मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 27
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मसीही विश्वासी द्वारा प्रचार - क्या और कैसे? (2)
पिछले लेख से हमने मत्ती 28:18-20, मरकुस 16:15-19, और प्रेरितों 1:8 के आधार पर प्रभु के आरम्भिक शिष्यों के द्वारा सुसमाचार प्रचार करने के बारे में देखना आरम्भ किया है। हम देख रहे हैं कि सभी विरोध और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, वे आरम्भिक शिष्य बहुत प्रभावी रीति से सुसमाचार प्रचार कर सके; ऐसा, जैसा आधुनिक संसाधन उपलब्ध होने के बाद भी, आज के उपदेशक और प्रचारक नहीं करने पाते हैं। हमने देखा था कि उन आरम्भिक शिष्यों की सफलता की कुंजी, उनका प्रभु के प्रति समर्पित और प्रभु के कार्य के लिए प्रतिबद्ध होना, प्रभु के निर्देशों के अनुसार, प्रभु के अधिकार के साथ, प्रभु के प्रति जवाबदेह रहते हुए, प्रभु के लिए सुसमाचार प्रचार करने की दृढ़ भावना रखना था; न कि किसी नौकरी या वेतन कमाने के लिए सुसमाचार प्रचार करना। इसी विषय, आरम्भिक शिष्यों के इतना सफल सुसमाचार प्रचार करने से सम्बन्धित बातें, पर आज हम कुछ और बातों को देखेंगे।
प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों के द्वारा सुसमाचार प्रचार का आरम्भ पापों के पश्चाताप के आह्वान के साथ होता था; अर्थात प्रभु को ग्रहण करने वाले व्यक्ति के द्वारा अपने पापों के अंगीकार के साथ। कभी भी सुसमाचार को स्वीकार करना सांसारिक बातों, भौतिक सुख-समृद्धि, शारीरिक चंगाइयों, तथा अन्य किसी शारीरिक बातों के प्रलोभन देने के साथ नहीं जोड़ा जाता था। न तो प्रभु यीशु ने कभी भी किसी भी धर्म की आलोचना की या उसे नीचा दिखाने का प्रयास किया, और न ही प्रभु के उन शिष्यों ने किसी अन्य के धर्म या विश्वास को नीचा दिखाने, उसकी आलोचना करने का प्रयास किया। उन शिष्यों को केवल अपने व्यक्तिगत जीवन और व्यवहार एवं वार्तालाप से प्रभु यीशु मसीह और उसके कार्य को संसार के लोगों के सामने ऊंचे पर उठाना था, ताकि लोग स्वयं उन शिष्यों के जीवनों को देख सकें, उसका आँकलन कर सकें, और उनके जीवनों में आए परिवर्तन की वास्तविकता पर विश्वास कर सकें, उसके प्रति आश्वस्त हो सकें; शेष कार्य परमेश्वर पवित्र आत्मा ने करना था।
क्योंकि ये शिष्य प्रभु के अधिकार के साथ, और प्रभु के निर्देशों के अंतर्गत, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के साथ सुसमाचार प्रचार के लिए भेजे गए थे, इसलिए आवश्यकता के अनुसार, उनके प्रचार के दौरान, उनके प्रचार के साथ ही उनके द्वारा ईश्वरीय सामर्थ्य के कार्य भी किए जाने, और खतरों में भी प्रभु द्वारा सुरक्षित रखे जाने का आश्वासन उनके साथ था (मरकुस 16:15-18)। यहाँ पर यह ध्यान रखने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि प्रभु ने उन्हें आश्चर्यकर्म करके लोगों को प्रभावित करने और लुभाने, इन बातों के द्वारा, प्रभु यीशु के नाम की आड़ में अपने नाम को ऊंचा दिखाने के लिए नहीं भेजा था। जैसे प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दौरान था, वैसे ही उन शिष्यों का प्राथमिक कार्य सुसमाचार प्रचार था। जैसे प्रभु ने आश्चर्यकर्म सुसमाचार प्रचार के दौरान आवश्यकता के अनुसार किए, उसी प्रकार इन शिष्यों का भी प्राथमिक कार्य सुसमाचार प्रचार करना था, और आवश्यकता के अनुसार, प्रभु उनमें होकर आश्चर्यकर्म करता था। न तो प्रभु ने आश्चर्यकर्मों को लोगों को आकर्षित करने के लिए प्रयोग किया, और न ही इन शिष्यों को आश्चर्यकर्म करने की प्रभु द्वारा दी गई सामर्थ्य को ऐसे उपयोग करना था। तात्पर्य यह कि मसीही सेवकाई और सुसमाचार प्रचार में अद्भुत कामों और आश्चर्यकर्मों की प्राथमिकता नहीं है। पापों से पश्चाताप करना, सुसमाचार को स्वीकार करना, और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण करना तथा उद्धार पाना ही प्राथमिक हैं। शिष्य यही करते थे, और शेष बातें समय और आवश्यकता के अनुसार स्वतः ही होती जाती थीं।
आज लोग प्रभु यीशु द्वारा, उसके वचन बाइबल में दिए गए सुसमाचार प्रचार के तरीकों का बहुत काम ही पालन करते हैं। वे सच्चे सुसमाचार के प्रचार में बहुत कम, और प्रभु यीशु मसीह के नाम में अपने मत या डिनॉमिनेशन की बातों के प्रचार में, या सांसारिक बातों, भौतिक समृद्धि, और शारीरिक चंगाइयों के प्रचार और प्रदर्शन के द्वारा लोगों को लुभाने में बहुत अधिक लगे रहते हैं। आज के प्रचारक प्रभु यीशु को प्रसन्न करने की बजाए, अपने द्वारा किए गए कार्यों के आँकड़े (statistics) अपने अधिकारियों और संसार के लोगों के सामने रखने में अधिक रुचि रखते हैं। हम जगत के अंतिम दिनों में रह रहे हैं; प्रभु यीशु मसीह ने कहा था, “...देखो, मैं तुम से कहता हूं, अपनी आंखें उठा कर खेतों पर दृष्टि डालो, कि वे कटनी के लिये पक चुके हैं” (यूहन्ना 4:35); “...पके खेत बहुत हैं; परन्तु मजदूर थोड़े हैं: इसलिये खेत के स्वामी से बिनती करो, कि वह अपने खेत काटने को मजदूर भेज दे” (लूका 10:2)। आज प्रभु यीशु मसीह को किसी मत या डिनॉमिनेशन की नौकरी करने वाले प्रचारकों, प्रभु क नाम में उनकी शिक्षाओं और बातों का प्रचार करने वालों की आवश्यकता नहीं है; वरन उसे उन लोगों की आवश्यकता है जो उसके वास्तविक शिष्य बनकर सच्चे समर्पण और आज्ञाकारिता तथा प्रतिबद्धता के साथ सुसमाचार प्रचार करने के लिए वहाँ जाएं जहाँ व भेजे, और वैसे प्रचार करें जैसे वह उनसे करने के लिए कहे। क्या आप प्रभु के लिए यह निर्णय करेंगे, और अपने आप को उसकी सेवकाई के लिए समर्पित करेंगे? जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
और
कृपया अपनी स्थानीय भाषा में अनुवाद और प्रसार करें
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Christian Faith & Discipleship – 27
Christian Disciple – Preach What & How? (2)
Since the previous article, on the basis of Matthew 28:18-20, Mark 16:15-19, and Acts 1:8, we have started considering the preaching of the gospel done by the initial disciples of the Lord Jesus. We have seen that despite severe opposition and adverse circumstances, those disciples could preach the gospel very effectively; so effectively, that with all the modern resources available today, the preachers and evangelists are unable to do. We also saw that the key to the success of those initial disciples was their being truly and fully submitted to the Lord and committed to His work, they worked according to the instructions of the Lord, through the authority of the Lord, remaining accountable to the Lord, and preaching the gospel for the Lord; and not for the sake of a job or to earn a salary. Today we will look at some more things related to the same topic, the successful gospel preaching by the initial disciples.
The disciples of the Lord Jesus were to preach the gospel with a call to repentance of sins, i.e., an acknowledgement of personal sins by the person accepting the Lord. The call to accept the gospel was never to be for the sake of worldly prosperity, physical healings, and other similar temporal benefits. Neither did the Lord ever do it himself, nor did He ever instruct the disciples to criticize and demean any other religion or faith, and use that criticism as a means to be presenting a better or superior alternative. The disciples, by their lives, behavior, and words, had to exalt the Lord Jesus and His work of salvation before the people of the world, so that the people could see, examine, and be convinced of the changed lives of the disciples; the rest was for the Holy Spirit to do.
Since these disciples were sent under the authority and instructions of the Lord, after having received the power of the Holy Spirit, therefore, as per the needs and requirements of the situation, it was the Lord’s assurance to them that during their ministry miraculous works could also be accomplished through them and the Lord would also keep them safe (Mark 16:15-18). Here, it is very important to note and understand that the Lord had not sent them out to do miraculous works and impress people by them, and through these things to try and exalt themselves through using the name of the Lord Jesus. As was during the days of the earthly ministry of the Lord, the primary purpose of the disciples was to preach the gospel. As the Lord did miracles during His ministry of preaching the gospel, according to the need of the hour, similarly these disciples too had to primarily preach the gospel, and as per the need, the Lord would do miraculous works through them as well. Neither did the Lord ever use His miracles to attract people to Himself or His message, nor were these disciples meant to use the Lord’s power to do miracles through them to attract people to the Lord. The point is, that in Christian ministry of the gospel, miraculous and wondrous works are never ever the primary thing; only repentance of sins, accepting the gospel, believing in the Lord Jesus is the primary thing, the main issue; all the rest would automatically follow as per the need of the hour and the situation at hand.
Today people very rarely practice the preaching of the gospel as actually instructed by the Lord in His Word the Bible. Instead, their preaching is more in accordance with the teachings and opinions of their denominations or sects or groups. Also, many people give the primary place to worldly prosperity, physical things, healings, etc. in their ministry, and try to attract people through them. Today, most preachers are more worried about pleasing their worldly authorities through their records and statistics of various kinds, instead of being concerned about pleasing the Lord Jesus, in whose name they claim to be doing these things. We are living in the last days; the Lord Jesus had said, “...Behold, I say to you, lift up your eyes and look at the fields, for they are already white for harvest!” (John 4:35); and “...The harvest truly is great, but the laborers are few; therefore, pray the Lord of the harvest to send out laborers into His harvest” (Luke 10:2). Today the Lord Jesus does not need preachers to preach according to the opinions and understanding of any denomination or sect or group; but He needs those who with a true commitment and surrender to Him will go out to preach the true gospel as He wants them to preach, when and where he asks them to preach. Will you decide in favor of the Lord and take this step of commitment and surrender yourself to Him for His ministry to be done the way He wants it done? Where there is the obedience and submission to the Lord, where His Word is honored and obeyed, His security and blessings are also there.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then take a decision in its favor now to secure your eternal life and heavenly blessings. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, have not truly and sincerely surrendered yourselves into His hands, then you have the opportunity to do so right now - this is the only way to be saved and have a heavenly life. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
&
Please Translate and Propagate in your Regional Language
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