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मंगलवार, 29 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 16


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (11)

 व्यवस्था का उद्देश्य

पिछले लेखों में हमने रोमियों 7 अध्याय से व्यवस्था की सीमाओं को देखा है कि व्यवस्था केवल पाप की पहचान करवा कर मनुष्य को पाप के लिए दोषी तो ठहरा सकती है। व्यवस्था उस पाप और दोष के लिए दण्ड भी बता सकती है, किन्तु मनुष्य को पाप करने से रोक नहीं सकती है। और न ही पापी को दंडित करने के बाद भी परमेश्वर के साथ संगति में बहाल कर सकती है। साथ ही हमने यह भी देखा कि क्योंकि प्रभु यीशु में होकर व्यवस्था को हमारे सामने से हटा दिया गया है, इसलिए अब मसीही विश्वासियों के लिए व्यवस्था की बातों में जाने और उनका पालन करने के प्रयास करना, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता ही नहीं, वरन उसके द्वारा हटा दी गई बात को पुनःस्थापित करने के द्वारा उसकी अवहेलना और उसका अपमान भी है। व्यवस्था की इतनी सीमाओं और अक्षमताओं के बावजूद, परमेश्वर ने मनुष्यों को, अपने चुने हुए लोगों को व्यवस्था दी ही क्यों? परमेश्वर कोई भी कार्य निरुद्देश्य नहीं करता है, उसकी हर बात में एक योजना, एक उपयोगिता होती है। तो व्यवस्था के दिए जाने में क्या योजना और क्या उद्देश्य है? आज हम इसी प्रश्न के उत्तर को देखेंगे और समझेंगे। 


इस शृंखला के आरंभिक लेखों में हमने मानव इतिहास का एक बहुत संक्षिप्त अवलोकन किया था, और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि चाहे मनुष्य अपनी बुद्धि, अपने प्रयासों, अपने कार्यों के द्वारा धर्मी और पवित्र होने का प्रयास करे, अथवा परमेश्वर द्वारा दिए गए नियमों, विधियों, बलिदानों, आदि के पालन के द्वारा यह करना चाहे, परिणाम एक ही है - मनुष्य धर्मी, पवित्र, और सिद्ध कदापि नहीं बन पाता है, “हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के आधीन हैं: इसलिये कि हर एक मुंह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे” (रोमियों 3:19)। परमेश्वर की व्यवस्था मनुष्य के हाथों में होते हुए भी वह उसका पालन कर पाने में असमर्थ रहता है। अन्ततः हर मनुष्य को परमेश्वर के अनुग्रह और क्षमा के सहारे ही, पश्चाताप के द्वारा ही परमेश्वर को स्वीकार्य होना होता है। यही व्यवस्था का पहला उद्देश्य है - उसमें विद्यमान पाप के कारण, मनुष्य को उसकी क्षमताओं की सीमाओं से अवगत कराना, और उन सीमाओं के प्रति जागरूक रखना। इब्रानियों का लेखक, इस बात को इन शब्दों में व्यक्त करता है, “क्योंकि व्यवस्था जिस में आने वाली अच्छी वस्‍तुओं का प्रतिबिम्ब है, पर उन का असली स्‍वरूप नहीं, इसलिये उन एक ही प्रकार के बलिदानों के द्वारा, जो प्रति वर्ष अचूक चढ़ाए जाते हैं, पास आने वालों को कदापि सिद्ध नहीं कर सकती। नहीं तो उन का चढ़ाना बन्‍द क्यों न हो जाता? इसलिये कि जब सेवा करने वाले एक ही बार शुद्ध हो जाते, तो फिर उन का विवेक उन्हें पापी न ठहराता। परन्तु उन के द्वारा प्रति वर्ष पापों का स्मरण हुआ करता है।” पद 11 “और हर एक याजक तो खड़े हो कर प्रति दिन सेवा करता है, और एक ही प्रकार के बलिदान को जो पापों को कभी भी दूर नहीं कर सकते; बार बार चढ़ाता है” (इब्रानियों 10:1-3, 11)। 


व्यवस्था का दूसरा उद्देश्य, जैसा हम पिछले लेख में रोमियों 7:7-13 से व्यवस्था की चौथी सीमा के संदर्भ में देख चुके हैं, पाप की पहचान करवाना है। व्यवस्था पापों के समाधान या निवारण के लिए नहीं दी गई है, वरन पापों की पहचान करवाने, और मनुष्य को उसकी पापमय दशा का स्मरण करवाते रहने के लिए दी गई है, “तो क्या वह जो अच्छी थी, मेरे लिये मृत्यु ठहरी? कदापि नहीं! परन्तु पाप उस अच्छी वस्तु के द्वारा मेरे लिये मृत्यु का उत्पन्न करने वाला हुआ कि उसका पाप होना प्रगट हो, और आज्ञा के द्वारा पाप बहुत ही पापमय ठहरे” (रोमियों 7:13)। इससे पहले भी परमेश्वर पवित्र आत्मा, पौलुस में होकर रोमियों में ही इस बात को प्रकट और स्पष्ट कर चुका है। लिखा है, “20 क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है। 21 पर अब बिना व्यवस्था परमेश्वर की वह धामिर्कता प्रगट हुई है, जिस की गवाही व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं। 22 अर्थात परमेश्वर की वह धामिर्कता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास करने वालों के लिये है; क्योंकि कुछ भेद नहीं” (रोमियों 3:20-22)। इन तीन पदों पर थोड़ा ध्यान से विचार कीजिए:

  • पद 20 में पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि व्यवस्था के पालन से कोई प्राणी धर्मी नहीं ठहरेगा। क्योंकि व्यवस्था का उद्देश्य धर्मी ठहराना नहीं, वरन पाप की पहचान करवाना है। अर्थात, व्यवस्था मनुष्य के सामने परमेश्वर के मानक और उसकी धार्मिकता के स्तर रखती है, जिनके समक्ष किसी भी बात को तुलना के लिए रख कर मनुष्य पहचान सके कि परमेश्वर को क्या स्वीकार्य है, और क्या नहीं; क्या उसकी दृष्टि में उचित है और क्या नहीं; वह किसी सही और जायज़ मानता है, किसे नहीं। इसे ऐसे समझिए, डॉक्टर खून जाँच, एक्स-रे, और अन्य ऐसी जाँचो के द्वारा रोग की पहचान करता है, और फिर उस रोग का समाधान, इलाज बताता है। उसके द्वारा करवाई जा रही जाँचें रोग का इलाज नहीं हैं, रोग का समाधान नहीं हैं, केवल रोग की पहचान करने का तरीका है। उसी प्रकार से परमेश्वर की व्यवस्था भी मनुष्य के पाप-रोग को उस पर प्रकट करने, उसे उस रोग की पहचान करवाने, और उस रोग के निवारण के लिए उसके अपने प्रयासों के व्यर्थ होने को दिखाने का तरीका है; व्यवस्था पाप के रोग का उपचार या समाधान नहीं है। 

  • पद 21 में पवित्र आत्मा बताते हैं कि परमेश्वर की धार्मिकता बिना व्यवस्था के है, व्यवस्था के द्वारा नहीं है। परमेश्वर की यह धार्मिकता, बिना व्यवस्था के, प्रकट की गई है; और इस धार्मिकता की गवाही स्वयं व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं। परमेश्वर की यह धार्मिकता मनुष्य के कर्म नहीं, स्वयं प्रभु यीशु मसीह है (रोमियों 1:17; यिर्मयाह 23:5-6; 33:16)। 

  • पद 22 यह बिलकुल स्पष्ट कर देता है कि परमेश्वर की यह धार्मिकता, जो बिना व्यवस्था के है, किसी के भी द्वारा किसी भी रीति से कमाई नहीं जाते है, न ही विरासत में दी जाती है, वरन केवल प्रभु पर विश्वास करने वालों को प्रदान की जाती है; केवल उन्हीं के लिए ही है।


साथ ही उनके लिए, जो फिर भी व्यवस्था के पालन के द्वारा, अपने आप को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहराना चाहते हैं, उनके लिए व्यवस्था के साथ उसकी एक बहुत बड़ी माँग भी है, जिसे कभी कोई मनुष्य पूरा नहीं करने पाया है। व्यवस्था की इस माँग के बारे में हम अगले लेख में देखेंगे। किन्तु अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।  

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।     

 

  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • न्यायियों 7-8   

  • लूका 5:1-16     


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Why can't the Law save us? (11)

 Purpose of the Law


In previous articles, we've seen the limitations of the Law from Romans 7 that the Law can only help man to recognize sin, and it can hold man guilty of sin. The law can also prescribe punishment for that sin and offense, but it cannot prevent man from committing sin. Nor can it restore the sinner to fellowship with God even after he has been punished. Also, we have seen that because the Law has been taken away from us by God through the Lord Jesus, therefore, the Christian Believers have no need to go into observing the things of the Law. Rather, their still insisting to do so is not only disobedience to God, but by trying to reinstate what was taken away by God, is also demeaning and insulting Him. Despite the many limitations and inabilities of the Law, why did God give His Law to men, to His chosen people? God does not do anything in vain, He has a plan, a purpose in everything. So, what is the plan and what is the purpose in the giving of the Law? Today we will see and understand the answer to this question.

 

In an earlier article of this series, we took a very brief look at human history, and came to the conclusion that whether man seeks to be righteous and holy through his wisdom, his efforts, his actions, or through the Laws given by God, by the observance of statutes, sacrifices, etc., the result is the same—man never becomes righteous, holy, and perfect, “Now we know that whatever the law says, it says to those who are under the law, that every mouth may be stopped, and all the world may become guilty before God" (Romans 3:19). Even though the Law of God is in the hands of man,  he is still unable to obey it. Ultimately, every human being becomes acceptable to God only through repentance of sins, and through God's grace and forgiveness. That is the first purpose of the Law - to make man aware of the limits of his abilities because of the sin in him, and to keep him conscious of those limits. The author of Hebrews expressed this in these words, "For the law, having a shadow of the good things to come, and not the very image of the things, can never with these same sacrifices, which they offer continually year by year, make those who approach perfect. For then would they not have ceased to be offered? For the worshipers, once purified, would have had no more consciousness of sins. But in those sacrifices there is a reminder of sins every year.” Verse 11 “And every priest stands ministering daily and offering repeatedly the same sacrifices, which can never take away sins” (Hebrews 10:1-3, 11).

 

The second purpose of the Law, as we saw in the previous article in the context of the fourth limitation of the Law from Romans 7:7-13, is to identify sin. The law is not given for the solution or remission of sins, but for the recognition of sins, and to remind man of his sinful condition, “Has then what is good become death to me? Certainly not! But sin, that it might appear sin, was producing death in me through what is good, so that sin through the commandment might become exceedingly sinful.” (Romans 7:13). Even before this, in Romans itself, God, the Holy Spirit, through Paul, has made the point evident and clear. It is written, "20 Therefore by the deeds of the law no flesh will be justified in His sight, for by the law is the knowledge of sin. 21 But now the righteousness of God apart from the law is revealed, being witnessed by the Law and the Prophets, 22 even the righteousness of God, through faith in Jesus Christ, to all and on all who believe. For there is no difference;” (Romans 3:20-22). Consider these three verses a little carefully:

  • In verse 20, the Holy Spirit had it written that keeping the Law will not justify any living being. Because the purpose of the Law is not to justify, but to provide recognition of sin. The Law puts before man the criteria of God, and the standards of His righteousness. Man, by placing anything for comparison before them, can identify what is acceptable to God, and what is not; what is right in his view and what is not; whom He believes to be right and just, whom not. To understand it, look at it like this: the doctor diagnoses the disease by the help of blood tests, X-rays, and other such tests, and then tells the solution, the treatment of that disease. The tests being asked by him are not the cure of the disease, they are not the treatment of the disease; but only the way to diagnose the disease. In the same way God's Law is also a way of revealing man's sin-sickness to him, making him recognize its presence in him, and showing the futility of his own efforts to cure that disease. The Law is not the cure or solution to the disease of sin.

  • In verse 21, the Holy Spirit explains that the righteousness of God is apart from the Law, not by the Law. This righteousness of God is revealed, outside the Law; And the Law and the prophets themselves testify to this righteousness. This righteousness of God is not through the works of man, but it is the Lord Jesus Christ Himself (Romans 1:17; Jeremiah 23:5-6; 33:16).

  • Verse 22 makes it quite clear that this righteousness of God, which is apart from the Law, can in no way ever be earned, or inherited, by anyone, but is graciously given only to those who believe in the Lord; It is only for them.

 

Also, for those who still want to justify themselves in the sight of God through the observance of the Law, the Law has a great demand too, which no man has ever been able to fulfill. We will consider this requirement of the Law in the next article. But for now, if you are a Christian, and consider yourself to be righteous by observing any kind of “law” — whether of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God through your works; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you can become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but by only following God's prescribed path of repentance and submission. Therefore, while you have the time and opportunity, make the right decision now, and leave the useless and fruitless path.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

  

Read the Bible in a Year:

  • Judges 7-8

  • Luke 5:1-16


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