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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 20
मसीही की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए, उसे परमेश्वर के वचन बाइबल से भली-भान्ति अवगत, तथा अपने जीवन में उसकी शिक्षाओं का पालन करने वाला होना चाहिए। पहले के लेखों में, इस श्रृंखला के आरम्भ में हमने तीन प्रकार की बाइबल की शिक्षाओं के बारे में देखा था, जो इस आत्मिक उन्नति एवं बढ़ोतरी के लिए आधारभूत हैं; ये तीन प्रकार की शिक्षाएँ हैं – सुसमाचार से सम्बन्धित, आरंभिक बातों से सम्बन्धित, और व्यवहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित। वर्तमान में हम सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं, और इस में हमने देखा है कि मन-फिराव या पश्चाताप से सम्बन्धित शिक्षाएँ और सुसमाचार में विश्वास करने से सम्बन्धित शिक्षाएँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इस सन्दर्भ में हम पश्चाताप से सम्बन्धित शिक्षाओं को देख चुके हैं, और सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित शिक्षाओं को सीखने और समझने के लिए हमने कहा था कि हमें यह समझना और जानना आवश्यक है कि बाइबल के अनुसार मसीही या ईसाई होने का क्या अर्थ है।
पिछले कुछ लेखों में हमने बाइबल के नए नियम की सुसमाचारों तथा प्रेरितों के काम पुस्तकों से देखा है कि इस आम धारणा का बाइबल में कोई समर्थन, कोई आधार नहीं है कि एक “मसीही या ईसाई” परिवार में जन्म लेने और ईसाई धर्म के कुछ रीति-रिवाज़ों को पूरा कर लेने के द्वारा कोई स्वतः ही “मसीही,” परमेश्वर को स्वीकार्य, और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य बन जाता है; ये सभी बाइबल के बाहर की और बिलकुल गलत धारणाएँ और शिक्षाएँ हैं। बाइबल की शिक्षा बहुत स्पष्ट और साफ़ है कि केवल वे ही जो अपने पापों से पश्चाताप करते हैं, अपने ऊपर प्रभु यीशु मसीह के प्रभुत्व को स्वीकार करते हैं, और व्यक्तिगत रीति से, स्वेच्छा से, और समझते-बूझते हुए प्रभु यीशु और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन जीने का निर्णय लेते हैं, केवल वे ही प्रभु यीशु के अनुयायी, उसके शिष्य हैं। पिछले लेख में हमने देखा है कि इस प्रकार का जीवन, और प्रभु के अनुसरण करने को वचन में “प्रभु का मार्ग” कहा गया है और उन्हें जो ऐसा करने का निर्णय लेते हैं “मार्ग या पन्थ” के लोग कहा गया है। सामान्य समझ और आम धारणा के बिलकुल विपरीत, बाइबल में ऐसा कोई उल्लेख अथवा संकेत भी नहीं है कि प्रभु यीशु का अनुसरण करना, उसका शिष्य होना किसी धर्म से और कुछ धार्मिक बातों की पूर्ति से सम्बन्धित है; बल्कि, बाइबल की शिक्षा तो यही है कि प्रभु का शिष्य होना सदा ही प्रभु और उसके वचन के प्रति समर्पित एवं आज्ञाकारी होने से सम्बन्धित है। आज हम देखेंगे कि शब्द “मसीही” प्रभु यीशु के शिष्यों या अनुयायियों के साथ किसे प्रकार से जुड़ा।
प्रेरितों 11:26 में, बाइबल में तथा मसीहियत के इतिहास में पहली बार, शब्द “मसीही” का उपयोग किया गया है “…और चेले सब से पहिले अन्ताकिया ही में मसीही कहलाए।” एक बार फिर यहाँ पर हम देखते हैं कि प्राथमिक स्थान और अनिवार्य आवश्यकता शिष्य होने की है, जैसा कि इस पद में लिखा हुआ है, प्रभु यीशु के शिष्य ही मसीही कहलाए थे; न कि किसी धर्म का पालन करने वाले, और न ही वे जो किसी प्रकार की धार्मिक रीतियों, रिवाज़ों, या बातों का निर्वाह करते थे। इस प्रकार से यहाँ पर हमारे लिए बाइबल में मसीही होने की परिभाषा दी गई है, जिसे पवित्र आत्मा ने सभी समयों और हर स्थानों के लिए परमेश्वर के वचन में लिखवा दिया है कि मसीही कौन है – एक मसीही, मसीह का शिष्य है; और हमने ऊपर देखा है कि कैसे और किस आधार पर व्यक्ति प्रभु यीशु का शिष्य होता है। यह एक सामान्य ज्ञान तथा साधारण समझ की बात है कि कोई भी कभी भी किसी का शिष्य बनकर जन्म नहीं लेता है; प्रत्येक को किसी का भी शिष्य होने के लिए व्यक्तिगत रीति से निर्णय लेना होता है। इसलिए, पहले कही हुई बात को दोहराते हुए, कोई भी कभी भी प्रभु यीशु का शिष्य या अनुयायी बनकर जन्म नहीं लेता है; प्रत्येक को पापों के पश्चाताप और यीशु मसीह के प्रभुत्व को स्वीकार करने, और उसको समर्पित तथा उसकी आज्ञाकारिता में जीवन जीने का निर्णय लेने के द्वारा, नया-जन्म लेने के द्वारा, प्रभु का शिष्य बनना होता है। शब्द “मसीही” बाइबल में दो अन्य स्थानों पर प्रेरितों 26:28 और 1 पतरस 4:16 में भी आया है, और दोनों ही स्थानों पर यह प्रभु यीशु का शिष्य होने के संदर्भ में ही आया है।
परमेश्वर के वचन से देखने और समझने के बाद कि वास्तव में “मसीही” होने का क्या अर्थ है, अब हम प्रभु द्वारा अपने स्वर्गारोहण से पहले शिष्यों को दी गई आज्ञा, जिसे प्रभु की ‘महान आज्ञा’ भी कहा जाता है, को और मसीही होने के अभिप्रायों को बेहतर समझ सकते हैं। इस महान आज्ञा में प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा था, “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं” (मत्ती 28:19-20)। ध्यान कीजिए कि प्रभु ने अपने शिष्यों से कभी यह नहीं कहा कि वे जा कर किसी धर्म को सिखाएँ और धर्म का प्रचार करें, या लोगों को किसी धर्म में परिवर्तित करें। बाइबल का यह एक मौलिक तथ्य है कि प्रभु यीशु ने न तो किसी धर्म का आरम्भ किया, न किसी धर्म के बारे में प्रचार किया, न किसी धर्म के पालन को सिखाया। प्रभु ने तो अपने शिष्यों से स्पष्ट यही कहा कि वे जाकर सब जातियों के लोगों में से शिष्य बनाएँ। ध्यान देने योग्य एक अन्य बात है कि प्रभु का शिष्य बनना बपतिस्मे के द्वारा नहीं होता है; वरन, जो प्रभु के शिष्य बन जाते हैं, अपने पापों से पश्चाताप कर लेते हैं, अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर देते हैं, प्रभु ने उन्हें बपतिस्मा दिए जाने के लिए कहा है। दूसरे शब्दों में, बपतिस्मा कभी किसी को “मसीही” नहीं बनाता है; लेकिन जो बाइबल की परिभाषा के अनुसार मसीही बन जाते हैं, उन्हें प्रभु की आज्ञा के अनुसार बपतिस्मा दिया जाना है। इसलिए, वास्तविक बपतिस्मा केवल वयस्कों का ही है, कभी भी शिशुओं या बच्चों का नहीं हो सकता है, क्योंकि वे कभी भी जन्म से ही प्रभु के शिष्य नहीं हो सकते हैं, बपतिस्मे की मूल आवश्यकता को पूरा नहीं करते हैं। साथ ही, यहाँ पर प्रकट है कि प्रभु ने बपतिस्मा देने का अधिकार अपने सभी शिष्यों को दिया है; कोई भी सच्चा शिष्य, किसी अन्य, नए विश्वासी को बपतिस्मा दे सकता है। बपतिस्मा देने के लिए कोई विशेष योग्यता अथवा प्रशिक्षण का होना प्रभु द्वारा कहीं नहीं कहा गया है, बाइबल में ऐसा कहीं नहीं लिखा गया है। बपतिस्मे को वैध ठहराने के लिए यह विशेष योग्यता और प्रशिक्षण मसीही विश्वास की नहीं बल्कि ईसाई धर्म की; और उस धर्म की अन्य बातों के समान, बाइबल से बाहर की मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई मांग है। प्रभु की महान आज्ञा में ध्यान देने योग्य अगली बात है कि जो प्रभु के शिष्य बनते हैं, प्रभु ने कहा है कि “...उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ;” अर्थात, उन्हें परमेश्वर का वचन सिखाया जाना है, न कि मनुष्यों द्वारा बनाई गई रीतियाँ, परम्पराएँ, और धर्म-सिद्धान्त सिखाने हैं, जैसा कि सामान्यतः सभी डिनॉमिनेशन और मतों में किया जाता है, जहाँ पर सदस्यों को परमेश्वर के वचन के नाम पर उस डिनॉमिनेशन या मत की शिक्षाएँ और विचार सिखाए जाते हैं। यह उसी के समान है जो प्रभु यीशु ने मत्ती 15:7-9 में अपने समय के धर्म के अगुवों के लिए कहा और उन्हें उसके लिए फटकार लगाई, उन्हें कपटी कहा, और उनकी आराधना को “व्यर्थ आराधना” बताया।
अब, परमेश्वर के वचन से “मसीही” होने के अर्थ और अभिप्राय को समझने और सीखने के बाद, हम आगे बढ़ सकते हैं और सुसमाचार में विश्वास करने से सम्बन्धित बातों को और आगे देख सकते हैं, जो हम अगले लेख में करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 20
For a Christian’s growth and edification, he needs to be well versed in God’s Word the Bible, and apply its teachings in his life. In earlier articles, at the beginning of this series, we have seen three kinds of Biblical teachings – those related to the gospel, those related to the elementary principles of Christ, and those related to practical Christian living, are fundamental to this growth and edification. Presently we are considering the teachings related to the gospel, and in this we have seen that learning the teachings related to repentance and about believing in the gospel is of paramount importance. In this context we have already considered teachings related to repentance, and in learning teachings related to believing the gospel, we had said that to understand what believing in the gospel means, we need to understand what, Biblically speaking, being a Christian actually means.
In the past few articles, from the Gospel Accounts and the Book of Acts in the New Testament section of the Bible, we have seen that there is no Biblical support, no grounds whatsoever, for the very common notion that by being born in a “Christian” family and fulfilling certain rites and rituals of the Christian religion, one automatically is a “Christian,” is acceptable to God, and will enter God’s Kingdom; these are unBiblical and absolutely wrong concepts and teachings. The Biblical teaching is very clear and unambiguous that only those who repent of their sins, accept the Lordship of Christ Jesus, and individually, voluntarily, deliberately decide on living a life of surrender and obedience to the Lord Jesus and His Word, only they are the followers of the Lord, His disciples. In the last article we have seen that this kind of living, of following the Lord, was called “the way of the Lord” in the Word and those who had made this decision, i.e., the disciples of the Lord Jesus, were known as “the people of the Way.” Quite unlike the common understanding and popular notion, there is no mention or indication in the Bible of following the Lord Jesus, being His disciple ever being a religion, a matter of fulfilling religious observances; rather the Biblical concept is, being His disciple is always about submission and obedience to the Lord, His Word, and of discipleship. Today we will see how the word “Christian” came to be associated with the disciples or followers of the Lord Jesus.
In Acts 11:26, for the first time in the Bible, and in the history of Christianity, the word “Christian” has been used “…And the disciples were first called Christians in Antioch.” Once again, we see the primary position and undeniable necessity of being a disciple – as written in the verse, it was the disciples of the Lord Jesus who were called Christians; and not the followers of any religion, not those who fulfilled any religious rites, rituals, and observances. So here we have the Biblical definition, that the Holy Spirit has had recorded in God’s Word for all times and for the whole world, of who a Christian is – a Christian is a disciple of Christ; and we have seen above and earlier, how and on what grounds one becomes a disciple of the Lord Jesus. It is a matter of general knowledge and common sense that no one can ever be born as a disciple of someone; everyone must personally decide and become someone’s disciple. Hence, to reiterate what has been stated before, no one can be born as a disciple or follower of the Lord Jesus; everyone must be Born-Again through repentance of sins, acceptance of the Lordship of Jesus Christ, and deciding to live surrendered and obedient to Him. The word “Christian” has been used two more times in the Bible, in Acts 26:28 and in 1 Peter 4:16, and at both places it is in context of being a follower of disciple of the Lord Jesus.
Having seen and understood from God’s Word, what it actually means to be a “Christian” we can now better comprehend the Lord’s commandment to His disciples, the Great Commission given by the Lord before His ascension, and understand some of the implications of being a Christian. In this Great Commission, the Lord said to His disciples, “Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, teaching them to observe all things that I have commanded you; and lo, I am with you always, even to the end of the age." Amen.” (Matthew 28:19-20). Note that the Lord never asked His disciples to go, preach and teach any religion, or convert people to any religion. The basic truth of the Bible is that the Lord neither propounded nor preached and taught any religion; nor did He ask His disciples to go and preach and teach any religion, or convert anyone from one religion to another. The Lord clearly stated to His disciples to go and make disciples of all nations. Another thing to take note of is that this discipleship was not conferred by baptism; instead, those who had become disciples, had repented of their sins, and surrendered their lives to the Lord Jesus, they were to be baptized. In other words, baptism never makes anyone a “Christian;” but those who become Christians by the Biblical definition, they are to be baptized, as the Lord has commanded. Therefore, true Biblical baptism is always of adults, never of infants and children, since they are not the disciples of Christ Jesus by birth and do not fulfil the basic requirement of being baptized. It is to be noted that the Lord gave all His disciples the authority to baptize; any true disciple of the Lord can baptize a new Believer. The Lord has never stated any special ability or training to baptize, nor is it written anywhere in the Bible. The demand for this special ability or training to for the baptism to be legitimate is not found in Christian Faith; but it is a demand of the Christian religion, and like most of the other things of the religion, this too is extra-Biblical, having been contrived by men. The next thing to note in the Lord’s Great Commission is that those who become disciples of the Lord, they are to be taught “...to observe all things that I have commanded you;” i.e., they are to be taught God’s Word, not man-made traditions, rituals, and doctrines, as is usually done in all denominations and sects where the members are taught the denomination’s doctrinal beliefs and the denominational teachings in the name of God’s Word. This is the same as what the Lord Jesus rebuked the religious leaders of His time for, in Matthew 15:7-9, calling them hypocrites and their worship as “vain worship.”
Now, having understood from God’s Word, the meaning, and implications of the term “Christian,” we can now move ahead and understand what it means to believe in the gospel; and we will look into this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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