परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 5
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर न केवल यह चाहता है कि उसके लोग उसके निर्देशों के अनुसार ही कार्य करें, वरन साथ ही इस बात के लिए भी दृढ़ है कि वे उन कार्यों को ठीक वैसे ही करें जैसा उसने उन से करने के लिए कहा है; न कि अपनी इच्छा और तरीके से। इस सिद्धान्त के एक व्यवहारिक चित्रण के रूप में, आज हम मूसा के द्वारा मिस्र से इस्राएल के छुड़ाए जाने की घटना को देखना आरम्भ करेंगे, और फिर उसके बाद कुछ अन्य उदाहरण भी देखेंगे।
प्रेरितों 7:22-36 में स्तिफनुस द्वारा दोहराए गए इस्राएल के छुड़ाए जाने के संक्षिप्त घटनाक्रम को देखिए। जैसा स्तिफनुस ने कहा था, मूसा, इस्राएलियों के साथ अपना भाईचारा व्यक्त करने के लिए अपने आप से उनके पास चला गया था। वहाँ पर एक मिस्री द्वारा एक इस्राएली पर किए जा रहे अत्याचार को देख, पहले तो मूसा ने इस्राएली के पक्ष में कुछ करने के लिए, अपनी ही समझ के अनुसार, उस मिस्री को मार डाला; और फिर बाद में इस्राएलियों के मध्य के विवादों को भी सुलझाने का प्रयास किया। संभवतः उसका विचार रहा होगा कि उसकी राजसी हैसियत और क्षमताओं के कारण, इस्राएली उसे मिस्र के दासत्व से उनका छुड़ाने वाला समझ लेंगे, उसे स्वीकार कर लेंगे। लेकिन इस्राएलियों ने ऐसा नहीं किया, अपने छुड़ाने वाले के रूप में उन्होंने उसका तिरस्कार किया, और मूसा को अपनी जान बचा कर मिस्र से भागना पड़ा। इसके बाद और चालीस वर्ष की तैयारी का समय लगा, और तब परमेश्वर मूसा को वापस मिस्र में लेकर आया और उसके द्वारा इस्राएल को दासत्व से छुड़वाया।
यद्यपि मूसा इस्राएलियों को छुड़ाने के लिए परमेश्वर द्वारा चुना और निर्धारित किया हुआ था, लेकिन मूसा अपनी इच्छा और तरीके से इस कार्य को नहीं कर सका, बल्कि ऐसा करने के प्रयास में जान के जोखिम में आ गया। वह यह बात नहीं जानता था कि जब उसने यह कार्य अपने आप ही करने का प्रयास किया था, उस समय वह इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए प्रशिक्षित और तैयार किया हुआ नहीं था। परमेश्वर को उसे चालीस वर्ष तक जंगल में प्रशिक्षित करना पड़ा, एक बिना किसी पहचान के व्यक्ति के रूप में। उसे मूक, असहाय, और मूर्ख भेड़ों के साथ काम करना पड़ा, जो अपनी इच्छा से, तथा परिणाम की कोई चिंता किए बिना ही कुछ भी कर बैठने की प्रवृत्ति रखती थीं। जब मूसा ने उनके साथ रहते हुए धैर्य सीख लिया और उसमें बुद्धिहीन पशुओं की भी देखभाल करने का हृदय विकसित हो गया, तब परमेश्वर ने उसे इस्राएलियों को छुड़ाने के लिए भेजा। साथ ही एक बात और भी थी, जिस समय मूसा ने स्वतः ही इस्राएलियों का छुड़ाने वाला बनने का प्रयास किया था, तब तक परमेश्वर द्वारा उनके छुटकारे के लिए निर्धारित समय पूरा नहीं हुआ था; और जिस दिन यह समय पूरा हो गया, परमेश्वर उन्हें मिस्र से निकाल लाया (उत्पत्ति 15:13; निर्गमन 12:40-41)। जब मूसा के जाने का समय आया, उस समय, जलती हुई झाड़ी की घटना और संबंधित बातों के द्वारा (निर्गमन 4) परमेश्वर ने मूसा को यह भी दिखाया कि यद्यपि अपनी दृष्टि में, और अपने आँकलन के अनुसार, उसमें इस्राएलियों को मिस्र से छुड़ाने के लिए कोई योग्यता, कोई सामर्थ्य नहीं थी; किन्तु परमेश्वर की आज्ञाकारिता के द्वारा वह अद्भुत आश्चर्यकर्म कर सकता था।
अब, मूसा के यह जान चुका था कि इस असंभव लगने वाले कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए उसके पास अपना कुछ भी नहीं था जिसके आधार पर वह इसे कर पाने का कोई दावा कर पाता, या ऐसा करने का सोच भी सकता था; वह इसके लिए पूर्णतः परमेश्वर पर ही निर्भर था। और हम यह अच्छे से जानते हैं कि यह केवल मूसा की परमेश्वर के प्रति निःसंकोच आज्ञाकारिता, असंभव दिखने वाली बातों के लिए भी परमेश्वर पर उसका पूर्ण भरोसा ही था जिसने न केवल उसे इस्राएलियों को स्वीकार्य और उनका अगुवा तथा छुड़ाने वाला बनाया, बल्कि उसे फिरौन द्वारा किसी भी हानि के करने से भी सुरक्षित रखा, यद्यपि मूसा में होकर मिस्र को बहुत भारी हानि उठानी पड़ी थी।
उनको मिस्र से निकाल लाने के पश्चात, इस्राएल को और आगे वाचा किए हुए कनान देश में ले जाने से पहले, परमेश्वर ने इस्राएलियों से उसके साथ एक वाचा बाँधने के लिए कहा, उसके आज्ञाकारी बने रहने की वाचा (निर्गमन 19:3-8)। इस्राएलियों के यह वाचा बाँधने के बाद, परमेश्वर ने पहले उन्हें अपनी आज्ञाएँ, फिर अपनी व्यवस्था दी, और फिर इसके बाद उन से कनान की यात्रा के दौरान उसकी आराधना करने के लिए एक आराधना का तम्बू भी बनाने के लिए कहा। यहाँ पर ध्यान दीजिए कि इस्राएलियों और परमेश्वर के बीच की यह वाचा केवल एक ही बात पर आधारित थी, परमेश्वर के प्रति बिना किसी शर्त के, उनकी पूर्ण आज्ञाकारिता पर।
हम अगले लेख में भी इस्राएल की इस यात्रा के बारे में और देखेंगे, तथा इस उदाहरण से और भी सीखेंगे कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का अर्थ है परमेश्वर द्वारा कही गई बात को उसके द्वारा बताए गए तरीके से ही पूरा करना।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Improper Behavior Towards God’s Word – 5
In the previous article we have seen that God not only wants that His people do what He instructs them to do, but is also equally particular that they do it just the way that he wants them to do it; and not according to their own fancies. As a practical illustration of this principle, today we begin to look at Israel’s deliverance from Egypt through Moses, and later see some other examples as well.
Consider the summary of Israel’s deliverance as stated by Stephen before the Council in Acts 7:22-36. As Stephen recounts this incident, Moses, wanting to express brotherhood with them, had initially gone to the Israelites on his own. There, acting in favor of an Israelite being oppressed by an Egyptian, according to his own understanding Moses even killed the oppressor, and then tried to settle disputes between the Israelites. Probably, his thinking was that because of his royal status and capabilities, the Israelites will accept him as their deliverer from Egyptian slavery. But the Israelites rejected him as their potential deliverer, and he had to run away for his life from Egypt. It took another forty years of preparation before God brought him back to Egypt, to deliver Israel from slavery through him.
Though Moses was to be the one through whom God would deliver Israel, but at the time Moses could not do this according to his desire and by his methods, rather, in attempting to do so, jeopardized his life. What he did not know was that when he tried to do it on his own, he was still not trained and prepared to accept this responsibility. God had to train him for another forty years in the wilderness, as a nobody, working with dumb, defenseless sheep, prone to do things their own way without bothering about the consequences. It was only when Moses had learnt patience and developed the heart to care for even dumb animals, that he was sent to deliver Israel. Also, another thing was that at the time Moses attempted to become their deliverer, God’s determined time for their deliverance had not been completed; and the day this time was completed, God brought them out of Egypt (Genesis 15:13; Exodus 12:40-41). In the incidence of the Burning Bush and associated events (Exodus 4), God had also shown to Moses, that though in his own eyes, and by his own reckoning, he had no qualities and capabilities to deliver Israel from Egypt; but through being obedient to God, he was capable of doing extra-ordinary miracles.
Now, Moses, knowing that for being successful in carrying out this seemingly impossible task, he had nothing of his own by which he could make any claims or even think of accomplishing it; he was totally dependent on God for it. And we know this very well that it was only his unflinching obedience to God, and his completer trust in God for even for seemingly impossible things, that not only made him acceptable to Israel as their leader and deliverer, but also kept Pharaoh from harming him in any way, although through Moses Egypt had suffered great loss.
Having brought them out of Egypt, before leading Israel towards the Promised Land, Canaan, God asked the Israelites to make a covenant with Him, of being obedient to Him (Exodus 19:3-8). After the Israelites agreed to this covenant, God proceeded further, first giving them His Commandments and the Law, and then asking them to build the Tabernacle for worshipping Him while they journeyed to Canaan. Take note that the covenant between the Israelites and God was totally dependent on one and only one thing, absolute, unconditional obedience to God.
We will continue considering this Exodus journey of Israel in the next article as well, to continue learning from this illustration that obedience to God means doing the things He has said, and doing them the way He wants them done.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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