परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 7
पिछले लेखों में हमने मूसा द्वारा इस्राएल के मिस्र से छुड़ाए जाने, और फिर परमेश्वर की आज्ञा पर उसकी उपासना के लिए एक तम्बू बनाए जाने के उदाहरणों से देखा है कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का अर्थ केवल जो परमेश्वर ने कहा उसे करना ही नहीं होता है, बल्कि साथ ही जैसा परमेश्वर ने कहा है उसके अनुसार, उसी तरीके से ही करना भी होता है। क्योंकि अब हमारे हाथ में परमेश्वर का लिखित वचन विद्यमान है, जिसमें परमेश्वर के निर्देश दिए गए हैं कि परमेश्वर के लोगों को क्या करना है और क्या नहीं करना है; किस तरीके से करना है और किस तरीके से नहीं करना है; और क्योंकि परमेश्वर ने अपना पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी के अन्दर, परमेश्वर के मार्गों में चलने और उसकी सहायता और मार्गदर्शन के लिए प्रदान कर रखा है, इसलिए अब कोई भी व्यक्ति किसी भी बात के लिए अपनी ही धारणा नहीं बना सकता है, परमेश्वर की बातों के साथ अपनी इच्छानुसार व्यवहार नहीं कर सकता है, परमेश्वर के कहे को टाल कर उस बात को किसी मनुष्य के विचारों और निर्देशों के अनुसार करने के लिए अपने आप को स्वतंत्रता नहीं मान सकता है।
अगले दो लेखों में हम पुराने नियम से चार उदाहरण देखेंगे जो बाइबल के इस सिद्धान्त की और दृढ़ता से पुष्टि करते हैं। आज हम दो उदाहरण देखेंगे, दोनों ही इस्राएल के प्रथम राजा – राजा शाऊल के जीवन से हैं। इन दोनों में ही हम देखते हैं कि उसने कुछ ऐसा किया जो देखने में तो परमेश्वर के लिए किया गया भक्ति और श्रद्धापूर्ण कार्य प्रतीत होता था, किन्तु उसने जो किया वह वास्तव में भक्ति के रूप में परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता थी; और फिर जब उसे सुधरने का अवसर दिया गया उसने न तो अपनी गलती को माना, न पश्चाताप किया, और न अपना मार्ग बदला। परिणाम स्वरूप, उसे अपनी इस ढिठाई के कारण अपना राज्य गँवाना पड़ा। शेष दो उदाहरण हम अगले लेख में देखेंगे। ये सभी बाइबल के इस उपरोक्त सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं, जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होने और अच्छे मसीही भण्डारी होने के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल में दिया गया है।
इस अनाज्ञाकारिता का पहला उदाहरण 1 शमूएल 13 अध्याय में दिया गया है, जहाँ शाऊल पलिश्तियों के साथ युद्ध करने के लिए गया, और उसने युद्ध के लिए इस्राएलियों को एकत्रित होने के लिए कहा (13:1-4)। किन्तु पलिश्तियों की विशाल और बलशाली सेना को देखकर इस्राएलियों की हिम्मत जाती रही (13:5-7)। शाऊल प्रतीक्षा में था कि शमूएल उसके पास, अपने द्वारा निर्धारित समय के अनुसार आएगा, और युद्ध में उन के जाने से पहले उन के लिए याजकीय कार्यविधि के अनुसार परमेश्वर को बलिदान चढ़ाएगा। लेकिन शमूएल नियुक्त समय पर नहीं पहुँचा; और क्योंकि लोग शाऊल और युद्धभूमि को छोड़कर वापस जाने लग गए थे (13:8), इसलिए शाऊल ने बात को अपने हाथ में लिया और स्वयं ही वे बलिदान चढ़ा दिए (13:9)। तब ही शमूएल भी पहुँच गया, और यह पता चलने पर कि शाऊल ने क्या किया है, उसे डाँटा। यद्यपि शाऊल ने अपनी ओर से एक उचित प्रतीत होने वाला तर्क दिया, फिर भी परमेश्वर ने शमूएल में होकर उससे कह दिया कि यह करने के कारण उसका राज्य बना नहीं रहेगा (1 शमूएल 13:11-14) – परमेश्वर की ओर से एक कड़ी चेतावनी दी गई, कि या तो अपने मार्ग सुधार ले अन्यथा परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाए। हम यहाँ पर देखते हैं कि शाऊल ने जो किया, परमेश्वर उस से प्रसन्न नहीं हुआ, उसने शाऊल द्वारा चढ़ाए गए बलिदानों को स्वीकार नहीं किया, यद्यपि यह परमेश्वर के प्रति भक्ति और श्रद्धा के अंतर्गत, और एक मजबूरी की स्थिति में किया गया था। शाऊल ने वह तो किया था जो परमेश्वर चाहता था, किन्तु वैसे नहीं किया था, जैसे परमेश्वर चाहता था, जो तरीका उसने निर्धारित किया हुआ था। और इसलिए यह कार्य शाऊल के लिए लाभ का नहीं, वरन हानि का कारण ठहरा।
इसी प्रकार से हम 1 शमूएल 15 अध्याय में देखते हैं कि परमेश्वर ने शमूएल में हो कर राजा शाऊल को निर्देश दिए कि अमालेकियों पर आक्रमण करे और उन्हें तथा उनका जो कुछ भी था, उसे पूर्णतः नष्ट कर दे, किसी भी वस्तु को नहीं बचा रखे (15:1-3)। शाऊल ने सेना को एकत्रित किया और अमालेकियों पर आक्रमण किया (15:4-8); किन्तु सभी अमालेकियों और उनके सब कुछ को नष्ट करने की बजाए, शाऊल ने लोगों के डर के मारे, इस्राएलियों को अपने लिए सबसे अच्छे पशु बचा कर रख लेने दिए (15:9, 24)। शाऊल के द्वारा दिखाया गया यह परमेश्वर के भय से बढ़कर मनुष्य का भय रखना परमेश्वर तथा शमूएल को बहुत बुरा लगा (15:10-11)। किन्तु शाऊल का इसके बाद का व्यवहार दिखाता है कि इस अनाज्ञाकारिता के लिए उसके मन में कोई ग्लानि, कोई पछतावा नहीं था, उसने इसे अपनी एक बहुत बड़ी विजय समझा, और अपने लिए स्मारक भी खड़ा करवा लिया (15:12)। जब उसकी इस अनाज्ञाकारिता के लिए शमूएल उससे बात करने के लिए गया, शाऊल ने पहले ही अपने आप सही ठहराने और झूठ बोलकर जवाबदेही से बचने का प्रयास किया (15:13)। लेकिन जब शमूएल ने तब भी उसका सामना किया, तो उसने एक और झूठ बोला, कि वे पशु परमेश्वर को बलि चढ़ाने के लिए बचाए गए थे (15:14-15)। तब शमूएल उसे डाँटता है, किन्तु साथ ही उसे अपनी गलती को मान लेने और पश्चाताप करने का एक अवसर भी देता है (15:16-19)। किन्तु शाऊल फिर भी अपनी गलती को नहीं मानता है, पश्चाताप नहीं करता है, बल्कि अपने बचाव के लिए और अपने आप को सही ठहराने के लिए तर्क देता है (15:20-21)। तब शमूएल उसे परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों की आज्ञाकारिता के महत्व, उसके सर्वोपरि होने की बात कहने के साथ उसे परमेश्वर के फैसले के बारे में बताता है, कि परमेश्वर ने उसका तिरस्कार कर दिया है (15:22-23)। अब, यद्यपि यह सुनकर, शाऊल गलती मान लेता है, पश्चाताप करता है, किन्तु अब बहुत देर हो चुकी थी। शाऊल के बहुत आग्रह करने पर, उसकी साख रखने के एक प्रदर्शन के बाद शमूएल उस से मुँह मोड़कर चला जाता है, और उसके बाद शाऊल की मृत्यु तक फिर कभी शाऊल से नहीं मिलता है (15:24-35)।
इन दोनों ही घटनाओं में हम देखते हैं कि शाऊल के पास परमेश्वर का वचन आया, किन्तु उसने उस वचन को अपनी ही समझ और परिस्थिति के अनुसार लिया, न कि उसके प्रति एक प्रतिबद्धता और सही रवैया दिखाया। शाऊल ने परमेश्वर के वचन को अपने जीवन में उसका उचित महत्व नहीं दिया, और उसे कीमत चुकानी पड़ी। एक बार फिर से परमेश्वर के वचन का सन्देश हमारे सामने स्पष्ट है, न केवल परमेश्वर के कहे को करना है, वरन जैसा परमेश्वर ने बताया है उसे वैसे ही करना है, तब ही वह परमेश्वर की आज्ञाकारिता माना जाएगा। जो परमेश्वर की बातों को अपनी ही धारणा के अनुसार लेते हैं, और अपनी ही इच्छा के अनुसार काम करते हैं, और फिर यह अपेक्षा रखते हैं कि परमेश्वर उनके प्रयासों को स्वीकार करेगा और उन प्रयासों के लिए उन्हें आशीष देगा, उन्हें अपनी इस ढिठाई और अनाज्ञाकारिता के लिए परमेश्वर के न्याय को झेलना ही पड़ेगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Improper Behavior Towards God’s Word – 7
In the previous articles we have seen from the incidence of Israel’s deliverance from Egypt through Moses, and then through God’s commanding them to build a Tabernacle for Him for His worship, that obedience to God not only means doing what God has asked to be done, but also means doing it the way God has said it has to be done. Since now we have God’s written Word available in our hands, containing God’s instructions for His people, what to do and what not to do; how to do and how not to do; and since God has also placed His Holy Spirit in each and every Believer to help and guide him in the ways of God; therefore now no person can assume things, take things into his own hands and do what God has commanded to be done in a way that some person has thought up, and in any manner that seems right for men to do.
In the next two articles, we will see four examples from the Old Testament to further illustrate this principle. We will see two examples today, both from the life of King Saul – the first king of Israel. In both of them he apparently seemed to be reverential and doing things for God, but what he in a seemingly reverential manner did, was actually disobedience of God; and when given the opportunity for correction, he did not confess, repent, or change his ways. Consequently, he lost his kingdom because of this persistent disobedience. The other two examples we will see in the next article. They all serve to further illustrate and affirm this Biblical principle related to obedience to God and Christian Stewardship to God’s instructions in His Word the Bible.
The first incidence of this disobedience is in 1 Samuel 13, where Saul has gone into battle with the Philistines, and had sent for the Israelites to assemble for the battle (13:1-4). But seeing the great and mighty army of the Philistines, the Israelites lost courage (13:5-7). Saul was waiting for Samuel to come according to the time set by him for making the offerings to God according to the priestly functions, before getting into the battle. But Samuel did not reach at the appointed time; and since the people had started to run away from Saul and the battle (13:8), therefore, Saul took matters into his own hands and himself offered the sacrifices and offerings to God (13:9). Just them Samuel reached, and on learning what Saul had done admonished him. Though Saul offered a plausible explanation of why he had done it, yet God, through Samuel, told him that because of this his kingdom will not continue (1 Samuel 13:11-14) – a stern warning from God to either mend his ways or face the consequences. We see here that God was not impressed with what Saul did, and did not accept the offerings and sacrifices Saul made, even though it was done in reverence to God, and seemingly under a compulsion. Saul had done what God wanted, but not in the manner ordained by God, and therefore it turned out to be for his harm, not good.
Similarly, we see in 1 Samuel 15 that God, through Samuel, instructs Saul to attack the Amalekites, and utterly destroy them and whatever they had, saving nothing whatsoever (15:1-3). Saul gathered the army and attacked the Amalekites (15:4-8); but instead of destroying everyone and everything, Saul allowed the Israelites to keep the best animals for themselves, out of fear of the people (15:9, 24). This fear and obedience to man over and above the fear and obedience to God by Saul greatly displeased God and Samuel (15:10-11). But his subsequent behavior shows that Saul had no remorse for what he had done, he thought of it as a great victory, and set up a monument for himself (15:12). When Samuel met him to confront him about his disobedience, Saul tried to pre-empt him and lie his way out of the situation (15:13). But when Samuel confronted him, he spoke another lie, that the animals were saved to offer sacrifices to God (15:14-15). Then Samuel admonishes him, but gives him another chance to accept his error and repent (15:16-19); but Saul still does not confess and repent, rather defends and justifies himself (15:20-21). It is then that Samuel, stating the importance and primacy of obedience to God’s instructions, delivers God’s verdict to him, that he has been rejected by God (15:22-23). Now, on hearing this, although Saul confesses and repents, but it is too late. At Saul’s pleading, after permitting him a face-saving gesture before the people Samuel walks away from Saul, never to see him again till his death (15:24-35).
In both instances we see that Saul received God’s Word, but interpreted and understood it according to his own thinking about the situation, instead of showing a commitment and proper attitude towards it. Saul failed to give God’s Word its due importance in his life, and paid the price. Once again, the message of God’s Word is clear, not only doing what God has said, but also doing it in the manner God has said actually makes for obedience to God. Those who assume things and act on their own, and then expect God to accept their efforts and bless them for those efforts, will have to suffer God’s judgment for their persistently disobedient ways.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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