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गुरुवार, 31 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 17

  

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (12)

 

पुनःअवलोकन एवं निष्कर्ष 

 

हम पिछले दो सप्ताह से भी अधिक समय से इस शृंखला “परमेश्वर की व्यवस्था हमें क्यों उद्धार नहीं दे सकती है”, से संबंधित विभिन्न बातों को देखते और उनका विश्लेषण करते हुए आ रहे हैं। इस आम धारणा की सच्चाई परखने के लिए कि भला मनुष्य ही परमेश्वर को स्वीकार्य हो सकता है, इसलिए मनुष्य को भला बनना चाहिए, हमने शृंखला का आरंभ यह देखने के साथ किया था कि भला क्या है, भला कौन है? हमने देखा कि भला होने और भलाई की परिभाषा, मनुष्य और संसार नहीं, केवल परमेश्वर ही निर्धारित करता है; और जो उसके अनुसार भला है, केवल वही उसे स्वीकार्य भी है। और उसने इससे संबंधित अपनी मनसा अपने वचन बाइबल में बता दी है। साथ ही हमने देखा था कि वास्तव में भला केवल परमेश्वर है; और मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से भला और परमेश्वर को स्वीकार्य हो ही नहीं सकता है। किन्तु हमने यह भी देखा है कि परमेश्वर मनुष्य को उसकी स्वाभाविक पापी दशा में ही, जैसा भी वो है, चाहे उसके पाप कितने भी अधिक हों कितने भी घोर और जघन्य क्यों न हों, स्वीकार करने, और उसे स्वयं पापों से शुद्ध करने, अपने राज्य में प्रवेश देने, अपनी संगति में बहाल करने के लिए सर्वदा तैयार है। 

 

हमने यह भी देखा था कि व्यवस्था का पालन करने का अर्थ रीतियों, त्यौहारों, भेंट-बलिदानों आदि का परमेश्वर को चढ़ाना नहीं है। वरन व्यवस्था का पालन करने का अर्थ है परमेश्वर से सच्चा प्रेम करना, उसके प्रति पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी रहना, और अन्य मनुष्यों से भी अपने समान ही प्रेम करना (Matthew 22:35-40)। हमने संसार के इतिहास का एक बहुत संक्षिप्त अवलोकन करने के द्वारा समझा था कि चाहे स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाया हुआ मनुष्य हो, जो अपनी ही बनाई हुई नैतिकता और धार्मिकता की बातों का पालन करता है; या परमेश्वर की व्यवस्था और नैतिकता एवं धार्मिकता के जानकारी रखने वाले, और परमेश्वर के नबियों की अगुवाई प्राप्त करने वाले परमेश्वर के चुने हुए लोग हों; दोनों में से कोई भी परमेश्वर को स्वीकार्य नैतिकता और धार्मिकता के स्तर तक नहीं पहुँच सका है। जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था थी, वो भी उसका पालन करने में असमर्थ रहे हैं, और अन्ततः उन लोगों के समान ही परमेश्वर को अस्वीकार्य रहे हैं, जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था नहीं थी। 


फिर हमने व्यवस्था पालन के लिए मनुष्य की इस दुर्बलता को देखना आरंभ किया, और समझा था कि मनुष्य अपनी सृष्टि से ही शैतान और उसके दूतों से कम स्तर का है। साथ ही, पाप में गिरने और स्वर्ग से निकाले जाने से पहले शैतान सर्वोच्च स्वर्गदूत था। क्योंकि परमेश्वर अपने दिए हुए अधिकार और वरदान किसी से वापस नहीं लेता है, इसलिए आज भी शैतान और उसके दूत, मनुष्य से अधिक सामर्थी और बुद्धिमान हैं। इसीलिए वे मनुष्यों को अपनी कुटिलता में फँसा कर पाप में गिरा देते हैं। किन्तु जो मनुष्य परमेश्वर को समर्पित होकर, परमेश्वर की आज्ञाकारिता में, उसके वचन और उसकी विधि के अनुसार शैतान का सामना करता है, वह शैतान पर और उसकी युक्तियों पर जयवन्त भी होता है। और क्योंकि शैतान ने कुटिलता से, अनैतिक रीति से मनुष्यों को पाप में गिराया है, इसीलिए परमेश्वर ने, जो खरा और सच्चा न्यायी है, पक्षपात नहीं करता है, सभी मनुष्यों को पापों से पश्चाताप करने की आज्ञा दी है जिससे परमेश्वर के साथ उनके संबंध बहाल हो जाएं। क्योंकि वह जानता है कि मनुष्य किसी भी “व्यवस्था” के पालन से, वह “व्यवस्था” चाहे परमेश्वर की दी हुई हो, या मनुष्यों की बनाई हुई हो, पापों से छुटकारा नहीं पा सकता है। यह छुटकारा केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा दिए गए बलिदान, उसके काम से ही संभव है। इसीलिए वह सभी को समान अवसर और आज्ञा देकर पापों के दण्ड से बचने का पूरा अवसर दे रहा है। 


फिर हमने व्यवस्था के उद्देश्य, उसकी सीमाओं को भी देखा था, और समझा था कि व्यवस्था मनुष्य को पाप की पहचान करवा सकती है; उसे पाप करने का दोषी ठहरा सकती है; किन्तु पाप से बचने का मार्ग नहीं दे सकती है, और न ही पाप करने से रोक सकती है। हमने यह भी देखा था कि व्यवस्था परमेश्वर द्वारा दिया गया उसकी धार्मिकता को समझने का एक पैमाना है, जिसके समक्ष हर बात को लाकर मनुष्य देख और समझ सकता है कि उस बात में वह परमेश्वर की धार्मिकता के स्तर के अनुसार कहाँ खड़ा है, उसकी अपनी धार्मिकता का स्तर क्या है। व्यवस्था पाप और धार्मिकता की पहचान करने के लिए है, पाप का समाधान करने और धर्मी बनाने के लिए नहीं। हमारे पापों का समाधान और हमें धर्मी बनाना तो पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास और उसे उद्धारकर्ता स्वीकार करने से है, अन्य किसी प्रकार से नहीं। 


आज हम व्यवस्था के इस उद्देश्य को थोड़ा और गहराई से समझेंगे। संसार का पहला पाप परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता था; केवल एक बहुत साधारण सी आज्ञा - सारी वाटिका में से केवल एक वृक्ष के फल को मत खाना। और शैतान ने अपनी बातों के द्वारा मनुष्य को उस एक आज्ञा का पालन भी नहीं करने दिया, उससे भी गिरा दिया। और वह भी तब, जब अदन की वाटिका में मनुष्य निर्दोष और निष्पाप अवस्था में, अपनी पूरी आत्मिकता की दशा में था, परमेश्वर के साथ संगति रखता था, निःसंकोच बातचीत करता था। 


प्रभु द्वारा कही गई दोनों सबसे महान आज्ञाओं के सामने, जो सारी व्यवस्था का आधार हैं (मत्ती 22:36-40), और निर्गमन में दी गई दस आज्ञाओं के सामने जो व्यवस्था का एक संक्षिप्त प्ररूप हैं, आदम और हव्वा को दी गई परमेश्वर की यह एक आज्ञा कुछ भी नहीं है। किन्तु मनुष्य शैतान की युक्तियों के सामने इस एक छोटी सी आज्ञा में भी टिक नहीं पाया, गिर गया, अनाज्ञाकारिता कर दी। तो फिर मनुष्य, जो अपनी सृष्टि और स्वाभाविक रचना में स्वर्गदूतों से कम है, जिन में से शैतान और उसके दूत निकल कर आए हैं, शैतान और उसके दूतों की कुटिलताओं का सामना कैसे करेगा? कैसे उनके सामने खड़ा रह सकेगा? अपनी सामर्थ्य और बुद्धि से परमेश्वर की संपूर्ण व्यवस्था का पूर्ण पालन कैसे करने पाएगा? और यह केवल कहने की बात नहीं है, सभी के प्रतिदिन के अनुभव की बात है कि शैतान और उसके दूत, सभी मनुष्यों को अपनी युक्तियों और धूर्तता में फँसा कर, प्रतिदिन अनेकों बार, मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पाप में गिराते रहते हैं। और जैसा हम देख चुके हैं, उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी भी पाप में गिरने से बचे हुए नहीं है; उन्हें भी बारंबार 1 यूहन्ना 1:9 का सहारा लेकर अपने पापों से निकलना पड़ता है। इसलिए यह कभी संभव ही नहीं हो सकता है कि मनुष्य व्यवस्था को अपनी सामर्थ्य से पूरा निभा सके; वह कहीं, किसी बात में या तो अनाज्ञाकारिता करेगा, या उससे कुछ निभाने से छूट ही जाएगा। और जैसा हम देख चुके हैं, व्यवस्था की माँग है कि यदि एक भी बात में चूक हुई, एक भी अनाज्ञाकारिता हुई, तो वह संपूर्ण व्यवस्था से चूकने, संपूर्ण की अनाज्ञाकारिता के समान समझा जाएगा। 


इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यह प्रकट है कि व्यवस्था कभी भी, किसी भी रीति से मनुष्यों को उद्धार प्रदान नहीं कर सकती है। व्यवस्था उन्हें उनके पापों को दिखा सकती है, किन्तु उनके पापों का समाधान प्रदान नहीं कर सकती है। वह समाधान तो केवल प्रभु यीशु मसीह में ही है, उसके अतिरिक्त और कोई समाधान नहीं है। 


यदि व्यवस्था इतनी असमर्थ है, तो आज हमारे मसीही विश्वास और मसीही विश्वास के जीवन में क्या उसकी कोई उपयोगिता है? इस प्रश्न को हम कल से देखना आरंभ करेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।

   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 11-12   

  • लूका 6:1-26     

 
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Why can't the law save us? (12)

Review and Conclusion

 

In this series, we've been looking at and analyzing various aspects of "Why God's Law Can't Save Us", for over two weeks now. To check the veracity of the common belief that only good persons can be acceptable to God, therefore, man must be good, we began the series by looking at what is good, who is good? We have seen that the definition of good and of being good is only by God, not by man or the world. And only that which is good according to God is acceptable to Him; and He has given His criteria related to this in His word the Bible. We also saw that it is only God who really is good. Man can never be good and acceptable to God through any of his efforts. But we have also seen that God is ever willing to accept man, even in his natural sinful state, just as he is, no matter how many and how heinous his sins may be. God is willing to accept, and cleanse the natural man, who comes to Him in repentance and submission, of his sins, and is willing to give him an entry into His kingdom, to be restore Him to his fellowship - only on God’s terms and conditions, not man’s.

 

We have also seen that keeping the Law does not mean fulfilling rituals, festivals, giving of offerings to God, etc. Rather, to obey the Law means to truly love God, to be completely devoted and obedient to Him, and to similarly love other human beings as well (Matthew 22:35-40). We understood by taking a very brief look at the history of the world that whether a natural, unregenerate, unsaved man, who follows the morality and righteousness of his own making; or whether God's chosen people, having knowledge of God's Law and His morality and righteousness, and being led by God's prophets; neither of them could reach the level of morality and righteousness acceptable to God. Those who had God's Law were unable to keep it, and ultimately were as unacceptable to God as those who did not have God's law.

 

Then we began to look at the reasons for man's weakness to keep God’s Law. We saw that man, from his creation itself, is inferior to Satan and his angels. Satan was the supreme angel before he fell into sin and was cast out of heaven along with other angels following him. Because God does not take away from anyone the authority and gifts He has given, Satan and his messengers are still more powerful and wiser than man. That is why they easily entrap human beings by their wickedness and make them fall into sin. But the man who, in submission to God, in obedience to God, confronts Satan according to God’s Word and His method, can overcome Satan and his tactics. And because Satan has brought men into committing sin through his deviousness, therefore God, who is the upright and true Judge, is impartial, commands all men to repent of their sins so that their relationship with God gets restored; since God knows that man cannot be redeemed of his sins by observing any "law", whether that "law" is given by God, or made by men. This redemption is possible only through the work of the sacrifice made by the Lord Jesus Christ. That is why he is giving equal opportunity and the command to all, to escape from the punishment of sins.

 

Then we also looked at the purpose of the Law, and its limitations; and understood that the Law can help man to recognize sin; can convict him of sinning; but it cannot give man a way to escape from sin, nor can it prevent him from committing sin. We also saw that the Law is a measure of God's standard of righteousness. By bringing everything before it for comparison, man can see and understand where he stands according to the standard of God's righteousness, what is the level of his morality? The Law is meant to identify sin and righteousness, not to remedy and solve the problem of sin. The solution of our sins and the way to make us righteous is only by repenting of our sins and by believing in the Lord Jesus Christ, accepting Him as Savior; there is no other way.

 

Today we will try to understand this purpose of the Law a little more deeply. The world's first sin was disobedience to God; disobedience of just one very simple commandment - don't eat the fruit of only one tree out of the whole garden. And Satan, through his deviousness, tricked man into disobeying even that one simple commandment, made him fall into sin. And that too, when in the Garden of Eden man was in an innocent and sinless state, in unblemished spirituality, fellowshipping with God, and talking freely with Him.

 

In comparison to the two greatest commandments, which are the basis of the whole Law (Matthew 22:36-40), as stated by the Lord, and in comparison to the Ten Commandments given by God in Exodus, which are a brief outline of God’s Law, this one simple commandment that God gave Adam and Eve in the Garden of Eden is nothing. But man could not stand up to Satan's tricks even in this one small command, fell in disobedience, and sinned. How then can man, be able to stand up to and confront the wickedness of Satan and his angels, since he is inferior in power and wisdom to the angels, from whom Satan and his angels have come? How will he be able to fully obey God's entire Law in his natural power and wisdom, he has been created in? And this is not just a matter of saying, it is a matter of everyday experience for all of us. We well know how Satan and his angels, by enticing all human beings through their devices and cunningness, makes them sin through wrongs committed in mind-thoughts-deeds-behavior, many times every day. And as we have seen, even the saved Christian is not safe from falling into sin; they too have to repeatedly be delivered from their sins by resorting to 1 John 1:9. So, there is no way man can ever fulfill the Law without falling short or disobeying it in any way. And, as we have seen, to disobey one thing of the Law, is the same as having disobeyed the whole Law. Hence man can never stand justified by the Law, because Satan will make sure he falls into disobedience in one way or another, at some time or the other.

 

With all this in mind, it is apparent that the Law can never, in any way, provide salvation to humans. The law can show them their sins, but cannot provide a solution for their sins. That solution is only in the Lord Jesus Christ, except for Him, there is no other solution.

 

If the law is so incapable, is it of any use in our Christian faith and Christian life today? We will start looking at this question from tomorrow onwards. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take a right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

 

Read the Bible in a Year:

  • Judges 11-12

  • Luke 6:1-26


बुधवार, 30 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 16

    

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (11)

 

व्यवस्था की अपनी अनिवार्य माँग

 

पिछले कुछ लेखों में व्यवस्था की सीमाओं और फिर व्यवस्था के उद्देश्यों को देखने के बाद, हमने पिछले लेख के समापन पर व्यवस्था की एक बड़ी माँग का उल्लेख किया था, जो उसके उद्धार या पापों की क्षमा ने दे पाने का एक और भी कारण है।


व्यवस्था के अनुसार चलने और जीने के लिए दो बड़ी कठिन शर्तें हैं:

  • गलातियों 3:10 सो जितने लोग व्यवस्था के कामों पर भरोसा रखते हैं, वे सब श्राप के आधीन हैं, क्योंकि लिखा है, कि जो कोई व्यवस्था की पुस्‍तक में लिखी हुई सब बातों के करने में स्थिर नहीं रहता, वह श्रापित है

  • याकूब 2:10 क्योंकि जो कोई सारी व्यवस्था का पालन करता है परन्तु एक ही बात में चूक जाए तो वह सब बातों में दोषी ठहरा


अर्थात यदि व्यवस्था का पालन होना है तो उसकी संपूर्णता में, बिना किसी एक भी बात में चूके हुए होना है। यदि एक भी बात में चूके तो, पूरी व्यवस्था में चूके, और पूरी व्यवस्था के दोषी माने जाएंगे। और हम पहले देख चुके हैं कि पाप मनुष्य में बसा हुआ है, यहाँ तक कि उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासियों से भी बहुधा पाप होता ही रहता है (रोमियों 7:15-20, याकूब 3:1-2, 1 यूहन्ना 1:8-10)। तो तात्पर्य प्रकट है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य से, मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पाप, अर्थात व्यवस्था का उल्लंघन होता ही रहता है, इसलिए कोई भी मनुष्य कभी व्यवस्था का उसकी संपूर्णता में, उस खराई से जो उसके पालन करने के लिए चाहिए, कभी पालन नहीं करने पाया है। इसे एक सामान्य उदाहरण से समझिए; आप घर से बाहर बिलकुल साफ कपड़े पहन कर निकलते हैं, और बाहर सड़क पर चल रहे किसी वाहन से कीचड़ उछलती है, और कुछ छीटें आपके कपड़ों पर इधर-उधर गिर जाते हैं। आपके शेष सभी वस्त्र साफ हैं, केवल गंदगी की कुछ छीटें ही इधर-उधर लगी हैं, किन्तु फिर भी पूरे वस्त्र ही गंदे माने जाएंगे, बदले जाएंगे, और धोए जाएंगे। इसी प्रकार एक भी बात में व्यवस्था का दोषी होना, पूरे चरित्र पर “दोषी” का लेबल लगा देता है, व्यवस्था की धार्मिकता और शुद्धता के अयोग्य ठहरा देता है। 


इसीलिए पतरस ने कहा, “तो अब तुम क्यों परमेश्वर की परीक्षा करते हो कि चेलों की गरदन पर ऐसा जूआ रखो, जिसे न हमारे बाप दादे उठा सके थे और न हम उठा सकते” (प्रेरितों 15:10)। केवल प्रभु यीशु मसीह ने हमारे लिए व्यवस्था को पूरा किया, और व्यवस्था तथा उसके पालन को हमारे सामने से हटा दिया: “और उसने तुम्हें भी, जो अपने अपराधों, और अपने शरीर की खतनारहित दशा में मुर्दा थे, उसके साथ जिलाया, और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया। और विधियों का वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिटा डाला; और उसको क्रूस पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया है। और उसने प्रधानताओं और अधिकारों को अपने ऊपर से उतार कर उन का खुल्लमखुल्ला तमाशा बनाया और क्रूस के कारण उन पर जय-जय-कार की ध्वनि सुनाई” (कुलुस्सियों 2:13-15)। इसलिए व्यवस्था का पालन या कर्मों की धार्मिकता उद्धार दे पाने के लिए अपर्याप्त है (मत्ती 5:20), अक्षम है।


साथ ही व्यवस्था के द्वारा व्यक्ति परमेश्वर की संगति में बहाल भी नहीं हो सकता है। यह बाइबल का तथ्य है कि व्यक्ति जैसे ही पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से पापों की क्षमा प्राप्त करके, प्रभु का जन बनता है, और अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर्ता है, उसी पल से उसका शरीर परमेश्वर पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाता है, और पवित्र आत्मा उसी क्षण से उसमें आकर निवास करने लगता है। इसी बात के संदर्भ में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा गलातिया के मसीही विश्वासियों के सामने प्रश्न रखा (गलातीयों 3:1-5), क्योंकि वो लोग व्यवस्था के पालन की ओर भटकने लग गए थे। प्रश्न था, “मैं तुम से केवल यह जानना चाहता हूं, कि तुम ने आत्मा को, क्या व्यवस्था के कामों से, या विश्वास के समाचार से पाया?” (गलातियों 3:2); “सो जो तुम्हें आत्मा दान करता और तुम में सामर्थ्य के काम करता है, वह क्या व्यवस्था के कामों से या विश्वास के सुसमाचार से ऐसा करता है?” (गलातियों 3:5)। पौलुस में होकर, पवित्र आत्मा ने पूछा है कि जब तुम ने पवित्र आत्मा विश्वास के सुसमाचार पर विश्वास करने से पाया है, उस विश्वास के सुसमाचार के पालन ने ही परमेश्वर के साथ तुम्हारी संगति फिर से स्थापित की है; वह तुम्हारे अंदर, तुम्हारे साथ रहने लगा है, तो फिर अब तुम विश्वास को छोड़कर व्यवस्था की ओर क्यों जा रहे हो? जब कि यह जानते हो कि व्यवस्था के पालन के द्वारा परमेश्वर के साथ तुम्हारी संगति बहाल नहीं हो सकती है?


जो प्रश्न पवित्र आत्मा ने गलातिया के मसीही विश्वासियों के सामने रखा था, वही आज हमारे सामने भी है, विशेषकर उनके सामने जो रीतियों, नियमों, परंपराओं, त्यौहारों आदि की “व्यवस्था” के पालन के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरना चाहते हैं। पौलुस ने स्पष्ट लिखा है, “पर यह बात प्रगट है, कि व्यवस्था के द्वारा परमेश्वर के यहां कोई धर्मी नहीं ठहरता क्योंकि धर्मी जन विश्वास से जीवित रहेगा” (गलातियों 3:11)। इसलिए, अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।   


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 9-10   

  • लूका 5:17-39     

 
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Why can't the law save us? (11)

 The Essential Demand of the Law

 

After looking at the limitations of the Law and then the Law's purposes in the previous articles, at the end of the previous article, we concluded with the mention of a great demand of the Law, which is yet another reason why it was unable to give salvation or forgiveness of sins.

 

To live and walk according to the law, two very difficult conditions have to be adhered to; they are:

Galatians 3:10 “For as many as are of the works of the law are under the curse; for it is written, "Cursed is everyone who does not continue in all things which are written in the book of the law, to do them." ”.

James 2:10 “For whoever shall keep the whole law, and yet stumble in one point, he is guilty of all”.

 

In other words, if the Law is to be followed, it has to be done in its entirety, without missing out on anything. If one misses on even one thing, he will be guilty of disobeying the whole Law, and will be considered guilty of the whole Law. And we've seen before that sin is ingrained in man, that even the saved Christians often sin (Romans 7:15-20, James 3:1-2, 1 John 1:8-10). So, the implication is evident; since everyone sins, in mind-thoughts-deeds-behavior; therefore, everyone violates the Law. So, no man can ever follow the Law in its entirety, with the diligence that is required to obey it. Let us understand this with a simple example; You walk out of the house wearing very clean clothes, and a vehicle on the road outside splatters some roadside debris and mud; some of the drops fall here and there on your clothes. All the rest of your clothes are clean, with only a few specks of dirt splattered here and there; still your whole garment will be considered dirty, will have to be changed, and washed. Similarly, being guilty of transgressing or being unable to follow the Law in even one thing, labels the person as "guilty", and disqualifies from being declared righteous and pure by the Law.

 

That's why Peter said, "Now therefore, why do you test God by putting a yoke on the neck of the disciples which neither our fathers nor we were able to bear?" (Acts 15:10). The Lord Jesus Christ was the only one who fulfilled the Law for us, and took away the necessity of obeying the Law from before us: “And you, being dead in your trespasses and the uncircumcision of your flesh, He has made alive together with Him, having forgiven you all trespasses, having wiped out the handwriting of requirements that was against us, which was contrary to us. And He has taken it out of the way, having nailed it to the cross. Having disarmed principalities and powers, He made a public spectacle of them, triumphing over them in it" (Colossians 2:13-15). Therefore, the keeping of the Law or trying to be righteous by works insufficient to give salvation (Matthew 5:20), the Law is unable to do so.

 

Moreover, one cannot be restored to the fellowship of God through the Law. It is a Biblical fact that as soon as a person repents of sins, receives the forgiveness of sins from the Lord Jesus, accepts as Jesus as Lord, and submits his life to Him, from that very moment his body becomes the temple of God's Holy Spirit; and the Holy Spirit comes in to reside in him. It was in this context that God the Holy Spirit put a question to the Galatian Christians through the apostle Paul (Galatians 3:1-5), since they had begun to shift toward the observance of the Law. The question was, "This only I want to learn from you: Did you receive the Spirit by the works of the law, or by the hearing of faith?" (Galatians 3:2); "Therefore He who supplies the Spirit to you and works miracles among you, does He do it by the works of the law, or by the hearing of faith?" (Galatians 3:5). Through Paul, the Holy Spirit asked that though you have received the Holy Spirit because of believing the gospel of faith; it is by obeying that gospel of faith that you have been accepted and re-established into fellowship with God, and He has started residing in you, with you; so why are you now deviating from the faith and going to the Law? Despite knowing very well that your fellowship with God cannot be restored by keeping the Law?

 

The question that the Holy Spirit posed to the Galatian Christians, the same question is equally valid for us today; especially for those who want to be justified in the sight of God by observing the "law" of customs, rules & regulations, traditions, festivals, etc. Paul wrote clearly, "But that no one is justified by the law in the sight of God is evident, for "the just shall live by faith" (Galatians 3:11). So, for now, if you're a Christian, and are wanting to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take a right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

  

 

  

Read the Bible in a Year:

  • Judges 9-10

  • Luke 5:17-39



मंगलवार, 29 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 16


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (11)

 व्यवस्था का उद्देश्य

पिछले लेखों में हमने रोमियों 7 अध्याय से व्यवस्था की सीमाओं को देखा है कि व्यवस्था केवल पाप की पहचान करवा कर मनुष्य को पाप के लिए दोषी तो ठहरा सकती है। व्यवस्था उस पाप और दोष के लिए दण्ड भी बता सकती है, किन्तु मनुष्य को पाप करने से रोक नहीं सकती है। और न ही पापी को दंडित करने के बाद भी परमेश्वर के साथ संगति में बहाल कर सकती है। साथ ही हमने यह भी देखा कि क्योंकि प्रभु यीशु में होकर व्यवस्था को हमारे सामने से हटा दिया गया है, इसलिए अब मसीही विश्वासियों के लिए व्यवस्था की बातों में जाने और उनका पालन करने के प्रयास करना, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता ही नहीं, वरन उसके द्वारा हटा दी गई बात को पुनःस्थापित करने के द्वारा उसकी अवहेलना और उसका अपमान भी है। व्यवस्था की इतनी सीमाओं और अक्षमताओं के बावजूद, परमेश्वर ने मनुष्यों को, अपने चुने हुए लोगों को व्यवस्था दी ही क्यों? परमेश्वर कोई भी कार्य निरुद्देश्य नहीं करता है, उसकी हर बात में एक योजना, एक उपयोगिता होती है। तो व्यवस्था के दिए जाने में क्या योजना और क्या उद्देश्य है? आज हम इसी प्रश्न के उत्तर को देखेंगे और समझेंगे। 


इस शृंखला के आरंभिक लेखों में हमने मानव इतिहास का एक बहुत संक्षिप्त अवलोकन किया था, और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि चाहे मनुष्य अपनी बुद्धि, अपने प्रयासों, अपने कार्यों के द्वारा धर्मी और पवित्र होने का प्रयास करे, अथवा परमेश्वर द्वारा दिए गए नियमों, विधियों, बलिदानों, आदि के पालन के द्वारा यह करना चाहे, परिणाम एक ही है - मनुष्य धर्मी, पवित्र, और सिद्ध कदापि नहीं बन पाता है, “हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के आधीन हैं: इसलिये कि हर एक मुंह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे” (रोमियों 3:19)। परमेश्वर की व्यवस्था मनुष्य के हाथों में होते हुए भी वह उसका पालन कर पाने में असमर्थ रहता है। अन्ततः हर मनुष्य को परमेश्वर के अनुग्रह और क्षमा के सहारे ही, पश्चाताप के द्वारा ही परमेश्वर को स्वीकार्य होना होता है। यही व्यवस्था का पहला उद्देश्य है - उसमें विद्यमान पाप के कारण, मनुष्य को उसकी क्षमताओं की सीमाओं से अवगत कराना, और उन सीमाओं के प्रति जागरूक रखना। इब्रानियों का लेखक, इस बात को इन शब्दों में व्यक्त करता है, “क्योंकि व्यवस्था जिस में आने वाली अच्छी वस्‍तुओं का प्रतिबिम्ब है, पर उन का असली स्‍वरूप नहीं, इसलिये उन एक ही प्रकार के बलिदानों के द्वारा, जो प्रति वर्ष अचूक चढ़ाए जाते हैं, पास आने वालों को कदापि सिद्ध नहीं कर सकती। नहीं तो उन का चढ़ाना बन्‍द क्यों न हो जाता? इसलिये कि जब सेवा करने वाले एक ही बार शुद्ध हो जाते, तो फिर उन का विवेक उन्हें पापी न ठहराता। परन्तु उन के द्वारा प्रति वर्ष पापों का स्मरण हुआ करता है।” पद 11 “और हर एक याजक तो खड़े हो कर प्रति दिन सेवा करता है, और एक ही प्रकार के बलिदान को जो पापों को कभी भी दूर नहीं कर सकते; बार बार चढ़ाता है” (इब्रानियों 10:1-3, 11)। 


व्यवस्था का दूसरा उद्देश्य, जैसा हम पिछले लेख में रोमियों 7:7-13 से व्यवस्था की चौथी सीमा के संदर्भ में देख चुके हैं, पाप की पहचान करवाना है। व्यवस्था पापों के समाधान या निवारण के लिए नहीं दी गई है, वरन पापों की पहचान करवाने, और मनुष्य को उसकी पापमय दशा का स्मरण करवाते रहने के लिए दी गई है, “तो क्या वह जो अच्छी थी, मेरे लिये मृत्यु ठहरी? कदापि नहीं! परन्तु पाप उस अच्छी वस्तु के द्वारा मेरे लिये मृत्यु का उत्पन्न करने वाला हुआ कि उसका पाप होना प्रगट हो, और आज्ञा के द्वारा पाप बहुत ही पापमय ठहरे” (रोमियों 7:13)। इससे पहले भी परमेश्वर पवित्र आत्मा, पौलुस में होकर रोमियों में ही इस बात को प्रकट और स्पष्ट कर चुका है। लिखा है, “20 क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है। 21 पर अब बिना व्यवस्था परमेश्वर की वह धामिर्कता प्रगट हुई है, जिस की गवाही व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं। 22 अर्थात परमेश्वर की वह धामिर्कता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास करने वालों के लिये है; क्योंकि कुछ भेद नहीं” (रोमियों 3:20-22)। इन तीन पदों पर थोड़ा ध्यान से विचार कीजिए:

  • पद 20 में पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि व्यवस्था के पालन से कोई प्राणी धर्मी नहीं ठहरेगा। क्योंकि व्यवस्था का उद्देश्य धर्मी ठहराना नहीं, वरन पाप की पहचान करवाना है। अर्थात, व्यवस्था मनुष्य के सामने परमेश्वर के मानक और उसकी धार्मिकता के स्तर रखती है, जिनके समक्ष किसी भी बात को तुलना के लिए रख कर मनुष्य पहचान सके कि परमेश्वर को क्या स्वीकार्य है, और क्या नहीं; क्या उसकी दृष्टि में उचित है और क्या नहीं; वह किसी सही और जायज़ मानता है, किसे नहीं। इसे ऐसे समझिए, डॉक्टर खून जाँच, एक्स-रे, और अन्य ऐसी जाँचो के द्वारा रोग की पहचान करता है, और फिर उस रोग का समाधान, इलाज बताता है। उसके द्वारा करवाई जा रही जाँचें रोग का इलाज नहीं हैं, रोग का समाधान नहीं हैं, केवल रोग की पहचान करने का तरीका है। उसी प्रकार से परमेश्वर की व्यवस्था भी मनुष्य के पाप-रोग को उस पर प्रकट करने, उसे उस रोग की पहचान करवाने, और उस रोग के निवारण के लिए उसके अपने प्रयासों के व्यर्थ होने को दिखाने का तरीका है; व्यवस्था पाप के रोग का उपचार या समाधान नहीं है। 

  • पद 21 में पवित्र आत्मा बताते हैं कि परमेश्वर की धार्मिकता बिना व्यवस्था के है, व्यवस्था के द्वारा नहीं है। परमेश्वर की यह धार्मिकता, बिना व्यवस्था के, प्रकट की गई है; और इस धार्मिकता की गवाही स्वयं व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं। परमेश्वर की यह धार्मिकता मनुष्य के कर्म नहीं, स्वयं प्रभु यीशु मसीह है (रोमियों 1:17; यिर्मयाह 23:5-6; 33:16)। 

  • पद 22 यह बिलकुल स्पष्ट कर देता है कि परमेश्वर की यह धार्मिकता, जो बिना व्यवस्था के है, किसी के भी द्वारा किसी भी रीति से कमाई नहीं जाते है, न ही विरासत में दी जाती है, वरन केवल प्रभु पर विश्वास करने वालों को प्रदान की जाती है; केवल उन्हीं के लिए ही है।


साथ ही उनके लिए, जो फिर भी व्यवस्था के पालन के द्वारा, अपने आप को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहराना चाहते हैं, उनके लिए व्यवस्था के साथ उसकी एक बहुत बड़ी माँग भी है, जिसे कभी कोई मनुष्य पूरा नहीं करने पाया है। व्यवस्था की इस माँग के बारे में हम अगले लेख में देखेंगे। किन्तु अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।  

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।     

 

  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 7-8   

  • लूका 5:1-16     


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Why can't the Law save us? (11)

 Purpose of the Law


In previous articles, we've seen the limitations of the Law from Romans 7 that the Law can only help man to recognize sin, and it can hold man guilty of sin. The law can also prescribe punishment for that sin and offense, but it cannot prevent man from committing sin. Nor can it restore the sinner to fellowship with God even after he has been punished. Also, we have seen that because the Law has been taken away from us by God through the Lord Jesus, therefore, the Christian Believers have no need to go into observing the things of the Law. Rather, their still insisting to do so is not only disobedience to God, but by trying to reinstate what was taken away by God, is also demeaning and insulting Him. Despite the many limitations and inabilities of the Law, why did God give His Law to men, to His chosen people? God does not do anything in vain, He has a plan, a purpose in everything. So, what is the plan and what is the purpose in the giving of the Law? Today we will see and understand the answer to this question.

 

In an earlier article of this series, we took a very brief look at human history, and came to the conclusion that whether man seeks to be righteous and holy through his wisdom, his efforts, his actions, or through the Laws given by God, by the observance of statutes, sacrifices, etc., the result is the same—man never becomes righteous, holy, and perfect, “Now we know that whatever the law says, it says to those who are under the law, that every mouth may be stopped, and all the world may become guilty before God" (Romans 3:19). Even though the Law of God is in the hands of man,  he is still unable to obey it. Ultimately, every human being becomes acceptable to God only through repentance of sins, and through God's grace and forgiveness. That is the first purpose of the Law - to make man aware of the limits of his abilities because of the sin in him, and to keep him conscious of those limits. The author of Hebrews expressed this in these words, "For the law, having a shadow of the good things to come, and not the very image of the things, can never with these same sacrifices, which they offer continually year by year, make those who approach perfect. For then would they not have ceased to be offered? For the worshipers, once purified, would have had no more consciousness of sins. But in those sacrifices there is a reminder of sins every year.” Verse 11 “And every priest stands ministering daily and offering repeatedly the same sacrifices, which can never take away sins” (Hebrews 10:1-3, 11).

 

The second purpose of the Law, as we saw in the previous article in the context of the fourth limitation of the Law from Romans 7:7-13, is to identify sin. The law is not given for the solution or remission of sins, but for the recognition of sins, and to remind man of his sinful condition, “Has then what is good become death to me? Certainly not! But sin, that it might appear sin, was producing death in me through what is good, so that sin through the commandment might become exceedingly sinful.” (Romans 7:13). Even before this, in Romans itself, God, the Holy Spirit, through Paul, has made the point evident and clear. It is written, "20 Therefore by the deeds of the law no flesh will be justified in His sight, for by the law is the knowledge of sin. 21 But now the righteousness of God apart from the law is revealed, being witnessed by the Law and the Prophets, 22 even the righteousness of God, through faith in Jesus Christ, to all and on all who believe. For there is no difference;” (Romans 3:20-22). Consider these three verses a little carefully:

  • In verse 20, the Holy Spirit had it written that keeping the Law will not justify any living being. Because the purpose of the Law is not to justify, but to provide recognition of sin. The Law puts before man the criteria of God, and the standards of His righteousness. Man, by placing anything for comparison before them, can identify what is acceptable to God, and what is not; what is right in his view and what is not; whom He believes to be right and just, whom not. To understand it, look at it like this: the doctor diagnoses the disease by the help of blood tests, X-rays, and other such tests, and then tells the solution, the treatment of that disease. The tests being asked by him are not the cure of the disease, they are not the treatment of the disease; but only the way to diagnose the disease. In the same way God's Law is also a way of revealing man's sin-sickness to him, making him recognize its presence in him, and showing the futility of his own efforts to cure that disease. The Law is not the cure or solution to the disease of sin.

  • In verse 21, the Holy Spirit explains that the righteousness of God is apart from the Law, not by the Law. This righteousness of God is revealed, outside the Law; And the Law and the prophets themselves testify to this righteousness. This righteousness of God is not through the works of man, but it is the Lord Jesus Christ Himself (Romans 1:17; Jeremiah 23:5-6; 33:16).

  • Verse 22 makes it quite clear that this righteousness of God, which is apart from the Law, can in no way ever be earned, or inherited, by anyone, but is graciously given only to those who believe in the Lord; It is only for them.

 

Also, for those who still want to justify themselves in the sight of God through the observance of the Law, the Law has a great demand too, which no man has ever been able to fulfill. We will consider this requirement of the Law in the next article. But for now, if you are a Christian, and consider yourself to be righteous by observing any kind of “law” — whether of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God through your works; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you can become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but by only following God's prescribed path of repentance and submission. Therefore, while you have the time and opportunity, make the right decision now, and leave the useless and fruitless path.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

  

Read the Bible in a Year:

  • Judges 7-8

  • Luke 5:1-16