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शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

Some Related Questions and their Answers / कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (5b)

 

पाप और उद्धार को समझना – 42

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पाप का समाधान - उद्धार - 39

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (5b)


पिछले लेख में हमने प्रश्न "क्या उद्धार पा लेने, प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बन जाने से व्यक्ति संसार के दुख-तकलीफों, बीमारियों, समस्याओं, आदि से मुक्त हो जाता है, और सांसारिक समस्याओं से निश्चिंत होकर जीवन जीने लगता है?" पर विचार करना, और बाइबल स इसके उत्तर को देखना आरंभ किया था। हमने देखा था कि बाइबल में, सुसमाचारों में, न तो प्रभु यीशु मसीह ने, और न ही प्रभु के बाद मसीही सेवकाई में संलग्न उनके शिष्यों ने कभी ऐसा कोई आश्वासन, ऐसी कोई शिक्षा दी। वरन प्रभु ने भी, और प्रभु के शिष्यों ने भी यह स्पष्ट कर दिया कि मसीही विश्वास का जीवन दुख, क्लेश, सताव, आदि को सहते रहने का जीवन है। इसलिए जो भी सुसमाचार प्रचार यह कहते हुए करते हैं कि मसीही विश्वास में आ जाने से व्यक्ति संसार के दुख-तकलीफों, बीमारियों, समस्याओं, आदि से मुक्त हो जाता है, वह एक मन-गढ़न्त झूठे आश्वासन का प्रचार करते हैं, बाइबल की सच्चाई का नहीं। आज हम इस विषय पर अपने मनन को आगे ज़ारी रखेंगे।  


परमेश्वर के वचन बाइबल में और भी अनेकों पद हैं जो यह दिखाते हैं कि मसीही जीवन संघर्ष का और संसार के लोगों के बैर और विरोध का निरंतर सामना करते रहने का जीवन है; और जो भी प्रभु यीशु के पीछे चलना चाहता है, उसे यह सब सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। किन्तु साथ ही प्रत्येक मसीही विश्वासी को यह परमेश्वर से आश्वासन भी है कि उसकी प्रत्येक परिस्थिति में प्रभु उसके साथ होगा, उसे समझ, शक्ति, और शांति देगा कि वह उन परिस्थितियों का सामना कर सके “मैं ने ये बातें तुम से इसलिये कही हैं, कि तुम्हें मुझ में शान्ति मिले; संसार में तुम्हें क्लेश होता है, परन्तु ढाढ़स बांधो, मैं ने संसार को जीत लिया है” (यूहन्ना 16:33), और उसे उन सब में से भी सुरक्षित निकाल कर लाएगा, और अंततः सब बातें मिलकर प्रभु के जन के लिए भलाई ही को उत्पन्न करेंगी “और हम जानते हैं, कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उन के लिये सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती है; अर्थात उन्हीं के लिये जो उस की इच्छा के अनुसार बुलाए हुए हैं” (रोमियों 8:28)। 


    पूरा नया नियम इस बात का गवाह है कि प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों को हर स्थान पर, अपनी सारी सेवकाई के दिनों में बहुत से दुखों, क्लेशों, और सताव का सामना करना पड़ा है। जीवन कभी भी उनके लिए सहज और सरल नहीं रहा; वरन जिनके मध्य में होकर उन्होंने प्रभु की सेवकाई की और जिन लोगों की भलाई की, उन्हीं में से उनके बैरियों-विरोधियों ने निकलकर उनके लिए बहुत परेशानियाँ उत्पन्न कीं। किन्तु फिर भी जिसने एक बार प्रभु के प्रेम, कृपा, अनुग्रह, और उद्धार के स्वाद को चख लिया, एक बार जिसने प्रभु की शान्ति और आशीष को अपने जीवन में तमाम कठिनाइयों और मुसीबतों के मध्य में अनुभव कर लिया, जिसने एक बार प्रभु यीशु मसीह की वास्तविकता और खराई को पहचान लिया, फिर संसार के ये क्लेश उसके लिए निराश का नहीं, वरन उस अद्भुत, उत्तम स्वर्गीय आशा का प्रमाण बन गए, जो परमेश्वर ने उसके लिए रखी हुई है, और उस उत्तम आशीष की लालसा रखते हुए वे इन सभी बातों को सहर्ष सहन कर लेते हैं “क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश हमारे लिये बहुत ही महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न करता जाता है। और हम तो देखी हुई वस्तुओं को नहीं परन्तु अनदेखी वस्तुओं को देखते रहते हैं, क्योंकि देखी हुई वस्तुएं थोड़े ही दिन की हैं, परन्तु अनदेखी वस्तुएं सदा बनी रहती हैं” (2 कुरिन्थियों 4:17-18)। फिर शारीरिक चंगाई का उसके लिए कोई विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि वह व्यक्ति जानता है कि एक दिन तो शरीर ने मिटना ही है; और जो भी रोग या अस्वस्थता उसमें है, प्रभु उसमें भी उसकी सहायता करेगा, उसे आशीष देगा “और उसने मुझ से कहा, मेरा अनुग्रह तेरे लिये बहुत है; क्योंकि मेरी सामर्थ्य निर्बलता में सिद्ध होती है; इसलिये मैं बड़े आनन्द से अपनी निर्बलताओं पर घमण्ड करूंगा, कि मसीह की सामर्थ्य मुझ पर छाया करती रहे। इस कारण मैं मसीह के लिये निर्बलताओं, और निन्‍दाओं में, और दरिद्रता में, और उपद्रवों में, और संकटों में, प्रसन्न हूं; क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूं, तभी बलवन्‍त होता हूं” (2 कुरिन्थियों 12:9-10)।


किसी भी मसीही विश्वासी को इन परिस्थितियों से घबराने की आवश्यकता नहीं है, “...क्योंकि उसने आप ही कहा है, कि मैं तुझे कभी न छोडूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा। इसलिये हम बेधड़क हो कर कहते हैं, कि प्रभु, मेरा सहायक है; मैं न डरूंगा; मनुष्य मेरा क्या कर सकता है” (इब्रानियों 13:5-6), और साथ ही प्रभु का अपने विश्वासियों, अपने शिष्यों के लिए यह भी आश्वासन है कि उन्हें उनके सहने की सीमा से बाहर कभी किसी परीक्षा का सामना नहीं करना पड़ेगा “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको” (1 कुरिन्थियों 10:13)। शैतान और उसके लोग तो हमें निराश करने और गिराने, विश्वास से भटकाने, प्रभु पर संदेह करने के लिए बहुत से प्रयास करेंगे। इसलिए शैतान के द्वारा फैलाई जा रही इन बातों पर ध्यान मत दीजिए। प्रभु के आपके प्रति प्रमाणित किए गए प्रेम, कृपा, और अनुग्रह, तथा उसके द्वारा आपको प्रदान किए जा रहे पाप-क्षमा प्राप्त करने के अवसर के मूल्य को समझिए, और अभी इस अवसर का लाभ उठा लीजिए।

 

आप को पाप से मुक्ति दिलाने और परमेश्वर से मेल-मिलाप करके, उसकी सन्तान बनकर अनन्तकाल तक रहने के लिए प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है? आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।  


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 Understanding Sin and Salvation – 42

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 39

Some Related Questions and their Answers (5b)


In the previous article we had started to consider the question "By being saved and Born-Again, and becoming a disciple of Lord Jesus Christ, is a person delivered from the worldly problems and pains, from sickness, adverse situations etc. and begins to live a life free of problems of the world?" and seek its answer from the Bible. We had seen that in the Bible, in the gospel accounts, neither the Lord Jesus, nor after the Lord His disciples engaged in Christian Ministry, ever give any such teaching or assurance to anyone. Rather, not only the Lord, but also the Disciples made it very clear that the life of Christian Faith is a life of continually suffering pain, persecution, and problems. Therefore, those who while preaching the gospel say that, after coming into the Christian Faith a person delivered from the worldly problems and pains, from sickness, adverse situations etc. and begins to live a life free of problems of the world preach their own contrived idea and not the facts of the Bible. Today we will continue to further ponder over this topic.  


In God's Word the Bible, there are many other verses that show that the Christian life is a life of struggles, of facing the opposition of the world and persecution from the worldly people; and anyone who wants to follow the Lord Jesus, should be ready to face and suffer all of this. But every Christian Believer also has this assurance from God that in every problem and situation he faces, God will be with him, give him the required wisdom, power, and peace to face those situations, “These things I have spoken to you, that in Me you may have peace. In the world you will have tribulation; but be of good cheer, I have overcome the world." (John 16:33), will safely carry him through those circumstances safe and secure, and eventually all things will work together for the good of the follower of the Lord “And we know that all things work together for good to those who love God, to those who are the called according to His purpose” (Romans 8:28).


The whole of the New Testament is a witness to this fact that the followers of the Lord Jesus faced a lot of problems, pains, and persecutions during their ministry and Christian service. Life was never easy or convenient for them; rather, the very people amongst whom they served the Lord and did good for them, from those very people many turned against them and created a lot of problems for them. Nevertheless, anyone who has once experienced the Lord’s love, kindness, grace, and salvation, anyone who has experienced the peace and blessings of the Lord Jesus, even in all the hardships and problems he had to face, he who has come to realize the truth and reality of the Lord Jesus Christ, for him these problems and persecutions of the world became not a cause of being despondent, but a proof of the wonderful, excellent heavenly blessings that God has kept for them; and for the hope of those blessings, they continued to suffer all of this with joy “For our light affliction, which is but for a moment, is working for us a far more exceeding and eternal weight of glory, while we do not look at the things which are seen, but at the things which are not seen. For the things which are seen are temporary, but the things which are not seen are eternal” (2 Corinthians 4:17-18). For such a person, physical healing has no significance, since he knows that eventually the body will die, someday; and presently whatever illness or weakness he may be having, the Lord will help him through it, and bless him because of it “And He said to me, "My grace is sufficient for you, for My strength is made perfect in weakness." Therefore, most gladly I will rather boast in my infirmities, that the power of Christ may rest upon me. Therefore, I take pleasure in infirmities, in reproaches, in needs, in persecutions, in distresses, for Christ's sake. For when I am weak, then I am strong” (2 Corinthians 12:9-10). 


No Christian Believer should get perturbed about these circumstances and situations, “Let your conduct be without covetousness; be content with such things as you have. For He Himself has said, "I will never leave you nor forsake you." So, we may boldly say: "The Lord is my helper; I will not fear. What can man do to me?"” (Hebrews 13:5-6). Moreover, the Lord has also assured His disciples that He will never allow them to be tempted beyond their limits “No temptation has overtaken you except such as is common to man; but God is faithful, who will not allow you to be tempted beyond what you are able, but with the temptation will also make the way of escape, that you may be able to bear it” (1 Corinthians 10:13). Satan and his people will make many attempts and efforts to discourage us and make us fail and fall, to become weak and distracted in our faith, to doubt the Lord and His Word. But do not get carried away by the things being spread by Satan, but make full use of the opportunity you have to utilize the Lord’s love, kindness, grace, and offer of forgiveness of sins being extended to you. The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

Some Related Questions and their Answers / कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (5a)

 

पाप और उद्धार को समझना – 41

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पाप का समाधान - उद्धार - 38

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (5a)


पिछले कुछ लेखों में हमने प्रभु यीशु मसीह में विश्वास द्वारा मिलने वाली पापों की क्षमा, उद्धार, और नया जन्म पाने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण और सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्नों पर विचार किया है, और बाइबल से उनके उत्तर देखे हैं। पिछले दो लेखों में हमने देखा कि एक मसीही विश्वासी भी, उद्धार पाने के बावजूद, पाप कर सकता है, और करता भी है। किन्तु साथ ही उसे उस पाप से निकालने और आगे बढ़ने के लिए परमेश्वर की सहायता भी उपलब्ध रहती है। किन्तु यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर की इस सहायता एवं उदारता का दुरुपयोग, लापरवाही का जीवन जीने और पाप करते चले जाने के लिए करता है, तो फिर उसे परमेश्वर की ताड़ना का भी सामना करना पड़ता है, और साथ ही स्वर्ग में उसे मिलने वाले प्रतिफलों की भी हानि होती है। अर्थात, न तो पाप को और न ही उद्धार के अनन्तकालीन होने को लापरवाही से लिया जा सकता है; क्योंकि चाहे उद्धार न भी जाए किन्तु देर-सवेर पाप करते रहने वाले व्यक्ति को पाप के दुष्परिणामों को भुगतना ही पड़ेगा, इस संसार में भी और परलोक में भी। आज इसी शृंखला में हम एक और महत्वपूर्ण प्रश्न को देखेंगे:


प्रश्न: क्या उद्धार पा लेने, प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बन जाने से व्यक्ति संसार के दुख-तकलीफों, बीमारियों, समस्याओं, आदि से मुक्त हो जाता है, और सांसारिक समस्याओं से निश्चिंत होकर जीवन जीने लगता है?


उत्तर: यद्यपि बहुत से लोग अपने सुसमाचार प्रचार में इस बात का आश्वासन देते हैं, किन्तु, परमेश्वर के वचन बाइबल में ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया गया है; और न ही प्रभु यीशु ने कभी अपने शिष्यों से यह कहा कि उनपर विश्वास लाने वाले को सांसारिक समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा, और उनका जीवन सुख एवं समृद्धि से भर जाएगा। जो भी इस प्रकार की शिक्षा या प्रचार के साथ उद्धार का सुसमाचार सुनाते हैं, वे गलत प्रचार करते हैं, लोगों को ऐसा आश्वासन देते हैं जिसका बाइबल में कोई समर्थन नहीं है, और पापों के परिणामों की गंभीरता तथा प्रभु यीशु द्वारा उपलब्ध करवाए गए पापों के समाधान की महानता के आधार पर नहीं, वरन सांसारिक बातों के लालच में लाकर लोगों को प्रभु यीशु मसीह की ओर आकर्षित करने और उनका अनुसरण करवाने के प्रयास करते हैं। 


जब प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को उनकी पहली प्रचार सेवकाई के लिए भेजा था (मत्ती 10 अध्याय), तब ही उन्हें उन कठिन और दुखदायी परिस्थितियों के लिए आगाह कर दिया था जिनका उन्हें इस सेवकाई के निर्वाह में सामना करना होगा:


* वे पकड़े जाएंगे और दण्ड के लिए अधिकारियों के सामने खड़े किए जाएंगे (10:16-20)


* उनके अपने घर के लोग और निकट संबंधी उनके शत्रु हो जाएंगे (10:21)


* उन्हें लोगों के बैर का सामना करना पड़ेगा (10:22)


* उन्हें इस बैर और सताव से बचने के लिए एक से दूसरे स्थान पर भागना पड़ेगा (10:23)


प्रभु ने यह भी कहा कि जो उनका शिष्य बनना चाहता है उसे प्रतिदिन अपना क्रूस उठाकर उसके पीछे चलने को तैयार रहना चाहिए “उसने सब से कहा, यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप से इनकार करे और प्रति दिन अपना क्रूस उठाए हुए मेरे पीछे हो ले” (लूका 9:23)। उन दिनों में क्रूस उठाकर, उसे क्रूस पर चढ़ाए जाने के स्थान तक, वह व्यक्ति जाता था जिसे मृत्यु-दण्ड दिया गया है, और देखने वाले उसे देख कर समझ जाते थे कि यह अपराधी है, और अब यह नहीं, इसकी लाश ही लौटेगी। प्रभु का शिष्यों से प्रतिदिन क्रूस उठकर उसके पीछे चलने का निर्णय लेने से अभिप्राय था, प्रतिदिन उसके शिष्य होने के कारण सताए जाने और मारे जाने के लिए तैयार रहना। अपने पकड़वाए जाने से पहले भी प्रभु यीशु ने शिष्यों को सचेत किया, “वे तुम्हें आराधनालयों में से निकाल देंगे, वरन वह समय आता है, कि जो कोई तुम्हें मार डालेगा वह समझेगा कि मैं परमेश्वर की सेवा करता हूं” (यूहन्ना 16:2)। तो फिर प्रभु की इन शिक्षाओं के समक्ष कोई यह कैसे दावा कर सकता है कि प्रभु यीशु की शिष्यता का जीवन समस्याओं तथा परेशानियों से मुक्त एक आराम और सुरक्षा का जीवन होगा?


बाद में प्रभु के शिष्यों ने भी मसीही विश्वास के जीवन के विषय इन्हीं बातों को दोहराया:


* प्रेरितों 14:22 "और चेलों के मन को स्थिर करते रहे और यह उपदेश देते थे, कि हमें बड़े क्लेश उठा कर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना होगा।"


* 2 तीमुथियुस 3:12 "पर जितने मसीह यीशु में भक्ति के साथ जीवन बिताना चाहते हैं वे सब सताए जाएंगे।"


* 1 यूहन्ना 2:18 "हे लड़कों, यह अन्तिम समय है, और जैसा तुम ने सुना है, कि मसीह का विरोधी आने वाला है, उसके अनुसार अब भी बहुत से मसीह के विरोधी उठे हैं; इस से हम जानते हैं, कि यह अन्तिम समय है।"


* 1 यूहन्ना 3:13 "हे भाइयों, यदि संसार तुम से बैर करता है तो अचम्भा न करना।"


* 1 पतरस 4:12 "हे प्रियो, जो दुख रूपी अग्नि तुम्हारे परखने के लिये तुम में भड़की है, इस से यह समझ कर अचम्भा न करो कि कोई अनोखी बात तुम पर बीत रही है।"


* याकूब 1:2-3 "हे मेरे भाइयों, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो तो इसको पूरे आनन्द की बात समझो, यह जान कर, कि तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है।"


अर्थात, क्योंकि मसीही विश्वास में आना शैतान के चंगुल और राज्य से निकलकर परमेश्वर के राज्य में आ जाना है, इसलिए इस संसार में, इस शारीरिक जीवन में शैतान मसीहियों को सताने, उनके विरुद्ध काम करने और लोगों को भड़काने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। तो फिर मसीही विश्वास में आ जाने के बाद कोई भी संसार के दुख-तकलीफों, बीमारियों, समस्याओं, आदि से मुक्त होकर कैसे रह सकता है? हम अगले लेख में भी इस विषय पर विचार करना और बाइबल से सीखना ज़ारी रखेंगे। 


अभी के लिए, ध्यान कीजिए कि आप को पाप से मुक्ति दिलाने और परमेश्वर से मेल-मिलाप करके, उसकी सन्तान बनकर अनन्तकाल तक रहने के लिए प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है? आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।


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 Understanding Sin and Salvation – 41

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 38

Some Related Questions and their Answers (5a)

In the previous articles, we have been considering some important and commonly asked questions related to Christian Faith, forgiveness of sins, salvation, and being Born-Again, and learning their answers from the Bible. In the last article we had seen that a Christian Believer despite being saved, despite being Born-Again, might still sin and does sin. But he also has the help of God to extricate him from the sin; if a person continues to live a careless and wayward life, and misuses God’s help and grace, then he has to face God’s chastening here on earth and suffer loss of his heavenly rewards for his eternal life. This means that neither salvation being eternal, nor committing sin by a saved person can be taken lightly; because even if salvation is not lost, the person persisting in sin will have to face the harmful effects of sin, in this life as well as the next. Today in this series, we will look at one more important question: 


Question: By being saved and Born-Again, and becoming a disciple of Lord Jesus Christ, is a person delivered from the worldly problems and pains, from sickness, adverse situations etc. and begins to live a life free of problems of the world?


Answer: Although many people while preaching the Gospel, give an assurance about this, but in God’s Word the Bible, there is no such assurance given, and neither did the Lord Jesus ever say to His disciples that those who believe on Him will be delivered from the problems of this world, and their lives will be filled with worldly joy, satisfaction, and material prosperity. Whosoever preaches any such teaching or gospel, preaches falsehood, gives an assurance to the people that is not given in the Bible. They try to entice people into being attracted towards the Lord Jesus and follow Him for worldly gains and material things, instead of showing to them the seriousness of the problem of sin and the wonderful solution prepared and made freely available by the Lord Jesus for this problem.


The Lord Jesus Christ, at the time of sending His disciples for the first time for their ministry (Matthew 10), forewarned them of the difficult and painful situations they will have to face during this ministry:


* They will be taken into custody and brought before officials to be punished (Matthew 10:16-20).


* People from their own homes and families will become their enemies (Matthew 10:21). 


* They will have to face the opposition of the people (Matthew 10:22).


* They will have to run from one place to another to escape from this opposition and persecution (Matthew 10:23).


The Lord had also said that those who wanted to be His disciples should be willing to take up their cross daily to follow Him “Then He said to them all, "If anyone desires to come after Me, let him deny himself, and take up his cross daily, and follow Me” (Luke 9:23). At the time the Lord Jesus made this statement, the Lord Himself had not yet been crucified, but His followers knew and understood that those who had been condemned to death would walk to the place of being crucified bearing their cross, and those who saw this understood that the man was a despicable criminal, and now not he but only his dead body will return. The Lord’s implication in asking His disciples to daily lift their cross was that the disciple of Christ should be ready to suffer and die for being His disciple, every day. Before His being caught for crucifixion, the Lord Jesus had cautioned His disciples, “They will put you out of the synagogues; yes, the time is coming that whoever kills you will think that he offers God service” (John 16:2). Therefore, in the face of these teachings of the Lord, how can anyone claim that becoming a disciple of Lord Jesus will ensure a life of ease and security, free from problems and adverse situations?


Later, even the disciples of the Lord Jesus re-iterated these teachings in context of leading a life of Christian Faith:


* Acts 14:22 "Strengthening the souls of the disciples, exhorting them to continue in the faith, and saying, 'We must through many tribulations enter the kingdom of God.'"


* 2 Timothy 3:12 "Yes, and all who desire to live godly in Christ Jesus will suffer persecution."


* 1 John 2:18 "Little children, it is the last hour; and as you have heard that the Antichrist is coming, even now many antichrists have come, by which we know that it is the last hour."


* 1 John 3:13 "Do not marvel, my brethren, if the world hates you."


* 1 Peter 4:12 "Beloved, do not think it strange concerning the fiery trial which is to try you, as though some strange thing happened to you;"


* James 1:23 "My brethren, count it all joy when you fall into various trials, knowing that the testing of your faith produces patience."


In other words, since coming into the Christian Faith is coming out of the clutches and kingdom of Satan, into the Kingdom of God, therefore in this world, in this physical life, Satan will not miss any opportunity to persecute Christians, work against them and instigate people against them. Therefore, after coming into the Christian Faith, how can anyone while in this world, remain free from the worldly problems and pains, from sickness, adverse situations etc. and live a life free of problems of the world? We will continue to ponder over this topic and learn about it from the Bible in the next article. 


For now, ponder over the fact that to deliver you from sin and reconcile you with God, to live forever as a child of God, the Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


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बुधवार, 1 जनवरी 2025

Some Related Questions and their Answers / कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (4b)

 

पाप और उद्धार को समझना – 40

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पाप का समाधान - उद्धार - 37

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (4b)


हमने पिछले लेख को इस प्रश्न " यदि उद्धार पाए हुए और न पाए हुए, दोनों ही पाप कर सकते हैं, तो फिर उद्धार पाने का क्या लाभ? तो फिर उद्धार पाए हुए और न पाए हुए व्यक्ति में क्या अंतर?" के साथ समाप्त किया था। आज के लेख में हम इस प्रश्न के उत्तर को, उस अन्तर को, देखेंगे; तथा पिछले लेखों में देखी गई उद्धार की स्थिति में होने के लाभ एवं महत्व की पुष्टि करेंगे। उद्धार पाए हुए और न पाए हुए व्यक्ति के जीवनों में, और विशेषकर परलोक के अनन्त काल के जीवनों में, बहुत बड़ा और बहुत महत्वपूर्ण अंतर है - उद्धार न पाए हुए व्यक्ति के विपरीत, उद्धार पाया हुआ व्यक्ति हर परिस्थिति में सुरक्षित है, प्रभ द्वारा उसकी रक्षा और सहायता होती रहती है; इस पृथ्वी पर भी, और स्वर्ग में भी। बाइबल से कुछ पदों को देखिए:


* नीतिवचन 24:16 "क्योंकि धर्मी चाहे सात बार गिरे तौभी उठ खड़ा होता है; परन्तु दुष्ट लोग विपत्ति में गिर कर पड़े ही रहते हैं।"


* अय्यूब 5:19 "वह [परमेश्वर] तुझे छ: विपत्तियों से छुड़ाएगा; वरन सात से भी तेरी कुछ हानि न होने पाएगी।"


* भजन संहिता 37:24 "चाहे वह गिरे तौभी पड़ा न रह जाएगा, क्योंकि यहोवा उसका हाथ थामे रहता है।"


* भजन संहिता 34:19 "धर्मी पर बहुत सी विपत्तियां पड़ती तो हैं, परन्तु यहोवा उसको उन सब से मुक्त करता है।"


* नीतिवचन 14:32 "दुष्ट मनुष्य बुराई करता हुआ नाश हो जाता है, परन्तु धर्मी को मृत्यु के समय भी शरण मिलती है।"


एक बार फिर ध्यान करें, यह उद्धार पाए हुए व्यक्ति के लिए पाप करते रहने की छूट नहीं है; जैसा कि हम इससे पहले वाले प्रश्न के उत्तर में देख चुके हैं। वरन इसे ऐसे समझिए, जब एक शिशु खड़ा होना और चलना आरंभ करता है, तो बहुत बार लड़खड़ाता है, अस्थिर कदमों से चलता है, गिरता है, कभी-कभी चोट भी खाता है, किन्तु माता-पिता हर बार उसकी सहायता करते हैं, उसे प्रोत्साहित करते हैं, गिर जाने पर उसे उठा कर खड़ा भी करते हैं और गोदी में लेकर दुलारते और पुचकारते भी हैं। इसी प्रकार परमेश्वर पिता भी अपने आत्मिक बच्चों की सहायता करता है, उन्हें उभारता है, मार्गदर्शन करता है। किन्तु जैसे जब बच्चे उद्दंड होते हैं, बारंबार जान-बूझकर अनाज्ञाकारिता करते हैं, बुराई में पड़ते ही रहते हैं, तो फिर केवल चेतावनी देने भर से ही काम नहीं चलता है, और माता-पिता को उस उद्दंड बच्चे की ताड़ना भी करनी पड़ती है; उसी प्रकार परमेश्वर भी उद्दंडता करने वाली अपनी सन्तान की उपयुक्त ताड़ना भी करता है (इब्रानियों 12:5-11)। नया जन्म होने पर मसीही विश्वासी एक नए जन्मे हुए बच्चे के समान परमेश्वर के आत्मिक घराने में, आत्मिक शिशु अवस्था में प्रवेश करते हैं। वे चाहे आत्मिक रीति से अक्षम और अयोग्य हैं, परिपक्व और सिद्ध नहीं हैं, उन्हें वचन की समझ और ज्ञान नहीं है, लेकिन वे उसी परिवार का एक अभिन्न भाग हैं। वे परमेश्वर के उस परिवार की प्रत्येक बात, प्रत्येक विशेषाधिकार, प्रत्येक आशीष, प्रत्येक आदर, सम्मान, और ओहदे के बराबर के हिस्सेदार हैं (रोमियों 8:17-18)। कोई उनके इस अधिकार को उनसे छीन नहीं सकता है। परिवार में प्रवेश करने के बाद से परमेश्वर पवित्र आत्मा अंश-अंश करके उन्हें प्रभु कि समानता में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)। वे सिद्ध नहीं हैं, इसलिए उनके जीवनों में भली और बुरी दोनों बातें पाई जाती हैं; इस अपूर्णता का यह तात्पर्य नहीं है कि परमेश्वर की सन्तान नहीं हैं या उनका उद्धार उनसे ले लिए गया है अथवा ले लिए जाएगा। आत्मिक परिपक्वता की इस यात्रा में वे अनेकों अनुभवों, परिस्थितियों, परीक्षाओं से होकर निकलते हैं; और आवश्यकता पड़ने पर परमेश्वर पिता उनकी ताड़ना भी करता है। इसीलिए उनके जीवनों में कुछ अनपेक्षित अथवा अनुचित बातों के कारण यह निष्कर्ष निकालना कि वे परमेश्वर के परिवार के अंग नहीं हैं, या नहीं रहने पाएंगे अनुचित है, बाइबल से इस धारणा का कोई समर्थन नहीं है। वरन यह धारणा रखना, ऐसे व्यक्तियों की बाइबल की अधूरी और गलत समझ और उनके बाइबल का सही ज्ञान न होने का सूचक है। 


हम जब मसीही विश्वासियों के प्रति पिता परमेश्वर के इस प्रेम और देखभाल, उन्हें सुरक्षित रखने, उभारने, सिखाने, और परिपक्व करने के प्रावधानों को देखते हैं, तो फिर आश्चर्य होता है कि क्यों लोग फिर भी परमेश्वर के इस अद्भुत प्रयोजन को स्वीकार नहीं करते हैं, और क्यों सच्चे मन से प्रभु यीशु को समर्पित होकर उसकी शरण में नहीं आ जाते हैं, स्वेच्छा से उसके शिष्य नहीं बन जाते हैं? परमेश्वर कोई कठोर दण्ड-अधिकारी नहीं है जो हमें दण्ड या ताड़ना देने के अवसर ढूँढता रहता है; वरन वह तो हमें अपने प्रेम, अनुग्रह, और कृपा का भागी बनाने के अवसरों की तलाश में रहता है। तो फिर क्यों उससे दूरी रखनी? क्यों उसके इस प्रेम भरे आह्वान को ठुकराना? प्रभु के आपके प्रति प्रमाणित किए गए प्रेम, कृपा, और अनुग्रह, तथा उसके द्वारा आपको प्रदान किए जा रहे पाप-क्षमा प्राप्त करने के अवसर के मूल्य को समझिए, और अभी इस अवसर का लाभ उठा लीजिए। 


प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है? आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।


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 Understanding Sin and Salvation – 40

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 37

Some Related Questions and their Answers (4b)


We had closed the previous article with the question "Then what is the benefit of being saved or Born-Again? If both can sin, then what difference, if any, is there between a saved and an unsaved person?" Today we will consider the answer to this question, the difference between the two; and also reaffirm the the importance and benefits of being saved, that we have seen earlier. There is a great difference in the lives, particularly the eternal lives in the next world, of those saved in contrast to those not saved - unlike the not-saved person, the saved person is always protected, the Lord helps him and keeps him safe in every circumstance; in this world as well as the next. Consider some verses from the Bible:


* Proverbs 24:16 "For a righteous man may fall seven times And rise again, But the wicked shall fall by calamity."


* Job 5:19 "He [God] shall deliver you in six troubles, Yes, in seven no evil shall touch you."


* Psalm 37:24 "Though he fall, he shall not be utterly cast down; For the Lord upholds him with His hand."


* Psalm 34:19 "Many are the afflictions of the righteous, But the Lord delivers him out of them all."


* Proverbs 14:32 "The wicked is banished in his wickedness, But the righteous has a refuge in his death."


But take note, again, this is not a license for the saved or Born-Again person to sin with impunity; as we have already considered in detail in the preceding articles. Rather, understand this with this example, when a baby starts to stand and walk, initially he stumbles and falls many times, walks with faltering steps, even hurts himself due to the falls; but every time the parents help him, encourage him, help him to get up and walk again, and often take him in their arms and console him or pet him if he is hurt. Similarly, God the Father too helps His spiritual children, encourages them, guides them when they fall in sin. But just as when the children become impertinent, willfully disobedient, and willfully keep disobeying the parents, repeatedly keep on doing bad or forbidden things, then in such a situation, only verbal warnings do not suffice, the parents have to chasten that recalcitrant child; similarly, God too appropriately chastens His recalcitrant children (Hebrews 12:5-11). On being Born-Again the Christian Believer enters the spiritual family of God as a spiritual infant. They may be unable and unlearned to do anything, they are not spiritually mature and perfect, they do not have the proper knowledge and understanding of God's Word, but still they are an inseparable part of that family. They have equal part and rights to everything in God's family, to every privilege, every blessing, every respect, honor, and status of the family (Romans 8:17-18). No one can take away this right from them. Once they become part of the family, the Holy Spirit starts changing them bit by bit into the likeness of the Lord (2 Corinthians 3:18)। Since they are not perfect, therefore, in their lives both good and bad things are seen; this incompleteness in them does not imply that they are not the children of God, or that their salvation has been taken away from them, or will be taken away. In this journey to spiritual maturity, they pass through many kinds of experiences, circumstances, and tests; and where and when required Father God chastises them also. Therefore, because of some unexpected or inappropriate things being present in their lives, to conclude that they are not, or will not remain a part of God's family is incorrect, it has no support from the Bible. Rather, those who believe in such a notion, it indicates their incomplete and incorrect understanding and not having a proper knowledge of God's Word.


When we see the love and care bestowed by God the Father upon His children the Christian Believers, to keep them safe, encourage them, teach them, and guide them into maturity, then it is surprising why people do not accept this wonderful provision of God for them? Why do they not voluntarily come up and accept the offer of the Lord Jesus and become His obedient, submitted disciples? God is not a strict disciplinarian, who is waiting to find an opportunity or way to punish man; rather, He is a loving Father who is always in search of opportunities to show His love, kindness, and grace towards us. Then why should anybody stay away from Him; reject His loving offer of reconciliation and fellowship? The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


 

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