यवस्था को अपनी सामर्थ्य से पूरा निभा सके; वह कहीं, किसी बात में या तो अनाज्ञाकारिता करेगा, या उससे कुछ निभाने से छूट ही जाएगा। और जैसा हम देख चुके हैं, व्यवस्था की माँग है कि यदि एक भी बात में चूक हुई, एक भी अनाज्ञाकारिता हुई, तो वह संपूर्ण व्यवस्था से चूकने, संपूर्ण की अनाज्ञाकारिता के समान समझा जाएगा।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यह प्रकट है कि व्यवस्था कभी भी, किसी भी रीति से मनुष्यों को उद्धार प्रदान नहीं कर सकती है। व्यवस्था उन्हें उनके पापों को दिखा सकती है, किन्तु उनके पापों का समाधान प्रदान नहीं कर सकती है। वह समाधान तो केवल प्रभु यीशु मसीह में ही है, उसके अतिरिक्त और कोई समाधान नहीं है।
यदि व्यवस्था इतनी असमर्थ है, तो आज हमारे मसीही विश्वास और मसीही विश्वास के जीवन में क्या उसकी कोई उपयोगिता है? इस प्रश्न को हम कल से देखना आरंभ करेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
न्यायियों 11-12
लूका 6:1-26
Why can't the law save us? (12)
Review and Conclusion
In this series, we've been looking at and analyzing various aspects of "Why God's Law Can't Save Us", for over two weeks now. To check the veracity of the common belief that only good persons can be acceptable to God, therefore, man must be good, we began the series by looking at what is good, who is good? We have seen that the definition of good and of being good is only by God, not by man or the world. And only that which is good according to God is acceptable to Him; and He has given His criteria related to this in His word the Bible. We also saw that it is only God who really is good. Man can never be good and acceptable to God through any of his efforts. But we have also seen that God is ever willing to accept man, even in his natural sinful state, just as he is, no matter how many and how heinous his sins may be. God is willing to accept, and cleanse the natural man, who comes to Him in repentance and submission, of his sins, and is willing to give him an entry into His kingdom, to be restore Him to his fellowship - only on God’s terms and conditions, not man’s.
We have also seen that keeping the Law does not mean fulfilling rituals, festivals, giving of offerings to God, etc. Rather, to obey the Law means to truly love God, to be completely devoted and obedient to Him, and to similarly love other human beings as well (Matthew 22:35-40). We understood by taking a very brief look at the history of the world that whether a natural, unregenerate, unsaved man, who follows the morality and righteousness of his own making; or whether God's chosen people, having knowledge of God's Law and His morality and righteousness, and being led by God's prophets; neither of them could reach the level of morality and righteousness acceptable to God. Those who had God's Law were unable to keep it, and ultimately were as unacceptable to God as those who did not have God's law.
Then we began to look at the reasons for man's weakness to keep God’s Law. We saw that man, from his creation itself, is inferior to Satan and his angels. Satan was the supreme angel before he fell into sin and was cast out of heaven along with other angels following him. Because God does not take away from anyone the authority and gifts He has given, Satan and his messengers are still more powerful and wiser than man. That is why they easily entrap human beings by their wickedness and make them fall into sin. But the man who, in submission to God, in obedience to God, confronts Satan according to God’s Word and His method, can overcome Satan and his tactics. And because Satan has brought men into committing sin through his deviousness, therefore God, who is the upright and true Judge, is impartial, commands all men to repent of their sins so that their relationship with God gets restored; since God knows that man cannot be redeemed of his sins by observing any "law", whether that "law" is given by God, or made by men. This redemption is possible only through the work of the sacrifice made by the Lord Jesus Christ. That is why he is giving equal opportunity and the command to all, to escape from the punishment of sins.
Then we also looked at the purpose of the Law, and its limitations; and understood that the Law can help man to recognize sin; can convict him of sinning; but it cannot give man a way to escape from sin, nor can it prevent him from committing sin. We also saw that the Law is a measure of God's standard of righteousness. By bringing everything before it for comparison, man can see and understand where he stands according to the standard of God's righteousness, what is the level of his morality? The Law is meant to identify sin and righteousness, not to remedy and solve the problem of sin. The solution of our sins and the way to make us righteous is only by repenting of our sins and by believing in the Lord Jesus Christ, accepting Him as Savior; there is no other way.
Today we will try to understand this purpose of the Law a little more deeply. The world's first sin was disobedience to God; disobedience of just one very simple commandment - don't eat the fruit of only one tree out of the whole garden. And Satan, through his deviousness, tricked man into disobeying even that one simple commandment, made him fall into sin. And that too, when in the Garden of Eden man was in an innocent and sinless state, in unblemished spirituality, fellowshipping with God, and talking freely with Him.
In comparison to the two greatest commandments, which are the basis of the whole Law (Matthew 22:36-40), as stated by the Lord, and in comparison to the Ten Commandments given by God in Exodus, which are a brief outline of God’s Law, this one simple commandment that God gave Adam and Eve in the Garden of Eden is nothing. But man could not stand up to Satan's tricks even in this one small command, fell in disobedience, and sinned. How then can man, be able to stand up to and confront the wickedness of Satan and his angels, since he is inferior in power and wisdom to the angels, from whom Satan and his angels have come? How will he be able to fully obey God's entire Law in his natural power and wisdom, he has been created in? And this is not just a matter of saying, it is a matter of everyday experience for all of us. We well know how Satan and his angels, by enticing all human beings through their devices and cunningness, makes them sin through wrongs committed in mind-thoughts-deeds-behavior, many times every day. And as we have seen, even the saved Christian is not safe from falling into sin; they too have to repeatedly be delivered from their sins by resorting to 1 John 1:9. So, there is no way man can ever fulfill the Law without falling short or disobeying it in any way. And, as we have seen, to disobey one thing of the Law, is the same as having disobeyed the whole Law. Hence man can never stand justified by the Law, because Satan will make sure he falls into disobedience in one way or another, at some time or the other.
With all this in mind, it is apparent that the Law can never, in any way, provide salvation to humans. The law can show them their sins, but cannot provide a solution for their sins. That solution is only in the Lord Jesus Christ, except for Him, there is no other solution.
If the law is so incapable, is it of any use in our Christian faith and Christian life today? We will start looking at this question from tomorrow onwards. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take a right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Judges 11-12
Luke 6:1-26