परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 6
पिछले लेख में हमने मूसा द्वारा इस्राएल के छुटकारे से सीखा था कि परमेश्वर के उद्देश्य परमेश्वर के समय, और उसके तरीकों से ही पूरे किए जा सकते हैं। कोई भी, वह व्यक्ति भी अन्ततः जिसके द्वारा वह कार्य करवाया जाएगा, उन बातों को अपने हाथों में नहीं ले सकता है, और न ही अपनी ही इच्छा के अनुसार उनको कर सकता है। परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का अर्थ है परमेश्वर के निर्देशों का पालन करना, और उस प्रकार से करना जैसा परमेश्वर ने उन्हें करने के लिए निर्धारित किया है और बताया है। इस्राएल के वाचा की भूमि, कनान, की ओर की यात्रा के उदाहरण के साथ आगे बढ़ते हुए हम परमेश्वर की आज्ञाकारिता के इस सिद्धान्त की और अधिक पुष्टि करेंगे, जंगल की यात्रा में परमेश्वर की आराधना के लिए तम्बू बनाने के उदाहरण के द्वारा।
निर्गमन की पुस्तक का दूसरा अर्ध-भाग उस तम्बू के बारे में है जिसे परमेश्वर ने अपनी आराधना के लिए इस्राएलियों द्वारा बनवाया था। परमेश्वर बहुत आसानी से बस इतना भर कह सकता था कि इस्राएलियों को उसकी आराधना करने के प्रति उद्यमी होना चाहिए, उसकी आराधना किसी मूर्त के रूप में नहीं, किन्तु आत्मा में होनी चाहिए; और उन्हें उसकी आराधना के लिए एक स्थान बना लेना चाहिए; और बस बात को यहीं पर छोड़ देता, इस्राएलियों को इसके आगे इसे पूरा कर लेने देता। किन्तु न केवल परमेश्वर ने उन्हें अपनी आज्ञाएँ दीं, अपनी व्यवस्था दी, बल्कि उसकी आराधना के लिए जो तम्बू बनाया जाना था, उसमें जो सामान होना था, और जिस तरह से आराधना की जानी थी, उसके भी बहुत सटीक निर्देश दिए। परमेश्वर ने कुछ भी लोगों की कल्पना या समझ पर नहीं छोड़ा, यद्यपि ये वे लोग थे जो उसके साथ वाचा में बंधे हुए थे।
परमेश्वर ने उन्हें तम्बू और उसके सामान का बिलकुल सटीक स्वरूप, आकार, और नाप दिया; उसने विशेष रीति से बताया कि कौन सा सामान किस चीज़ से बनेगा, वह चीज़ किस रंग की होगी, और फिर बन जाने के बाद उस सामान को कहाँ और कैसे रखा जाएगा, कैसे उपयोग किया जाएगा। परमेश्वर ने उन्हें यह भी बताया कि यात्रा के समय तम्बू और उसके सामान को कैसे ले जाना है। परमेश्वर ने इस सामान को बनाने के तरीके को भी लोगों की कल्पना और समझ पर नहीं छोड़ा; उसने इसके लिए आवश्यक योग्यता और कार्य-कुशलता कुछ चुने हुए लोगों में डाली, ताकि वे तम्बू और सामान को ठीक वैसे ही बनाएं जैसा परमेश्वर चाहता था (निर्गमन 31:1-11; 35:30-35)। जब आप निर्गमन में दिए गए इस विवरण को पढ़ते हैं, तो आप पाते हैं कि हर सामान के लिए परमेश्वर मूसा से बारंबार दोहराता है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि हर वस्तु ठीक वैसे और वैसी ही बने जैसा परमेश्वर ने कहा है और उसे दिखाया है; निर्गमन के दूसरे अर्ध-भाग में परमेश्वर ने यह बात लगभग चालीस बार दोहराई है। एक बार जब कार्य पूरा हो गया, तब यह फिर से दोहराया गया है कि हर वस्तु ठीक वैसे और वैसी ही बनाई गई थी, जैसा परमेश्वर ने उसके लिए निर्धारित किया था (निर्गमन 39:32-43)। ऐसा हो जाने के बाद ही, निर्गमन 40 में, परमेश्वर फिर से बताता है कि कौन सी वस्तु कहाँ रखी जानी है, और मूसा वैसा ही करता है (40:16), और तब परमेश्वर उतर कर तम्बू में आता है, और उसे अपनी उपस्थिति से भर देता है (40:34); अर्थात, हर एक बात के पूर्णतः परमेश्वर के कहे के अनुसार हो जाने के बाद ही परमेश्वर उसे स्वीकार करता है और उसमें आकर निवास करता है।
यह सब बहुत प्रबल रीति से हमारे सामने इस तथ्य को रखता है कि न तो मनुष्य की कल्पनाएँ, न उसके तरीके, और परमेश्वर के निकट या सम्मुख आने तथा उसकी आराधना करने के लिए न ही मनुष्य की अपनी गढ़ी हुई बातें परमेश्वर को प्रसन्न कर सकती हैं, उसे स्वीकार्य हो सकती हैं। परमेश्वर केवल, जैसा उसके वचन में लिखा और कहा गया है, अपनी बातों और निर्देशों के सटीक पालन किए जाने के द्वारा, उसके कहे के अनुसार ही उसकी उपासना और आराधना किए जाने के द्वारा ही प्रसन्न होता है, और किसी तरीके से नहीं। और शैतान यही प्रयास करता रहता है कि हम किसी न किसी तरह से परमेश्वर के वचन की बातों की अनदेखी कर दें, उन में अपनी इच्छा और समझ के अनुसार कुछ बदलाव कर दें, उनमें कुछ जोड़ या घटा दें; अर्थात परमेश्वर के वचन को परमेश्वर का वचन न रहने दें वरन बाहरी परमेश्वर के वचन के स्वरूप में उसे वास्तव में मनुष्य का वचन बना लें। और इस रीति से किसी तरह से उसका भण्डारी होने की अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति लापरवाही करें, और परमेश्वर के वचन का अनुचित उपयोग करें या फिर हो लेने दें।
अगले लेख में हम कुछ अन्य उदाहरणों को देखेंगे जो बाइबल के इस सिद्धान्त की और अधिक पुष्टि करते हैं कि परमेश्वर और उसके वचन के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर की आज्ञाकारिता का अर्थ न केवल उसके निर्देशों को मानना है, बल्कि उन्हें उस तरह से मानना है, जैसा वह चाहता है कि वे मानी जाएँ।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Improper Behavior Towards God’s Word – 6
Through the previous article we have seen through Israel’s deliverance from Egypt by Moses, that God’s purposes can only be accomplished in God’s time, and in God’s manner. No one, not even the person who will eventually accomplish them, can take things into their own hands, and try to do it as they think is appropriate. Obedience to God means fulfilling God’s instructions, in the manner God has determined and said for them to be fulfilled. Continuing with the illustration of Israel’s journey towards the Promised land, Canaan, we will further affirm this principle of being obedient to God, through the illustration of building the Tabernacle of God for worship in the wilderness.
The second half of the Book of Exodus is about the Tabernacle that God asked to be built for His worship by Israel. God could have easily said that Israelites should be diligent in regularly worshiping Him, not as an idol, but as Spirit; they should prepare a place of worship for Him; and left it at that; allowing the Israelites to now do this. But not only did God give them His Commandments, His Laws, but also for His worship, He gave them the minute details about the Tabernacle, its things, and the way He was to be worshiped. God left nothing to the discretion or imagination of His people who had entered into a covenant with Him.
He gave them details of the exact size of the Tabernacle and of its objects; He specified the material and even the color of the material to be used for each and everything to be constructed with; God gave the design of each object, and then specified where and how it had to be placed and utilized. He even told them how it had to be transported when they journeyed. Neither did God leave it to His people to devise the means and methods of constructing these objects; He put the required abilities and skills in certain chosen people, to make the things of the Tabernacle, just the way God wanted them to be (Exodus 31:1-11; 35:30-35). As you read through this description in Exodus, you find that for each object, God always specifies to Moses that it has to be built and used exactly as has been specified by God and been shown to Him; God repeats this command in the second half of Exodus nearly forty times. Once the work was completed, it is again specified that everything was done exactly as God had commanded it to be done (Exodus 39:32-43). It is only after this that in Exodus 40 God specifies when, how, and where each thing has to be placed, Moses does accordingly (40:16), and then God descended and filled the Tabernacle (40:34); i.e., it was only once everything had been done according to God’s instructions, that God accepted it and came into it.
All of this so powerfully puts before us the fact that not the imaginations and devices of man, not man’s contrived methods of coming to God and worshipping God, but only doing things, following His instructions, worshipping Him, etc., exactly as specified by God in His Word, is what pleases God, and nothing else. And Satan keeps trying to get us to either disregard God’s instructions given in His Word, or to modify them, add or take away things from them, according to our own fancy; i.e., do not let God’s Word be God’s Word, but though externally appearing to be God’s word, to actually change it into man’s word. Thereby to somehow overlook and neglect our stewardship towards God’s Word, and thereby let God’s Word be used inappropriately in some manner or the other.
In the next article we will look at some other examples to further affirm this Biblical principle that God and His Word cannot be trifled with. Obedience to God not only means obeying His instructions, but also means obeying them in the manner He wants them obeyed.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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