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बुधवार, 27 मार्च 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 22

 


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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 19

 

    हमने पिछले लेखों में देखा है कि मन-फिराव या पश्चाताप और सुसमाचार में विश्वास करना दो ऐसी शिक्षाएँ हैं जो सुसमाचार के बारे में सीखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन में से हमने पश्चाताप से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण किन्तु बहुत कम विचार की जाने वाली और सिखाई जाने वाली शिक्षाओं को देखा है; और अब हम सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में, पिछले लेख में हमने देखा है कि पहली कलीसिया में केवल वे ही सम्मिलित किये जाते थे जिन्होंने उद्धार पाया था, जो विश्वासी थे, अर्थात जिन्होंने अपने पापों से पश्चाताप किया और व्यक्तिगत रीति से प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया था; अन्य कोई नहीं – उद्धार पाने वाले विश्वासी के परिवार के सदस्य भी नहीं। और, कलीसिया में जो भी जोड़ा जाता था, वह केवल प्रभु यीशु ही के द्वारा जोड़ा जाता था; किसी भी मनुष्य को, वह चाहे कोई भी क्यों न हो, न तो अनुमति थी और न ही अधिकार था कि वह किसी को भी कलीसिया में जोड़ दे। पहली कलीसिया के समय में, जो कोई भी प्रभु के पीछे चलना चाहता था और उसकी कलीसिया का भाग बनना चाहता था, उसका व्यक्तिगत रीति से, स्वेच्छा से, और समझते-बूझते हुए उद्धार होना, विश्वासी बनना अनिवार्य था। किसी व्यक्ति के प्रभु के पीछे हो लेने का निर्णय स्वतः ही उसके परिवार के सदस्यों पर लागू नहीं हो जाता था; और किसी परिवार के प्रभु के पीछे चलने का निर्णय स्वतः ही किसी ऐसे सदस्य पर लागू नहीं होता था जो परिवार के इस निर्णय से सहमत न हो।

    हम प्रेरितों 5:14 से देखते हैं कि प्रेरितों और प्रभु यीशु शिष्यों की सेवकाई के द्वारा विश्वासियों की संख्या में बहुतायत से वृद्धि हुई (प्रेरितों 5:42), और बहुतेरे विश्वास करने वाले स्त्री और पुरुष प्रभु में जुड़ गए। साथ ही, प्रेरितों 6:1 में लिखा है कि शिष्य बहुत होते जा रहे थे। ध्यान कीजिए कि इस समय तक परमेश्वर का वचन प्रभु यीशु के पीछे चलने वालों को चेले या शिष्य ही कह रहा है; उन्हें “मसीही” संबोधित नहीं कर रहा है। स्तिफनुस के मारे जाने के बाद, यरूशलेम में कलीसिया पर बड़ा सताव आया, और कलीसिया के अधिकाँश सदस्य, जो, जैसा हम देख चुके हैं, उद्धार पाए हुए विश्वासी थे, आस-पास के इलाकों में तित्तर-बित्तर हो गए (प्रेरितों 8:1)। उस समय पौलुस, जो तब शाऊल के नाम से जाना जाता था, प्रभु के शिष्यों को सताने में लगा हुआ था (प्रेरितों 9:1); और यहाँ तक परमेश्वर के वचन में उन्हें अभी भी “शिष्य” या चेले ही कहा गया है। फिर, प्रेरितों 18:25-26 में, पवित्र आत्मा ने, अपुल्लोस, अक्विला, और प्रिस्किल्ला की सेवकाई के सन्दर्भ में एक नई अभिव्यक्ति लिखवाई है -  “प्रभु का मार्ग।” और फिर यह अभिव्यक्ति प्रभु के शिष्यों पर भी लागू की गई, और उन्हें “मार्ग या पन्थ” के लोग कहा गया, और उनके विश्वास तथा जीवन जीने के तरीके को वचन में “मार्ग या पन्थ” कहा गया (प्रेरितों 19:9, 23; 22:4; 24:14, 22)।

    यहाँ पर ध्यान देने के लिए दो महत्वपूर्ण बातें हैं: पहली, यह अभिव्यक्ति “मार्ग या पन्थ” प्रभु यीशु के पीछे चलने वालों के लिए, प्रभु के शिष्यों के लिए उपयोग किया गया है; अर्थात, किसी व्यक्ति के “मार्ग या पन्थ” का जन होने का मापदण्ड वही था जो प्रभु यीशु का शिष्य होने का था – व्यक्तिगत रीति से, स्वेच्छा से, समझ-बूझ के साथ पापों से पश्चाताप करने, प्रभु की आज्ञाकारिता में उसे समर्पित जीवन जीने का निर्णय लेना। कहीं पर भी ऐसा कोई लेख अथवा संकेत नहीं है कि किसी को भी “मार्ग या पन्थ” में किसी अन्य रीति से सम्मिलित किया गया हो। दूसरी, बाइबल में कहीं पर भी न तो कहा गया है और न ही कोई संकेत दिया गया है कि प्रभु के पीछे चलना, किसी धर्म का निर्वाह करने, किसी धर्म का अनुयायी होने के लिए धर्म-परिवर्तन करने, या कुछ निर्धारित धार्मिक रीति-रिवाज़ों का पालन करने के समान थे। बाइबल के अनुसार वास्तविक मसीहियत कभी भी कोई धर्म नहीं थी, अभी भी कोई धर्म नहीं है, और न ही कभी कोई धर्म होगी। यह हमेशा ही प्रभु और उसके वचन में अपने विश्वास को जीने का मार्ग है, और हमेशा ही यही रहेगा। मसीही विश्वास, यह “मार्ग,” और मसीही या ईसाई धर्म, यद्यपि वे एक ही नाम – यीशु मसीह, और एक ही पुस्तक – बाइबल को तो लेते हैं, किन्तु वे दोनों दो बिलकुल भिन्न बातें हैं। मसीही विश्वास पूर्णतः पापों से पश्चाताप करने, और प्रभु यीशु तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता और समर्पण में जिए गए जीवन, उसी के मार्ग पर चलने, और प्रभु के द्वारा धर्मी और सही किये जाने के द्वारा परमेश्वर को स्वीकार्य होने और उसके राज्य में प्रवेश करने के बारे में है। जबकि मसीही या ईसाई धर्म पूर्णतः मनुष्यों की आज्ञाकारिता, मनुष्यों के नियमों के निर्वाह, और धार्मिक रीतियों परम्पराओं, पर्वों, और त्यौहारों आदि के पालन के बारे में है, और इन में से अधिकाँश बातें मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई बातें हैं, उनका बाइबल में कहीं कोई उल्लेख नहीं है, पहली कलीसिया ने कभी उनका पालन या निर्वाह नहीं किया; किन्तु इस धर्म के अनुयायी इस बात में भरोसा रखते हैं कि उनके द्वारा इन धार्मिक बातों के पालन के द्वारा वे धर्मी बन जाएँगे, और परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएँगे तथा परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पा जाएँगे – और हमने पहले के लेख में कई उदाहरणों को देखा है कि यह एक व्यर्थ, निरर्थक, निष्फल विचार है, जिसका परमेश्वर के वचन में कोई समर्थन नहीं है।

    हम अगले लेख में इस से आगे देखेंगे, और इसके बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 19

 

    We have seen in the previous articles that repentance and believing in the gospel are two teachings of paramount importance in learning about the gospel. Of these, we have considered some important but rarely considered and taught teachings related to repentance; and are now considering teachings related to believing in the gospel. In this context, in the last article we had seen that in the first Church, only those who were saved, by repenting of their sins and accepting the Lord Jesus as their personal savior, i.e., those who were Believers, were added to the Church, and none else; not even the family members of the saved person, the Believer. Whoever was added to the Church, was added only by the Lord Jesus; no man, whoever he may have been, had the permission or authority to add anyone to the Lord’s Church, and no one took it upon himself to add anyone to the Church. At the time of the first Church, everyone who wanted to follow the Lord and be a part of His Church, had to be saved, had to become a Believer, individually, voluntarily, and deliberately. A person’s decision to follow the Lord did not automatically also apply to his family members; and a family’s decision to follow the Lord did not automatically apply to an individual who did not go with the family’s decision.

    We see from Acts 5:14 that through the ministry of the Apostles and the disciples of the Lord Jesus (Acts 5:42), the number of Believers increased rapidly, and multitudes of believing men and women were added to the Lord. Again, it says in Acts 6:1 that the number of disciples were multiplying. Note that till this point God’s Word calls the followers of the Lord Jesus as ‘disciples;’ it does not speak of them as “Christians.” Following the martyrdom of Stephen, a great persecution of the Church arose in Jerusalem, and most of the Church members, who, we have seen, were all saved and Believers, were scattered into the surrounding regions (Acts 8:1). Paul, then known as Saul, continued to wreak havoc amongst the followers of the Lord (Acts 9:1), who are still being referred to as “the disciples of the Lord” in God’s Word. Then in Acts 18:25-26, the Holy Spirit, in relation to the ministry of Apollos, Aquilla, and Priscilla, introduces a new term for following the Lord – “the way of the Lord.” This term is then applied to the disciples, the followers of the Lord, and they are called “the people of The Way” and their faith and way of living is called “The Way” (Acts 19:9, 23; 22:4; 24:14, 22) in the Word.

    There are two important things to note here: firstly, this term “the way” has been applied to the disciples, or the followers of the Lord Jesus; i.e., the basic criteria of being a person of ‘the way’ was the same as it was for being a follower of the Lord – individually, voluntarily, deliberately deciding to repent of sins, obey and follow the Lord Jesus. There is no mention or indication that anyone was ever inducted into ‘the way’ through any other means. Secondly, never ever, nowhere in the Bible has following the Lord Jesus ever been stated, or even implied as being the same as following a religion, converting to a religion, and adhering to some prescribed religious practices and rituals. True Biblical Christianity never was a religion, is still not a religion, and never will be religion. It always has been a way of living out ones Faith in the Lord Jesus and His Word, and that is what it always will be. The Christian Faith, the Way, and Christian religion, though associated with the same name – Jesus Christ, and the same book – the Bible, are two entirely different things. Christian Faith is all about repenting of sins, and living a life submitted and obedient to the Lord Jesus and His Word, and following His Way, trusting in the Lord to for being righteous and acceptable to God, to enter His kingdom. Whereas Christian religion is all about obeying men, commandments of men, and fulfilling religious rites, rituals, feasts, festivals etc. most of which are man devised, have never even been mentioned in the Bible, were never instituted by God, and were never practised by the first Church, and trusting that fulfilling of these religious activities will make person righteous and acceptable to God, to enter His Kingdom – and we have seen from many examples earlier that this is a vain, futile thought, that has no support whatsoever from God’s Word.

    We will carry on from here in the next article, and explore this a little more.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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